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Showing posts from 2017

दूसरों के लिए काम करना हो तो अपने को मिटाना पड़ता है- डॉ. सुनैना सिंह

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प्रो. सुनैना सिंह इन दिनों भारत के अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थान नालंदा विश्वविद्यालय की कुलपति हैं। विश्वविद्यालय की भावी योजनाओं के महत्व को देखते हुए उन्हें इस पद के लिए चुना है। वह इससे पूर्व अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्वविदद्यालय(इफ्लू) की कुलपति रही हैं। शास्त्री इंडो-कैनडियन इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष पद का निर्वाह भी उन्होंने किया है। पुराने शहर के शाह अली बंडा में पली बढ़ी और हिंदी माध्यम स्कूल मुफीदुल अनाम की छात्रा रहीं सुनैना सिंह ने सातवीं कक्षा तक केवल हिंदी में अपनी शिक्षा को जारी रखा था। आठवीं कक्षा के बाद उन्हें अंग्रेज़ी माध्यम में दाखिल करव या गया। वरंगल के कान्वेंट स्कूल में हाईस्कूल की शिक्षा के बाद उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा साहित्य में स्नातक तथा स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की और उस्मानिया विश्वविद्यालय में ही अंग्रेज़ी की अध्यापक बन गयीं। इंडो कैनडियन इंस्टीट्यूट जाने से पहले वह विभाग की चेयरपर्सन थीं। दक्षिण एशिया में महत्वपूर्ण महिला कुलपतियों में उनका उल्लेख होता है , बल्कि दक्षिण भारत से वह पहली ऐसी महिला हैं , जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविविद्यालय

जब चोर और कोतवाल मिलकर डांटने लगें

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देखना मेरी ऐनक से कभी-कभी मुहावरे और कहावतें भी पूरा अर्थ नहीं देते ,  बल्कि समय के साथ शब्दों के रूप ,  रंग और स्वभाव में बदलाव आने लगता है ,  ज़रूरत के अनुसार नयी शब्दावली जन्म लेती है। एक संस्था के साइनबोर्ड्स में कुछ ग़लतियाँ थीं। बोर्ड बनाने वाले अपना काम करके जा चुके थे। और संस्था ने इसमें ग़लतियों की पहचान के लिए मुझे याद किया। वर्तनी की बहुत सारी अशुद्धियों पर बातचीत के दौरान संस्था के अधिकारी ने कहा कि अब इन ग़लतियों की ज़िम्मेदारी आपकी है। हालाँकि उन्होंने यह मज़ाक़ में कहा ,  लेकिन ज़हन में अचानक जो ख़याल आया ,  वो यही था कि चोर और कोतवाल मिलकर डांटने लगे हैं।   कोतवाल का चोर को डांटना स्वभाविक है ,  लेकिन हालात बलदलते हैं तो चोर कोतलवाल को डांटने लगता है और जब दोनों एक हो जाते हैं तो तीसरा उनकी डांट का शिकार बनता है। ज़रूरी नहीं कि दोनों की उपस्थिति उपस्थित हों ही ,  ऐसा भी हो सकता है कि दोनों अलग-अलग उपस्थित होकर भी डांटने लगें। हिंदुस्तानी फिल्मों की हर दूसरी कहानी में दरोग़ाजी को खलनायक के साथ होकर पीड़ित को डांटते हुए देखा जा सकता है। यह कहानियाँ तो प्रतीक

... जब उनके लिए इधर की खिड़कियाँ खुलती हैं

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दुनिया चाहे गोल हो, लंबी चौड़ी या ऊंची नीची। लोग गोरे, सांवले, काले चाहे जिस रंग के हों। कुछ लोगों को मिलकर लगता है कि बिल्कुल अपने जैसे हैं। अपनी ही तरह सोचते हैं। दुनिया और दुनिया वालों से मुहब्बत करते हैं। नफरत के लिए उनके पास वक़्त नहीं है। पिछले दिनों ग्लोबल एंत्रप्रेन्युअर सम्मीट के दौरान इसी तरह के कुछ लोगों से मुलाक़ात हुई। खासकर हेलेना, परवरिश ओरेखेल, मीना शीराज़ी, अफ़साना रहीमी और सोना महमूदी से काफी यादगार मुलाक़ातें रहीं। हेलेना डब्लू व्हाइट अमेरिकी सरकार के लंदन इंटरनेशनल मीडिया हब की दक्षिण एशियाई अधिकारिक प्रवक्ता हैं। हैदराबाद में सेंट फ्रांसिस कॉलेज के अमेरिकी कॉर्नर में मीडिया स्पेशलिस्ट अनवर हसन के साथ उनसे मुलाकात हुई। बडी दिलचस्प बातचीत रही। भारत, भरतीयों और भारतीय भाषाओं के बारे में उनका नज़रिया बड़ा अच्छा लगा। कहने लगीं..भारत में रिश्तों का महत्व पश्चिम की तुलना में काफी अधिक है। यहाँ की परिवार व्यवस्था , परंपराएँ और संस्कृति की संपन्नता की ओर पश्चिम के लोग आकृष्ठ हो रहे हैं। हेलेना काफी अरसे तक भारत में रही हैं और उन्होंने विश्वविद्यालयीन शिक्षा क

