जब चोर और कोतवाल मिलकर डांटने लगें

देखना मेरी ऐनक से

कभी-कभी मुहावरे और कहावतें भी पूरा अर्थ नहीं देतेबल्कि समय के साथ शब्दों के रूपरंग और स्वभाव में बदलाव आने लगता हैज़रूरत के अनुसार नयी शब्दावली जन्म लेती है।
एक संस्था के साइनबोर्ड्स में कुछ ग़लतियाँ थीं। बोर्ड बनाने वाले अपना काम करके जा चुके थे। और संस्था ने इसमें ग़लतियों की पहचान के लिए मुझे याद किया। वर्तनी की बहुत सारी अशुद्धियों पर बातचीत के दौरान संस्था के अधिकारी ने कहा कि अब इन ग़लतियों की ज़िम्मेदारी आपकी है। हालाँकि उन्होंने यह मज़ाक़ में कहालेकिन ज़हन में अचानक जो ख़याल आयावो यही था कि चोर और कोतवाल मिलकर डांटने लगे हैं।  


कोतवाल का चोर को डांटना स्वभाविक हैलेकिन हालात बलदलते हैं तो चोर कोतलवाल को डांटने लगता है और जब दोनों एक हो जाते हैं तो तीसरा उनकी डांट का शिकार बनता है। ज़रूरी नहीं कि दोनों की उपस्थिति उपस्थित हों हीऐसा भी हो सकता है कि दोनों अलग-अलग उपस्थित होकर भी डांटने लगें। हिंदुस्तानी फिल्मों की हर दूसरी कहानी में दरोग़ाजी को खलनायक के साथ होकर पीड़ित को डांटते हुए देखा जा सकता है। यह कहानियाँ तो प्रतीक भर हैंलेकिन इन दिनों देश की हालत भी कुछ ऐसी ही लगती है।

पिछले बीस-तीस बरसों में देश में ऐसी कई घटनाएँ घटी हैंजब वित्तीय संस्थाओं ने जनता का खून पसीने से कमाया हुआ धन धडल्ले से लूटा। हैदराबाद में ही अलफलाहचारमीनार बैंक और न जाने कितनी संस्थाओं ने लोगों के जमा-पूंजी पर ऐश ओ आराम किया और चलते बने। जब लुटने वालों ने कोतलवाल का दरवाज़ा खट खटाया तो अर्जी लिखी गयी अदालतों में सुनवाई भी हुई। लूटी गयी पूंजी वापिस मिली या नहीं यह अलग बात हैलेकिन लुटेरों पर नकेल कसने का काम तो हुआ। अब लोग एक नये कानून के बारे में चर्चाओं से चिंतित हैं। अब कोतवाल खुद ड़रा रहे हैं कि आपकी जेब में चोरी हो सकती है और उसके लिए हमारे पास न आएँ, बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि हम चोर के साथ मिलकर चोरी करें तब भी आपको खामोश रहना पड़े।

यूँ तो कई बार हम एक ज़िम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाते हुए सोचते हैं कि न्याय के लिए अपनी हिस्सेदारी निभाई जाए और फिर इस कर्तव्य परायणता के बीच कोतवाल और चोर के बीच कुछ ऐसे फंस जाते हैं कि हमारा दिमाग़ दिल की उस पहल पर हमें बेवक़ूफी के ताने देने लगता है। यह ताना इसलिए भी सह लिया जाता है क्योंकि उसमें कुछ हद तक हमारी मर्ज़ी शामिल थी, लेकिन अगर हमारी मर्ज़ी के बिना ही हमें उसमें घसीटा जाए, भला यह किसको अच्छा लगेगा।

हमारे एक मित्र इस मामले में काफी गंभीर हैं। वे सोचते हैं कि चोरों और कोतवालों की यह भागीदारी अधिक दिन नहीं चलेगी। वे कहते हैं कि अगर ऐसा ही चलता रहेगा तो हालात सिविल वार को आमंत्रित करेंगे। अब पता नहीं क्या होगा, लड़ाई होगी, झगड़ा होगा, युद्ध होगा, जंग होगी,....हम भाषा के छात्र होने के कारण इस होगा,,,होगी में ही परेशान रहते हैं, तो भला चोरों और कोतलवालों की साज़िशों को कैसे पहचानेंगे। इतना ज़रूर है कि चोर चोरी करके ऐश कर रहे हैं और कोतवाल जी हुज़ूरी करके। बेचारा आम आदमी पहले भी डांट का शिकार होता था और आज भी उसकी किस्मत में यही है, खूब मेहनत करके जब वह थोड़ा बहुत खुश होने तगता है, तृप्ति उसके नज़दीक पहुँचने का प्रयास करती हैं तो डांटने और डंटवाने का सिलसिला चल निकलता है। लगता है कि यह चोर और कोतवाल की जोड़ी का कुछ किया जाना चाहिए। पता नहीं क्या...?


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