गनीमत है कि सड़क पैदल चलने का भाड़ा नहीं मांगती

बाज़ार जैसे-जैसे अपना रूप बदल रहा है, उसी अंदाज़ से बदल रही है जीवन शैली भी। हम सब देख रहे हैं कि सब कुछ बदलता जा रहा है, आदमी, चीज़ें, वातावरण और वह भी बदल रहा है, जिसके बदलने ना बदलने से उसे कोई फ़़र्क नहीं पड़ता, लेकिन बदलाव जैसे नियती है और हम सब उसका हिस्सा बनते जा रहे हैं। शायद इसी को हम समय के साथ चलना कहते हैं। समय के साथ चलते-चलते हममें से कई लोगों ने जो है, उसे छुपाने और जो नहीं है, उसे बताने का फ़न भी सीख लिया है, जिसको रफूगरी का फन कहा जाता है। कवि इस कला के बारे में कहता है-
हर आदमी अपने फटे को ढ़ंकना चाहता है
इस महान कारीगरी से
इसी लिए बुनकरों से ज़्यादा कामियाब हो रहे हैं रफूगर

यह छिपाने और काम चलाने का युग है
बस एक नज़र में सबकुछ ठीक-ठाक लगे
फिर दूसरे के पास भी वक़्त कहाँ है कि आँखें फाड़-फाड़ कर देखें

कल की फिक्र महज़ इतनी सी
कि कितना ज़्यादा बटोर लिया जाए
कल के लिए

इस तदर्थ युग की
सब से उन्नत कला है रफूगरी
जिसके सामने नतमस्तक हैं

मदन कश्यप की यह पंक्तियाँ पढ़ते हुए हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, कि हम उन्नति के शिखर पर किस ओर बढ़ते जा रहे हैं। सब से कीमती वस्तु हम किसे मानते हैं, समय ही को ना ! और वही हम से छिनता जा रहा है, किसी से भी पूछे वह उसके पास नहीं है। समय बेच-बेच कर हम जो कुछ बटोर रहे हैं वह भी हर दूसरे दिन अपना मूल्य हार रहा है। कुछ भी स्थाई नहीं है। शायद कवि का तदर्थयुग कहना बिल्कुल सही लगता है। इस कविता में एक और बात पर ध्यान जाता है कि हमें कल की चिंता कितनी है? उसको बहुत अधिक सफल भविष्ययोजक अथवा प्रबंधक माना जाता है, जो अधिक से अधिक बटोरने में माहिर है। जब बटोरना ही है तो फिर फिर यहाँ भी कोई किसी के पीछे क्यों रहे चाहे वह व्यापारी हो कि समाज सेवी नागरिक हो कि सरकार सब कुछ बिकाऊ होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में मदन कश्यप सोचते हैं कि जो कुछ बिकने से बचा है या जिसका शुल्क अभी तय नहीं किया गया है, वह ग़निमत है-
ग़नीमत है
कि पृथ्वी पर अब भी हवा है
और हवा मुफ्त है
गनीमत है
कि कहीं-कहीं लगे है निःशुल्क प्याऊ
और कोई-कोई पिला देता है बिना बिना पैसा लिए पानी
गनीमत है
कि सड़क पैदल चलने का भाड़ा नहीं मांगती
हालांकि शहरी घरों में मुश्किल से आ पाती है
फिर भी धूप पर कोई टेक्स नहीं है
गनीमत है
कई पार्कों में आप मुफ्त जा सकते हैं
बिना कुछ दिये समुद्र को छू सकते हैं
सूर्योदय और सूर्यास्त के दृष्य देख सकते हैं
गनीमत है
कि गनीमत है
मदन कश्यप का यह संदेह करना ज़रूरी भी है कि जो कुछ है वह ग़नीमत है, वरना इस बेचने वालों और खरीदने वालों के बाज़ार मेंं पानी की तो कीमत तय हो चुकी है और कुछ सड़कों पर चलने का टैक्स भी लग चुका है, वह दिन दूर नहीं जब सांस लेने लिए भी टैक्स अदा करना पड़े। शहरों में झुग्गी झोपडियों में रहने वाले लोग जानते हैं कि उनकी टूटी छतों पर आने से पहले ही धूप पर ऊंची ईमारतों का कब्जा हो जाता है और सूर्यास्त पर भी उन्हीं खिड़कियों और झरोंखों का ही अधिकार है, जो झोंपड़ियों को छुपाते हुए बुलंद हो गये हैं। कवि ऐसे ही अंधेरे से बाहर निकलने की प्रतिक्ष में है और यही सोचते हुए उसकी नीद उचट जाती है।
रात के तीन बजे अचानक उचट गयी है नींद
यह वह ख़तरनाक समय है
जब कोयल बंद कर चुकी है कूकना
और मुर्गों ने नहींं शुरू किया है बांग देना
झिंगुरों केै ज़हन में आहिस्ता आहिस्ता उतर रही है
खामोशी
सितारे लौट रहे हैं
अपनी-अपनी लोप स्थली की ओर
चारों तरफ फैला है गहरा अंधकार
इस समय कितनी सहज शांत लग रही है
झूठों मक्कारों से भरी यह पृथ्वी
यह वक़्त होता है
कुत्तों और सियारों के भी सो जाने का
(इसी समय पहचाना जा सकता है
अपने दूधमुहे अक्रोश को
घृणा इस समय हो जाती है आवेगहीन)
करुण संगीत की तरह बज रहा है सन्नाटा
जैसे दूर बैठी कोई अकेली बèढी माँ गा रही हो
सिसकियों की संगत पर विदा गीत
धीरे-धीरे एक तिरछी ढ़लान की ओर बढ़ रही है
तारीक रात
एफ. एम. सलीम

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