खोये आत्म-सम्मान को पाने का संघर्ष






            हमेशा रास्ते साफ-सुथरे व फूलों से भरे नहीं होते। कभी किसी के हिस्से में काँटों से भरी राह भी आती है और कभी किसी को खुरदुरे और पत्थरों से भरे रास्ते भी तय करने पड़ते हैं। शायद शायर ने इसीलिए कहा है -
 इन्हीं पत्थरों पर चल कर अगर आ सको तो आओ
 मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है...
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम अपनी किस्मत के काँटों को किसी और के रास्ते में बोते चले जाएँ। डॉ. सुनीता कफढष्णन यही कुछ सोच कर लोगों के रास्तों के काँटे निकालने में लग गयीं। हालाँकि इस यातना-यात्रा में दूसरों के हिस्सों के काँटों की चुभन भी उन्हें झेलनी पड़ी। वह लगभग दो दशक से हैदराबाद में कार्यरत हैं। उनका परिवार केरल के पालक्कड़ से संबंध रखता है। उनका जन्म बेंगलुरु में हुआ और लालन-पालन हैदराबाद, बेंगलुरु तथा भूटान में। पिता भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग में कर्मी थे। एक सामान्य-सा निम्न मध्यवर्गीय परिवार, जहाँ छोटे-मोटे कार्यों के लिए तो बच्चों की सराहना हो सकती है, लेकिन परंपराओं से उलट कोई बड़ा साहसिक कार्य करने पर प्रशंसा की बजाय बेगानगी ही मिलती है। विपत्तियों में अपने, कब मुँह मोड़ लेते हैं, पता ही नहीं चलता। ऐसे घर में मानव तस्करी जैसे गंभीर अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे पर लड़ाई का परचम उठाने वाली बालिका का जन्म असामान्य-सी घटना थी। मीर ने शायद ऐसी श़ख्सियतों के लिए ही यह शेर कहा था-
मत सहल हमें जानो, फिरता है फलक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इन्साँ निकलते हैं
सुनीता कफढष्णन के व्यक्तित्व में बहुत सारी खूबियाँ हैं। सबसे बड़ी तो यह है कि वह संघर्ष की हिम्मत के माद्दे के साथ पैदा हुईं। 15 हज़ार से अधिक लड़कियों को उस ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से मुक्ति दिलाने का काम किया, जो किसी आग के सफ़र से कम नहीं थी। आइए, उनकी कहानी उन्हीं की ज़ुबानी जानने का प्रयास करते हैं-

मैं जन्म से विकलांग थी। एक पैर ठीक न होने के कारण चलने की मनाही थी और एक जगह बैठना मेरी प्रकफढति में शामिल नहीं था, आज भी नहीं है। किस्मत भले पर थी, पैदा होने के तीसरे दिन ही दादी ने देख लिया था कि लड़की का पैर टेढ़ा है और उसी दिन से उपचार शुरू हो गया। ठीक होने में कई साल लगे। इसके लिए मुझे कई सर्जरियाँ सहनी पड़ीं।
अम्बरपेट में गुज़रा बचपन
पिता श्री राजू कफढष्णन की पोस्टिंग जब हैदराबाद में हुई, तो मैं मुश्किल से दो साल की थी। यहाँ लगभग चार साल गुज़ारे। पिता ने एक तख़्ती दिलायी। उस पर मैं बहुत कुछ लिखती थी। बड़ी बहन मुझसे दो साल बड़ी थी और छोटी बहन दो साल छोटी। भाई का जन्म बाद में हुआ। घर के पास ही एक स्कूल में मेरा दाखिला करवाया गया। स्कूल में जो पढ़ती, अपनी छोटी बहन को उसी तख़्ती पर लिख कर पढ़ाना मेरी ज़िम्मेदारी थी। बच्चों को पढ़ाने का श़ौक यहीं से शुरू हुआ। छोटी बहन के साथ-साथ मैं अपने हमउम्र बच्चों को भी पढ़ाने लगी।

