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Showing posts from July, 2018

दर्द के बिना कला में नहीं आती गहराई- अनुराधा काबरा

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सप्ताह का साक्षात्कार अनुराधा काबरा सिंगापुर में रहती हैं और पिछले तीन-चार वर्षो में चित्रकला के क्षेत्र में सिंगापुर के भारतीय चित्रकारों में ख्याति अर्जित कर चुकी हैं। वह अपने दौर के ख्यातिप्राप्त संगीतकार बृजभूषण काबरा की पुत्री हैं। 24 सितंबर 1963 को जोधपुर में उनका जन्म हुआ और अहमदाबाद में पली बढ़ीं। कभी अहमदाबाद में फर्नीचर के व्यापार में सक्रिय थीं , सिंगापुर में भी वह कुछ दिन तक व्यापारिक क्षेत्र में जुटी रहीं , लेकिन बाद में वह रंगों का आमंत्रण अस्वीकार नहीं कर सकीं और अपने आप को पूरी तरह से रंगों और चित्रों की दुनिया को समर्पित कर दिया। उनके रंगों की दुनिया के भीतर भी एक दुनिया है , वह है पशु पक्षियों की। संस्कृतियों और परंपराओं के बीच समन्वय एवं एकात्मता की तलाश भी उनके चित्रों के विषय रहे हैं। हैदराबाद की कलाकृति आर्ट गैलरी के आमंत्रण पर वह हैदराबाद आयीं और यहाँ लोगों ने उनकी पेंटिंग को खूब सराहा। हालाँकि उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से चित्रकला की शिक्षा या प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है , लेकिन रंगों से उन्हें बहुत प्यार है। सप्ताह के साक्षात्कार के लिए उनसे हुई बात

अभी कहें तो किसी को न एतेबार आवे

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मन तरंग   ठीक है , वहाँ पानी कम ही रहा होगा , जहाँ कश्ती डूबी थी। जी ! बिल्कुल , यह पानी कुएँ , नदी , तालाब या समुद्र का नहीं , बल्कि आँख का पानी था , शर्म का , ज़मीर का , ईमानदारी का , भरोसे का और न जाने कितनी सारी अच्छाइयों और अच्छे मूल्यों का पानी वहाँ सूख गया था , और ऐसे में कश्ती को डूबने की ज़रूरत ही नहीं थी , वह तो बिन पानी के मछली की तरह तड़प कर रह गयी होगी। दर असल इन दिनों जान पहचान करके ठगने , लूटने और धोखा देने की घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि हुई है , बल्कि यह कह सकते हैं कि सोशल मिडिया ने रिश्ते बनाना जितना आसान कर दिया है , धोखोधड़ी करना भी उतना ही आसान कर दिया है। यह आसान भी है , अजनबी बन कर चोरी करने या ज़बर्दस्ती करने में जल्दी पकड़े जाने का डर होता है , जबकि अपना बनकर की गयी ठगी का पता देर से चलता है और कई बार इसमें बचने-बचाने के रास्ते भी निकल आते हैं। बात उन खास रिश्तों की है , जिसे आदमी दोस्ती , प्रेम , मुहब्बत हमदर्दी , स्नेह और न जाने कितने ही नाम देता है।  पिछली सदी के अंतिम दशक तक भी साहित्यिक पत्रिकाओं में एक परंपरा चलती रही। कुछ पत्रिकाओं के

जेब खोलकर खर्च, दिल खोलकर खुशी नहीं

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दोपहर के खाने पर ऑफिस से निकल ही रहा था कि एक मित्र का फोन आया। एक दिन पहले ही उनके पुत्र का वलीमा(प्रिति भोज) था। फोन पर उनकी बातों से लग रहा था कि वे कुछ चिंतित हैं। कहने लगे , रात दावत में आप आये तो थे , लेकिन मैं आपका ख़याल नहीं रख सका , आपने खाना खा लिया था या नहीं ? उनकी चिंता लाज़मी थी , बहुत बड़ी दावत थी , बारह सौ लोगों को उन्होंने आमंत्रित किया था और लगता था कि पंद्रह सौ के आसपास आये हों। अकसर पिता जो सोचते हैं , उन्होंने भी सोचा होगा कि दावत शानदार हो और लोग उसे लंबे अरसे तक याद रखें। जीवन में ऐसे मौक़े बार-बार थोड़े आते हैं ! उसके लिए उन्होंने जो कुछ हो सकता था किया , लेकिन दिल की हसरत निकल जाने के बावजूद इस बात की चिंता रही कि इतनी बड़ी भीड़ में वे अपनों की ओर उतना ध्यान नहीं दे सके , जितना दिया जाना चाहिए था। बस ज्यादा तर समय स्टेज पर मिलने मिलाने में ही गुज़र गया।  मिलाप मज़ा की क्लिप किसी आदमी के अपने यानी बहुत क़रीब , दिल के क़रीब रहने वालों की संख्या आख़िर कितनी होती है , चाहे वह निर्माण क्षेत्र में काम करने वाला मज़दूर हो या फिर कोई बड़ा अफस