हैदराबाद मेट्रो ... सत्रह साल पहले खुली आँखों से देखा हुआ एक ख़्वाब

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हैदराबाद मेट्रो रेल के ट्रायल रन में कुछ देर का सफर करते हुए यादों का सिलसिला अचानक सोलह-सत्रह साल पहले की एक सुबह तक पहुँच गया और कई सारी यादें ताज़ा होती गयीं। आज हैदराबाद ही नहीं बल्कि दुनिया भर के लोग हैदराबाद मेट्रो के बारे में जानते हैं और इस ब्लॉग को लिखने के चौथे दिन यानी 29 नवंबर की सुबह हज़ारों लोग इसमें सफर करने लगेंगे, लेकिन जिस दिन इसका ख़्वाब एक शासक की आँखों में पहली बार उभर आया था, वहाँ किस्मत ही कहिये कि मैं एक युवा पत्रकार के रूप में मौजूद था और मेरे साथ थे दि हिंदू के पत्रकार रविकांत रेड्डी और वे शासक थे चंद्रबाबू नायुडू। हैदराबाद मेट्रो नागोल स्टेशन पर बात साल 2001 के एक सुबह की है। तत्कालीन आंध्र-प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायुडू अपनी खास बस में कुछ पत्रकारों को साथ लेकर निकले थे। मैं और रविकांत रेड्डी भी उनके साथ थे। आज के मंत्री तलसानी श्रीनिवास यादव उस समय बाबू की कैबिनेट में टूरिज़्म मिनिस्टर हुआ करते थे और कृष्णा यादव लेबर मिनिस्टर। ये दोनों मंत्री भी उस दिन साथ में थे। उन दिनों अभी इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरे इतने आम नहीं हुए थे। फोटोग्राफर

... तो आवाज़ें गुम हो जाती हैं।

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यह पुरानी नहीं , नई पीढ़ी भी कहती है कि अब पहले जैसे फिल्मी गीत नहीं बनते। हालाँकि आज के युवा इन नये शोर में नाच गाकर अपने आपको एंजॉय हुआ महसूस करते हैं , लेकिन उस मनोरंजन से मन के रंजन की आत्मा ग़ायब है। किसी पार्टी से बच्चे जब घर आते हैं तो अपने आपको थके हारे महसूस करते हैं , इसलिए भी कि वहाँ उन्होंने जिन धुनों पर उछलकूद की थी , उसमें कुछ पल का उत्साह तो था , लेकिन उस उत्साह में मन को रंगने की क्षमता नहीं थी , चित्त को प्रसन्न करने वाला भाव नहीं था , जो मनोरंजन का मूल उद्देश्य होता है। वहाँ तो शोर था और शोर जब बढ़ता है तो आवाज़ें गुम हो जाती हैं। प्रतीकात्मक-लखनऊ के इमामबाड़े का कूँआ प्रकृति जितनी क़रीब रहती हैं , आवाज़ें उतनी ही स्पष्ट होती हैं , बल्कि कई आवाज़ें एक जैसी लगने के बावजूद उनमें भिन्नता को महसूस किया जा सकता है। हैदराबाद में एक ग़ज़ल गायक हैं ख़ालिद इक़बाल , उनका ग़ज़ल सुनाने का अंदाज़ बिल्कुल अलग है , बल्कि वह क़व्वाली और ग़ज़ल की शैली में हल्का सा मुशायरा भी ले आते हैं। अगर वो कोई ग़ज़ल सुनाते हैं तो समझिए कि वह 20 मिनट या आधे घंटे तक भी चल सकती है। ग़ज़ल म