12 साल की उम्र में शुरू किया शिक्षा केन्द्र
मेरा स्वास्थ्य सामान्य बच्चों जैसा नहीं था। खेलना, दौड़ना, ज़िद करना, रोना, मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था। मेरा मूड देखकर ही परिवारवाले बिन मांगे मेरी पसंद की चीजें हाज़िर कर देते थे। शायद यही वजह है कि बड़ीöबड़ी बातें करना, हर किसी को सुझाव देना मेरी आदत में शुमार हो गया। 12 वर्ष की आयु में एक झुग्गी-बस्ती के लिए काम करना शुरू किया। विशाखापट्टनम में रहने के दौरान स्कूल से घर आते हुए, मैंने देखा कि मुहल्ले के बच्चे खेल रहे हैं। वे स्कूल नहीं जाते थे। समीप के ही एक कमरे में उन्हें पढ़ाना शुरू किया। इसकी सूचना मेरे स्कूल तक पहुँच गयी और फिर मेरे अपने स्कूल के प्राचार्य ने सबके सामने इसकी चर्चा कर मुझे पुरुस्कृत किया।
...फिर हिन्दी सीखी
 पिता का स्थानांतरण जब भूटान में हुआ तो वहाँ स्कूल में प्रवेश के लिए हिन्दी की परीक्षा लिखनी पड़ी, जिसमें शून्य रही। पिता को यह जानकर बड़ा दुःख हुआ कि जो विषय उनका पसंदीदा है, बेटी का उसी में प्रदर्शन अच्छा नहीं है। मैंने उसी दिन तय कर लिया कि मैं हिन्दी सीखूँगी और फिर स्कूल से कॉलेज स्तर तक हिन्दी की किसी भी साहित्यिक एवं सांस्कफढतिक गतिविधि से मैंने अपने आपको अलग नहीं रखा। कई हिन्दी नाटकों में भी भाग लिया।
माँ शिक्षिका थीं। लाज़मी बात है कि उनके गुण बेटी में भी आये। मुझे याद है, मैं अपनी उम्र के बच्चों के साथ पढ़ती तो थी, लेकिन मुझे लगता था कि मैं अलग हूँ। मुझे लगता था कि घर या बाहर, मैं जो कुछ भी बोलती हूँ, वही सही है।

पलभर में सब कुछ बदल गया
एक गाँव में दलित लड़कियों के लिए काम करने के दौरान अचानक वह घटना घटी, जिसने मेरा जीवन ही बदल कर रख दिया। रात के घुप्प अँधेरे में मुझे घिनौने अत्याचार का शिकार बनाया गया। मैं उस घटना को याद करना नहीं चाहती, लेकिन उसी एक घटना के कारण मैंने अपने जीवन का लक्ष्य पाया।  दलित लड़कियों में रूढ़ीवादी विचारों को त्यागने के प्रति जागरूकता लाने का मेरा प्रयास समाज के ठेकेदारों को नहीं भाया और उन्होंने मुझे ही अपना शिकार बनाया। स्थानीय पंचायत ने आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बात तो दूर, उल्टे मुझे ही इसके लिए ज़िम्मेदार क़रार दिया। इस घटना के बाद मेरे निकटतम लोगों व रिश्तेदारों को वे सब काम अच्छे नहीं लगने लगे, जिनके कारण वो मेरी सराहना करते नहीं थकते थे। माता-पिता ने चुप्पी साध ली। वह जीवन की सबसे बड़ी घटना थी। मैंने अत्याचार सहा, लेकिन उससे जीवन में निराशा को पनपने नहीं दिया। उस घटना का प्रभाव कई वर्षों तक मेरे दिलो-दिमाग़ पर बना रहा। आज उस घटना को 25 साल गुज़र गये हैं। उस घटना के बाद लोगों ने मेरा रवैया देखा तो उनकी हमदर्दी भी मेरे साथ नहीं रही, क्योंकि वे मेरे भीतर पीड़िता होने के गुण नहीं देख पा रहे थे। मैं ऐसा दर्शाने के लिए बिल्कुल तैयार भी नहीं थी।

दिन और रात का फर्क
15 साल की उम्र तक कई सारी घटनाओं से गुज़र चुकी थी। एक विकलांग लड़की, दलितों के लिए काम करना, लैंगिक रूप से प्रताड़ना की शिकार, नज़दीकी लोगों की नज़रों का बदलना... इन सारी बातों से मुझको समाज की स्थिति का अंदाज़ा हो गया था। मैंने उन्हीं परिस्थितियों में पीड़ितों के लिए काम करने की  प्रेरणा ली। लगता था, मेरे भीतर एक आग जल रही है। उन लोगों की स्थिति मुझसे छुपी नहीं थी, जिनके साथ गैंगरेप होता है, जो प्रताड़ित होती हैं, जो लैंगिक रूप से ज्यादतियों का शिकार होती हैं, उनके बारे में भी मैं निरंतर सोचती रही। बड़ा मुश्किल वक़्त था मेरे लिए। मैं दिन के उजाले में सबको यह एहसास दिलाती थी कि मैं हारी नहीं हूँ, मैं ठीक हूँ, मुझे हमदर्दी नहीं चाहिए, लेकिन रात की तन्हाई में तो मैं औरत थी। नींद नहीं आती थी। उस समय मेरे लिए दिन और रात में काफी फर्क था। मेरे लिए उन 9 बरसों का समय लंबी खामोशी का दौर था।

