अलग पहचान की राह में बिखरे रंग

 आर्ट एट तेलंगाना

   
हम तेज़ी से ग्लोबल होते जा रहे है। सारा संसार एक वैश्विक गांव में परिवर्तित होता जा रहा है। इस में कोई दो राय है भी नहीं, लेकिन क्या हम इस वैश्विक दौड़ में अपना घर, अपनी गली, मोहल्ला, अपनी स़ड़क, अपना शहर, प्रांत और प्रदेश, अपनी संस्कृति जैसे शब्द बेमानी हो जाएँगे? `आर्ट एट तेलंगाना' इसी प्रश्न के इर्द गिर्ध घूमती दुनिया है। तेलंगाना राज्य के गठन और उसके बाद बनी सरकार द्वारा अपने इतिहास की खोज के लिए जिन स्रोतों की खोज, पहचान, संरक्षण और संग्रहण का काम शुरू किया गया, उसमें `आर्ट एट तेलंगाना' भी एक रास्ता है।
राज्य की स्थापना के बाद मनाए गये पहले स्वतंत्रता दिवस समारोह के आयोजन स्थल की तलाश से ही इस भावना का मार्ग प्रशस्त हुआ। सरकार चाहती थी कि जहाँ यह जश्न मनाया जाए, उस धरती में स्थानीयता की पहचान हो। भला गोलकोंडा से अच्छा स्थान और क्या हो सकता था। इसी बीच तेलंगाना के कलाकारों द्वारा रंगों में रचे बसे ऐतिहासिक क़दमों की पदचाप को रिकार्ड करने का प्रयास किया गया, ताकि भावी प़ीढियों के लिए अपना कुछ होने का भाव पहुँचाया जा सके। चित्रकारों का एक शिविर `आर्ट एट तेलंगाना' का आयोजन तारामती आर्ट गैलरी में रखा गया। यहाँ लगभग डेढ़ सौ कलाकारों ने अपनी प्रतिभा के रंग बिखेरे। उनमें सभी आयू वर्ग के लोग थे। युवा पीढ़ी ने अपना प्रतनिधित्व किया और मध्य आयू वर्ग के स्थापित कलाकार भी वहाँ थे और वरिष्ठ चित्रकारों का सक्रिय मार्गदर्शन भी इस शिविर को प्राप्त रहा।
इस शिविर के कई पहलू हैं। सब से पहले तो इस बहाने घर, गली, मुहल्ले, शहर और प्रांत-प्रदेश से लेकर देश और विश्व तक कलात्मक निगाह का विस्तार देखकर यह महसूस किया गया कि हैदराबाद चित्रकला के क्षेत्र में किसी भी अन्य शहर से उन्नीस नहीं है। ऐसी प्रतिभाओं की कमी नहीं है, जिनके पास अपनी बात को अलग ढंग से रखने का उत्तम दर्जे का हुनर है।
मेट्रोपोलिस सम्मेलन के दौरान जब तेलंगाना के इन कलाकारों के चित्रसंग्रहण  का प्रदर्शन हुआ तो डॉ..पी.जे. अब्दुल कलाम ने इसकी प्रशंसा कुछ इस तरह की कि कई चित्रों का देर तक अवलोकन करते रहे। इन चित्रों की प्रदर्शनियाँ शहर में कई स्थानों पर लगीं। म्यूज़ आर्ट गैलरी, जेआरसी कन्वेन्शन सेंटर के अलावा इन चित्रों को दिल्ली भी लेजाया गया। म्यूज़ आर्ट गैलरी में कुछ चित्रों को देखने का इत्तेफ़ाक हुआ। संजय अष्टपुत्रे के आकर्षण रंग संयोजन में आकार लेने वाली दुर्गा, ग्रामीण परिवेश को अपनी खास अदा के साथ प्रस्तुत करने वाले थोटा वैकुंठम  के चित्रों में बसा लोक कला संस्कृति का रंग, होंट, नाक, बिंदिया, केश सज्जा और बहुत कुछ जिसमें अपने आस, पास के ग्रामीण जीवन को महसूस किया जा सकता है। पी. गौरीशंकर की मूर्त एवं अमूर्त के बीच फैली रंगों की दुनिया अंजनी रेड्डी के चित्रों में बतियाती महिलाएँ, फव्वाद तमकनत की मीनारें, मकान और दीवारें, श्रीनिवास नायक द्वारा प्रस्तुत आदिवासी परिवेश, भुट्टे भुनती हुई महिलाएँ, उनके खास परिधान, उंगलियों में चमकती अंगूठियाँ, गोबर और मिट्टी से लिपी-पुती झोंपडियों के बाहर बाहरे पड़ा सामान, बैल बंडियों के चाक और बहुत कुछ जो दर्शक को देर तक अवलोकन का आमंत्रण देता है।
हैदराबाद और हैदराबाद के आस-पास फैले तेलंगाना में सांसे ले रही कला संस्कृति को जीवित करने के साथ-साथ चित्रकारों ने यह बताने का प्रयास भी किया है वे राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों से भी अनभिज्ञ नहीं है। इरानी चाय से लेकर उँची उडान के सपने बुनने और मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के अपने अलग अंदाज़ से ओतप्रोत कलाकृतियाँ अब तेलंगाना के रंगकोष का हिस्सा बन गये हैं।
चिप्पा सुधाकर, रोहिनी रेडडी्, अक्षय आनंद, के. श्रीनिवासा चारी, कवि नरसिम्हलू, एम.एस, दातार, अ़कीद, साजिद बिन अमर, मासूराम रविकांत, कप्परी किशन,  रमकांत, बोलकम नागेश, गौरी वेमुला, लक्ष्मा गौड़, बी. नरसिंग राव, बलाभक्त राजू, अफ़जा तमकनत सहित लगभग सभी चित्रकारों ने अपना-अपना रंग इस कोष में भरा है। विशेषकर लक्ष्मण एले का एक बड़ा चित्र शहरी और ग्रामीण जीवन को संयुक्त रूप से पेश करते हुए बहुत ख़ूब रहा। किसान, चरवाहे, बकरियाँ, मुर्गियाँ, खेत खलिहान, मंदिर मस्जिद, देवी, देवता, शहर के गली चौराहे, रिक्शा, कुम्हार  सहित कई सारे तत्व एक जगह उन्होंने एक चित्र में सम्मिलित कर दिये हैं।  इस शिविर के बाद एक ख़ास परिवर्तन शहर में देखा गया कि सरकारी दप्तरों के बाबुओं एवं मंत्रियों के कक्ष के साथ साथ विभिन्न महत्वपूर्ण स्थलों की दीवारें इन चित्रों के नमूने से सज उठी हैं।


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