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The Doyen of Urdu ghazals

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July 05,2015, THE HANS INDIA Vithal Rao For more than seven decades, one voice brought laurels to the city of the Nizams. People knew this voice by the name Vithal Rao. Born in Hyderabad to a poor family, Vithal Rao started singing from a young age. He was a part of courtly gatherings and later, he garnered accolades for teaching ghazals to his disciples. Many of his students now carry his legacy in Hyderabad and across India.  This artiste dedicated all his life to ghazal singing. However, irony is, the honour he should have received in the music world, he did not get. Yet, he relentlessly continued singing, and till date he has many followers. His death in recent past has brought a wave of grief among the music aficionados. In 2009, I spoke with him for three hours at his residence in Hindi Nagar. I was searching for anecdotes of prominent personalities of old Hyderabad.  Over to Vithal Rao I was born in the year 1930 (according to records, 1931) in a

...औरों का तड़पना देखकर तड़पा किये

शहर से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर हैदराबाद से श्रीशैलम मार्ग पर स्थित प्रज्वला ने जो सुधार-सह-पुनर्वास-गृह बनाया है, उसे देख अनायास ही डॉ. सुनीता कृष्णन के कार्यों को सराहने को जी चाहता है। दरअसल, आज़ादी के लगभग 68 वर्ष गुजर जाने के बाद भी सुधार की जो असली तस्वीर हमारी सरकारें खोज ही नहीं पायीं, उसे सुनीता ने अपने बुलंद हौसलों एवं इन्सानी जज़्बे से साकार करने की कोशिश की है। ऐसा लगता है कि सुनीता ने जो कुछ अपने प्रारंभिक जीवन में भोगा है, उन अनुभवों के आधार पर जोखिम भरे कामों को बड़ी सरलता से करती गयी हैं। वेश्यालयों से बचाकर लड़कियों एवं औरतों को जिन जगहों पर आम तौर पर रखा जाता है, वे किसी बंदीगृह से कम नहीं होतीं, लेकिन प्रज्वला का शेल्टर होम उनसे बिल्कुल अलग है। यहाँ कुछ देर बिताकर हम महसूस कर सकते हैं कि दुनिया भर से पीड़ित, दुःखी, लूट, खसोट, धोखेबाज़ी तथा विश्वासघात से आहत अविश्वास की परतें ओढ़ें, जो औरतें और युवतियाँ यहाँ आती हैं, उनमें फिर से ज़माने के प्रति विश्वास जगाने का काम किया जाता है। बच्चों के लिए एक बहुत ही खूबसूरत, रचनात्मक गतिविधियों से भरा स्कूल, किशोरिय

खोये आत्म-सम्मान को पाने का संघर्ष

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            हमेशा रास्ते साफ-सुथरे व फूलों से भरे नहीं होते। कभी किसी के हिस्से में काँटों से भरी राह भी आती है और कभी किसी को खुरदुरे और पत्थरों से भरे रास्ते भी तय करने पड़ते हैं। शायद शायर ने इसीलिए कहा है -   इन्हीं पत्थरों पर चल कर अगर आ सको तो आओ   मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है... लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम अपनी किस्मत के काँटों को किसी और के रास्ते में बोते चले जाएँ। डॉ. सुनीता कफढष्णन यही कुछ सोच कर लोगों के रास्तों के काँटे निकालने में लग गयीं। हालाँकि इस यातना-यात्रा में दूसरों के हिस्सों के काँटों की चुभन भी उन्हें झेलनी पड़ी। वह लगभग दो दशक से हैदराबाद में कार्यरत हैं। उनका परिवार केरल के पालक्कड़ से संबंध रखता है। उनका जन्म बेंगलुरु में हुआ और लालन-पालन हैदराबाद, बेंगलुरु तथा भूटान में। पिता भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग में कर्मी थे। एक सामान्य-सा निम्न मध्यवर्गीय परिवार, जहाँ छोटे-मोटे कार्यों के लिए तो बच्चों की सराहना हो सकती है, लेकिन परंपराओं से उलट कोई बड़ा साहसिक कार्य करने पर प्रशंसा की बजाय बेगानगी ही मिलती है। विपत्तियों में अ

तीसरी आँख

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भला हम कितने दिन जीते हैं? किसी के लिए भी इसके बारे में ठीक-ठीक बताना शायद मुश्किल होगा, लेकिन यह तो पूरे विश्वास के साथ बताया जा सकता है कि एक न एक दिन इस नश्वर शरीर का अंत होना है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि हमने इस जीवन में न शरीर के बारे में कुछ जाना और न ही आत्मा के बारे में। न ही ऐसे लोगों से मिले जो हमें इनमें छुपी शक्तियों के बारे में बता सकें। शरीर और आत्मा पर पड़े राज़ के पर्दों को हटा सकें। जीवात्मा के गंतव्य का ज्ञान दे सकें। चेतना के चक्षु उघाड़ सकें। उस सर्वश्रेष्ठ को प्राप्त करने की चाह जगा सकें, जिसका हिस्सा आत्म में छुपा है। उस साधक को जगा सकें, जो कहीं भीतर छुपा बैठा है। उस तीसरी आँख से देखने की क्षमता को बलवान बना सकें, जो हमारे भीतर रहकर भी जागफत नहीं है।  यह सब किसी गुरू की कफढपा से ही हो सकता है। कोई महा आत्मा ही सच्चे मार्ग पर अग्रसर कर भीतरी शक्तियों को उजागर करने का मंत्र प्रदान कर सकती है।

अलग पहचान की राह में बिखरे रंग

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  आर्ट   एट   तेलंगाना     हम तेज़ी से ग्लोबल होते जा रहे है। सारा संसार एक वैश्विक गांव में परिवर्तित होता जा रहा है। इस में कोई दो राय है भी नहीं , लेकिन क्या हम इस वैश्विक दौड़ में अपना घर , अपनी गली , मोहल्ला , अपनी स़ड़क , अपना शहर , प्रांत और प्रदेश , अपनी संस्कृति जैसे शब्द बेमानी हो जाएँगे ? `आर्ट एट तेलंगाना ' इसी प्रश्न के इर्द गिर्ध घूमती दुनिया है। तेलंगाना राज्य के गठन और उसके बाद बनी सरकार द्वारा अपने इतिहास की खोज के लिए जिन स्रोतों की खोज , पहचान , संरक्षण और संग्रहण का काम शुरू किया गया , उसमें ` आर्ट एट तेलंगाना ' भी एक रास्ता है। राज्य की स्थापना के बाद मनाए गये पहले स्वतंत्रता दिवस समारोह के आयोजन स्थल की तलाश से ही इस भावना का मार्ग प्रशस्त हुआ। सरकार चाहती थी कि जहाँ यह जश्न मनाया जाए , उस धरती में स्थानीयता की पहचान हो। भला गोलकोंडा से अच्छा स्थान और क्या हो सकता था। इसी बीच तेलंगाना के कलाकारों