एक ही जोड़े में जेल में गुज़ारे दो महीने
लंबी खामोशी जब टूटी तो ज़िन्दगी ने करवट बदली। जो चिन्गारी दिल और दिमाग़ के किसी कोने में दबी थी, वह शोला बनने के लिए तैयार थी। मैंने महिला आंदोलनों में भाग लेना शुरू किया। बेंगलुरु में आयोजित मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के विरुद्ध बना माहौल इसके लिए रास्ता बनाने वाला साबित हुआ। ये वही दौर था, जब मैं सोचने लगी थी कि वेश्यावफत्ति क्यों, क्या स्री केवल भोग की वस्तु है। मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के दौरान बेंगलुरु को एक मंडी में परिवर्तित किया जा रहा था। कई लड़कियाँ वहाँ खेपों में लायी जा रही थीं। ऊपर से सौंदर्य प्रतियोगिता का ढोंग था और दूसरी ओर दलाल चाँदी काट रहे थे। उन दिनों वेश्यावफत्ति के खिलाफ मैंने कई मंचों पर अपनी बात रखी थी। कुछ संस्थाओं ने मुझे अपने साथ काम करने के लिए प्रेरित किया और मैं तैयार हो गयी। आंदोलन के दौरान अचानक हमें गिरप्तार कर लिया गया। बाद में मुझे अंदाज़ा हुआ कि यह सब साजिश का हिस्सा था, ताकि मैं आयोजन के दौरान जेल में रखी जाऊँ। पिता को पुलिस ने यह कह कर डरा दिया था कि मेरे सामान में ड्रग निकला है। सीधी-सी बात यह थी कि आंदोलन मुख्यमंत्री के खिलाफ था और मुझे जेल भेज दिया गया। दो महीने तक जेल में रहना पड़ा। यहाँ मैंने बहुत कुछ सीखा। `िफजीकल आइसोलेशन' के बारे में स्पष्टता आयी। एक ही ड्रेस पर मैंने साठ दिन गुज़ार दिये। 400 महिलाएँ जेल में कैद थीं। मेरे लिए जेल के दिन किसी खूबसूरत तजुर्बे की तरह थे। मुझे ऐसा महसूस होता था कि समाज ने मुझे अलग रखा है। मुझे न अपनाया गया और न ही ठुकराया गया। मैं सोचती हूँ, आज मेरे संघर्ष के दौरान जो प्रश्न खड़े होते हैं, उसके उत्तर जेल के उस जीवन में मिल गये थे।

...फिर हैदराबाद
जब जेल से निकली तो पुलिस ने हालात कुछ ऐसे बनाये कि मैं बेंगलुरु छोड़ने के लिए मजबूर हो जाऊँ। मैंने हैदराबाद आने का मन बना लिया। यहाँ मेरी एक सहेली रहती थी। चादरघाट के पास मूसानगर, कमल नगर में झुग्गी-बस्ती के लोगों के लिए काम कर रहे ब्रदर वर्गीस के साथ मैंने काम करना शुरू किया।
कई सप्ताह एक छोटे-से शेड को अपना आशियाना बनाया। जैसे-जैसे लोगों से जान-पहचान बढ़ी, समझ में आया कि भगवान ने मुझे यहाँ क्यों भेजा! मैं अपने पास रेडियो रखती थी। उसकी आवाज़ सुनते ही आस-पास के लोग कभी चाय या नाश्ता ले आ जाते थे। इसी दौरान मैंने स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। यहाँ आने के बाद सकारात्मकता और बढ़ गयी।
महबूब की मेहंदी का उजड़ना
1996 की बात है। पुराने शहर का रेड लाइट एरिया समझी जाने वाली महबूब की मेहंदी उजड़ गयी थी। उस इलाके से वेश्याओं को हटाने का निर्णय अचानक लिया गया था। सरकार के पास वेश्यावफत्ति में संलग्न औरतों को वहाँ से हटाने के अलावा कोई और योजना नहीं थी। उनके पुनर्वास के बारे में कुछ नहीं सोचा गया था। उन्हें गिरप्तार करके जेल में रखा गया था। 400 से 500 औरतें थीं। उन्हें पता नहीं था कि उनका क्या होगा। उनमें से लगभग 20 औरतों ने आत्महत्या कर ली थी। कई दिन तक उनके शव लेने के लिए भी कोई नहीं आया। किसी को उनका अंतिम-संस्कार करने की भी दिलचस्पी नहीं थी। खैर, कुछ लोग सामने आये और उनका अंतिम-संस्कार किया गया। मुर्दाघर के पास खातून नामक महिला से मेरी मुल़ाकात हुई, जो मुझे पहले से जानती थी। मैंने उससे पूछा कि क्या वो लोग अपने पैरों पर खड़े होकर कुछ बनना चाहेंगी। वह और अन्य दूसरीं भी तत्काल तैयार हो गयीं। बॉइज़ टाउन के ब्रदर जोज़ वेट्टिकटिल से मैं प्रभावित थी, उनसे मुल़ाकातें बढ़ने लगीं। मेरे जीवन में तीन पुरुषों का स्थान बड़ा प्रेरणादायक रहा है।  एक मेरे पिता, दूसरे ब्रदर जोज़ और तीसरे मेरे पति राजेश टचरिवर। पूछने पर ब्रदर जोज़ ने ही सलाह दी कि यदि ये औरतें खुद इसमें भागीदार बनती हैं तो इनके लिए कुछ किया जा सकता है।
मेहंदी के पास ही एक कमरे में कुछ औरतें रुकी हुईं थीं। उनके मकान लूट लिये गये थे और सामान भी जला दिया गया था। मुझे उनसे भागीदारी की कोई उम्मीद नहीं थी। मैंने फिर भी बात उनके सामने रख दी। मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने अपने गहने उतार कर मुझे दिये और कहा कि इसे बेच कर हमारे बच्चों के लिए स्कूल शुरू कीजिए। इस तरह पीड़ित महिलाओं के बच्चों के लिए उन्हीं के सहयोग से पहला स्कूल उसी कमरे में शुरू किया गया। यही प्रज्वला का बीजारोपण था। यहीं से एक नया संघर्ष शुरू हुआ, जिसमें बाद में राजेश टचरिवर की भी बड़ी भूमिका रही। मैंने जोज़ का एक सिद्धांत मुट्ठी में बांध लिया। उन औरतों के लिए कुछ करना है तो ये करो कि उन्हें किसी का मोहताज न बनाओ।

