जेब खोलकर खर्च, दिल खोलकर खुशी नहीं


दोपहर के खाने पर ऑफिस से निकल ही रहा था कि एक मित्र का फोन आया। एक दिन पहले ही उनके पुत्र का वलीमा(प्रिति भोज) था। फोन पर उनकी बातों से लग रहा था कि वे कुछ चिंतित हैं। कहने लगे, रात दावत में आप आये तो थे, लेकिन मैं आपका ख़याल नहीं रख सका, आपने खाना खा लिया था या नहीं?

उनकी चिंता लाज़मी थी, बहुत बड़ी दावत थी, बारह सौ लोगों को उन्होंने आमंत्रित किया था और लगता था कि पंद्रह सौ के आसपास आये हों। अकसर पिता जो सोचते हैं, उन्होंने भी सोचा होगा कि दावत शानदार हो और लोग उसे लंबे अरसे तक याद रखें। जीवन में ऐसे मौक़े बार-बार थोड़े आते हैं! उसके लिए उन्होंने जो कुछ हो सकता था किया, लेकिन दिल की हसरत निकल जाने के बावजूद इस बात की चिंता रही कि इतनी बड़ी भीड़ में वे अपनों की ओर उतना ध्यान नहीं दे सके, जितना दिया जाना चाहिए था। बस ज्यादा तर समय स्टेज पर मिलने मिलाने में ही गुज़र गया। 
मिलाप मज़ा की क्लिप

किसी आदमी के अपने यानी बहुत क़रीब, दिल के क़रीब रहने वालों की संख्या आख़िर कितनी होती है, चाहे वह निर्माण क्षेत्र में काम करने वाला मज़दूर हो या फिर कोई बड़ा अफसर या व्यापारी, हो सकता है कि उसका व्यवसायिक सर्कल उसके अपने व्यवहार के अनुसार, छोटा बड़ा हो, फिरभी अपने कहे जाने वाले ख़ास लोगों की संख्या पाँच-पचास या सौ-दो सौ से ज्यादा नहीं होती, लेकिन सामाजिक शान शौकत के चक्कर में हम भारी भीड़ तो जुटा लेते हैं, पर अपने प्यारों का ख़याल नहीं रख पाते। समाज और सामाजिक दुनिया का मोह बड़ा अजीब है, छूटता ही नहीं। हम अकसर कहते सुनते हैं कि लोगों को दिखाने के लिए तो करना ही पड़ता है, लेकिन उससे खुश नहीं पाते।

यह मध्यम वर्ग की बड़ी समस्याओं में से एक है, जहाँ दिल से ज्यादा दिखावे को दखल है। हालाँकि एलिट कहे जाने वाले समुदाय ने छोटी दावतों के रूप में इसका हल निकाल लिया है, लेकिन आज भी बहुत सारे लोग जेब खोलकर खर्च करने के बावजूद दिल खोलकर खुश नहीं हो पा रहे हैं। कुछ तो बदलना चाहिए। एक सुविचार याद आ रहा है,....सब से बेहतरीन एहसास वो होता है, जब आपको ख़याल आये कि आप उन लोगों और उन चीज़ों के बग़ैर भी खुश हैं, जिनके बारे में आप पहले सोचा करते थे कि उनके बग़ैर जीना मुश्किल है।

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