मुसुई और मइया की कहानी राधाकृष्णन की ज़बानी


शांतिनिकेतन में सड़क पर चलते हुए, उस कलाकार को अचानक एक चेहरा दिखाई दिया। वह चेहरा सामान्य नहीं था, बल्कि भीख मांगते हुए भी उस चेहरे पर दयनीयता या उदासी नहीं थी, बल्कि एक अजीब-सी मुस्कुराहट थी। यह चेहरा था, एक 18-19 साल के युवक का और उस समय उस कलाकार की उम्र भी इसके लगभग ही थी। कलाकार को लगा कि यह चेहरा आम चेहरों से हट कर है। एक चमक है, जो देखते ही बनती है और यही चेहरा उस कलाकार का मॉडल बन गया। शांतिनिकेतन की सड़क पर मिले उस चेहरे का नाम था- मुसुई, और वह कलाकार हैं आज के विख्यात मूर्तिकार के. एस. राधाकृष्णन। राधाकृष्णन ने उसी चेहरे से एक और चेहरा बनाया-मइया और यह दोनों चेहरे आज राधाकृष्णन की मूरतों में ढल कर लंबा जीवन पा गये हैं।
कलाकृति आर्ट गैलरी में कांस्य और विभिन्न धातुओं से बनी काले रंग की असंख्य मूरतों का अवलोकन करते हुए, जो खास चीज अपनी ओर आकर्षित कर रही थी, वह दो पात्र थे, जो हर जगह किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। ये दोनों पात्र मुसुई और मइया के थे। राधाकृष्णन, मुसुई और मइया की बड़ी दिलचस्प कहानी है। राधाकृष्णन मूल रूप से केरल के हैं। शांतिनिकेतन ने उन्हें बांगला बना दिया और फिर दिल्ली में रह कर वे अपनी मूरतों को दुनिया भर में ले गये। डिब्बों में बंद लोग, कभी कश्ती में डूबते, कभी कश्ती सिर पर उठाते लोग, कभी छत पर मइया की मुद्राएं देखते तो कभी उसी छत के आस-पास खड़े मुसुई की डाँच-डपट सुनते लोग, रोशनी की तलाश में ज़मीन से उठ कर सूरज के पास पहुंचने की इच्छा रखते लोग और भीड़ में एक-दूसरे की टांग खींचते लोग...न जाने कितनी ही मुद्राएँ जो न केवल भीड़ की मानसिकता को अभिव्यक्त करती हैं, बल्कि तन्हाई में बैठ कर कुछ सोच-विचार भी करते हैं। गैलरी में इन सभी मूरतों में घिरा मैं न जाने कब तक वहीं खड़ा रहता, अगर राधाकृष्णन के आने की सूचना नहीं मिलती।पाँच-छः साल पहले शायद कृष्णाकृति उत्सव में राधाकृष्णन आये थे। उन्होंने मूर्तिकला पर अपनी बात भी रखी थी, लेकिन इस बार वे अपने साथ अपनी मूूरतों को भी ले आये  हैं।

लंबी-सी मूछें और लंबी दाढ़ी, जैसे पुराने दौर के किसी साधक की मुद्रा में बैठे हों, लेकिन इस भेस में वो नये दौर के आधुनिक मूर्तिकला की जानी-मानी शख़्सियत हैं। बातचीत के दौरान मैंने सीधे मुसुई की कहानी छेड़ दी और हम उनकी युवावस्था की सैर पर निकल गये। उन्होंने बताया कि मुसुई से उनकी मुलाकात शांतिनिकेतन में हुई थी। उसने मुस्कुराते हुए भीख मांगी तो उन्हें लगा कि यह भिखारी दूसरों की तरह उदास रोता हुआ या दया मांगता हुआ नहीं है, बल्कि उसने अपनी खुशी की मानसिकता को बचाए रखा है। उन्होंने उसे तीन रुपये दिये। अभी वे वहीं थे कि कुछ देर बाद वह अपने बाल कटवा कर वहाँ चला आया। उसकी शक्ल बिल्कुल बदली हुई थी। उसे देखकर उन्होंने सोच लिया कि वे उसे अपनी मूरतों का मॉडल बना देंगे और उन्होंने ऐसा किया भी। उसे सामने बिठा कर वे मूरतें बनाते थे और इस तरह से मुसुई को भीख मांगने की ज़रूरत भी नहीं थी।

क्या कभी मुसुई की तरह मइया से भी मुलाक़ात हुई? `नहीं!'... राधाकृष्णन मुस्कुराते हुए कहने लगे। `...कुछ साल बाद जब मैं दिल्ली चला आया तो नये काम के बारे में सोचने लगा था। अब मुसुई व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ नहीं था, लेकिन मैं उसका एक चेहरा सिर और मुखौटे के रूप में बना लाया था। मूरतों में उसी की झलक थी। काफी दिन तक काम करने के बाद मुझे लगा कि काफी रिपिटेशन होता जा रहा है। मुसुई का कोई साथी होना चाहिए। फिर एक दिन मैंने मुसुई के सिर पर नारी के बाल लगा कर उसे ही मइया बना दिया। मइया बंगाली में लड़की को कहते हैं। इस तरह ये दोनों पात्र मेरे साथ चलते रहे और आज भी चल रहे हैं।'
राधाकृष्णन मइया से तो नहीं मिले, लेकिन वे मानते हैं कि हर मर्द में एक औरत और हर औरत में एक मर्द के कुछ तत्व होते हैं। यह तत्व उसे विभिन्न अवसरों पर अपने भाव प्रकट करने में और दूसरों के भाव समझने में मदद करते  हैं। क्या वे अपनी कांस्य की मूरतें बनाते हुए उसे फिर से तोड़ कर बनाने की सोचते हैं? इस सवाल के जवाब में राधाकृष्णन कहते हैं कि मिट्टी की मूरतों के साथ तो ऐसा हो सकता है, लेकिन कांस्य में बस वेल्डिंग मशीन के साथ मूरतें जुड़ती जाती हैं। वे कहते हैं, `बस ऐसा समझ लें कि मिट्टी की मूरतें गर्ल फ्रेंड की तरह हैं और कांस्य की मूरतें पत्नी की तरह।'
`फीगरिंग आउट विथ फिगर्स' शीर्षक से उनकी मूरतों की प्रदर्शनी  कलाकृति आर्ट गैलरी में कलाप्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र रही।



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