कई बार हुए हमले
जब वेश्यावफत्ति से महिलाओं को छुड़ाने उनके अड्डों पर छापे मारने आदि का सिलसिला शुरू हुआ तो यह काम दलालों को अच्छा नहीं लगा। दलालों ने मुझे अपना दुश्मन जानकर कई बार हमले किये। हमले मेरे लिए ट्रैफिक सिग्नल थे। मैंने बिना रुके चलते रहने की रणनीति बनायी और हमलों को पुरस्कार मानने लगी।
दिल्ली, चंद्रपुर, मुंबई, पूणे सहित कई शहरों में छापे मारे गये। मैंने एक साथ सैकड़ों औरतों को इस कारोबार से बाहर निकाला। कई बार तो ऐसा होता कि हमारे पहुँचने से पहले ही उन्हें इसकी खबर हो जाती और वे लड़कियों को छुपा देते और हम पर हमला कर देते। यह देखकर फिर स्थानीय पुलिस को सूचना दिये बग़ैर दूसरे राज्य की पुलिस के साथ 
 छापे मारे जाते।
समस्या यह थी कि उन्हें स्थायी रूप से कहाँ रखें। ब्रोकर्स की अलग समस्या थी। वे किसी भी हद तक जा सकते थे। सरकार के पास भी ऐसी कोई सुविधा नहीं थी कि जहाँ रह कर लोग आत्मनिर्भर हो जाएँ। इसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए प्रज्वला होम की बुनियाद डाली गयी। इसका उद्देश्य शोषित और पीड़ित महिलाओं के काले, अंधेरे कल को उखाड़ फेंकना और उन्हें फिर से शराफत की ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए प्रेरित करना है। इस पेशे में जानबूझ कर आने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है, लेकिन अपनों के हाथों बेची गयीं, प्रेम और रोज़गार के बहाने धोखे का शिकार हुईं औरतों की संख्या काफी अधिक है। उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए लंबी लड़ाई की ज़रूरत है।

कानून की लड़ाई
अब मुझे कानूनी रूप से लड़ना है, जिसकी शुरूआत हम कर चुके हैं। समाज की रूढ़ीवादी विचारधारा को बदलने के लिए कानून का बदलना अनिवार्य है। ऐसा समाज, जहाँ विभिन्न स्तरों पर औरतों को वस्तु की दृष्टि से देखा जाता हो और उसे खरीदने-बेचने की प्रवफत्ति में खुद औरतें भी शामिल हों, औरत के शोषण को साधारण बात बतायी जाती हो, उसे बदलने के लिए कड़े कानून की आवश्यकता है।
मानव तस्करी का शिकार हो कर वेश्यावफत्ति में आने वाली महिलाओं को बचाने, उन्हें सुरक्षित माहौल प्रदान करने तथा उनकी पुनर्स्थापना में राजनीतिक इच्छा शक्ति इसलिए भी नहीं है कि इससे उनका कोई लाभ होने वाला नहीं है। वे तो इस समस्या पर चर्चा करने के लिए भी तैयार नहीं होते हैं।


- एफ.एम. सलीम्


Comments

Popular posts from this blog

बीता नहीं था कल

सोंधी मिट्टी को महकाते 'बिखरे फूल'

कहानी फिर कहानी है