दुश्मन को कलेजे से लगाने वाले अनवर जलालपुरी नहीं रहे

(अनवर जलालपुरी नहीं रहे। कल(2 जनवरी 2018 को)  उन्होंने लखनऊ के ट्रामा सेंटर में इस दुनियाए फानी को अलविदा कहा। हैदराबाद से उनका गहरा रिश्ता रहा है। जब भी वे हैदराबाद आते। मुशायरे में और उसके बाद या  पहले होटल के कमरे में उनसे ज़रूर मुलाक़ात होती। लगभग डेढ़ साल पहले उनके बारे में लिखा यह ब्लॉग फिर से पेश है।)

कला की विभिन्न विधाओं में मंच का संचालन भी शामिल है। विशेषकर कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का संचालन करने के लिए एक विशेष कलात्मक प्रतिभा की आवश्यकता होती है। उर्दू मुशायरों के संचालन के इतिहास में सक़लैन हैदर के बाद एक बड़ा नाम उभरता है- अनवर जलालपुरी का। आज अनवर जलालपुरी न केवल मुशायरों के संचालक बल्कि एक अच्छे शायर, विद्वान तथा गीता और गीतांजलि जैसी पुस्तकों को उर्दू शायरी से जोड़ने वाले रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं, उर्दू में शायरी करते हैं और संस्कृत, फारसी तथा अरबी पर भी अपना अधिकार रखते हैं। बीते दो दशकों में हैदराबाद में होने वाले हर बड़े मुशायरे के संचालक के रूप में पहला नाम अगर कोई उभरता है तो वह अनवर जलालपुरी का ही है। उनसे कई मुलाक़ातें हुईं, लेकिन एक बार हुई लंबी मुलाक़ात में उनसे कई विषयों पर बातचीत का मौका मिला। 
विशेषकर मंच के संचालन की कला पर जब बात निकली तो वो मुस्कुरा उठे और कहा कि यह सचमुच में बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। उन्होंने 1968 से अब तक देश के छोटे-मोटे शहरों से लेकर लाल किले के मुशायरे तक का संचालन किया। वे बताते हैं कि शायर अपने समय के अनुसार, पढ़वाने की मांग रखते हैं और श्रोताओं की अपनी मांग होती है। वे अच्छे चेहरे अच्छी आवाज़ों की इच्छा रखते हैं। दोनों में सामंजस्य बनाए रखते हुए मुशायरों का सम्मान बढ़ाना अनिवार्य रहता है। 
अनवर जलालपुरी देश की आज़ादी के साथ पले-बढ़े और खुली हवा में सांस लेते हुए, मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक के रूप में उभरे। 6 जुलाई, 1947 को उत्तर प्रदेश में अंबेडकर नगर जिले के जलालपुर में जन्मे अनवर जलालपुरी ने अंग्रेज़ी और उर्दू में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की फिर अंग्रेज़ी के प्राध्यापक बने। 
अपने घर पर सजी महफिलों में बुजुर्गों को पानी पिलाने और पान खिलाने के दौरान अनवर जलालपुरी को कब शायरी का शौक हुआ, पता ही नहीं चला। वे आठवीं-नौवीं कक्षा के दौरान शेर कहने लगे थे। दरअसल घर में माहौल ही कुछ ऐसा था। पिता मौलाना रूम की मसनवी सुनाया करते थे। जब अनवर जलालपुरी इंटर मीडियट के छात्र के रूप में मुशायरे पढ़ने लगे तो कई बार लोग शक करते थे कि यह शेर इस नौजवान का ही है या पिता की मदद से उन्होंने लिखा लिया! देखते ही देखते एक शायर के अलावा अच्छे मंच-संचालक के रूप में उन्होंने कई बड़े मुशायरों में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी और प्यार-मुहब्बत के संदेश को हमेशा प्राथमिकता दी। 

जो भी नफ़रत की है दीवार गिराकर देखो
दोस्ती की भी ज़रा रस्म निभाकर देखो
कितना सुख मिलता है मालूम नहीं है तुमको
अपने दुश्मन को कलेजे से लगाकर देखो

अनवर जलालपुरी को चलता-फिरता उर्दू शायरी का इंसाइक्लोपीडिया कहा जाता है। उन्होंने एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें उर्दू शायरी में गीतांजलि, उर्दू शायरी में गीता, तोशए आखिरत, अदब के अक्षर, रूबाइयाते क़य्याम, रोशनी के सफीर, खारे पानियों का सिलसिला, खूशबू की रिश्तेदारी, जागती आँखें आदि हैं। इसके अलावा उन्होंने हिन्दी टेलीविजन धारावाहिक `अकबर दि ग्रेट' के संवाद लेखक और गीतकार के रूप में भी काफी लोकप्रियता हासिल की। फिल्म `डेढ इश्किया' में उनका एक मशहूर शेर खुद उन पर और नसीरुद्दीन शाह पर फिल्माया गया।
संवार नोक पलक अबरुओं में खम कर दे
गिरे पड़े हुए लफ्जों को मोहतरम कर दे
अनवर साहब ने हमेशा अपने आपको प्यार- मुहब्बत के मिशन का सिपाही बनाए रखा। जब उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने मदरसा बोर्ड की जिम्मेदारी सौंपी तो मदरसों को मॉडर्न बनाते हुए, वहाँ सामाजिक विज्ञान की शिक्षा को अनिवार्य बना दिया। उन्होंने खुद जलालपुर में मिर्जा गालिब स्कूल के नाम से एक शिक्षा संस्था की स्थापना की, जो अब इंटर कॉलेज बन गया है। भारतीय संस्कृति के समर्थक के रूप में उन्होंने मुशायरों में मंचों का प्रयोग किया और बुलंद आवाज़ में कहा- 
अनेकता में एकता जहाँ मिली अनवर 
हम इस दयार को हिंदोस्ताँ कहने लगे

विख्यात शायर मलकज़िादा मंजूर के शागिर्द रहे अनवर जलालपुरी का व्यक्तित्व अपने आप में कला, साहित्य एवं संस्कृति की उम्दा मिसाल रहा है। वे कहते हैं-

गुलों के बीच में मानिन्द ख़ार मैं भी था
फ़क़ीर ही था मगर शानदार मैं भी था
मैं दिल की बात कभी मानता नहीं फिर भी 
इसी के तीर का बरसों शिकार मैं भी था

अनवर जलालपुरी मानते हैं कि कुरान, गीता, बाइबल और गुरूग्रंथ सभी पुस्तकें मानवता की विरासत का साहित्य हैं। इसे किसी एक धर्म विशेष से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, बल्कि पड़ोसी से जिस तरह अच्छे संबंध होना ज़रूरी है, उसी तरह पड़ोसी जिन ग्रंथों पर अपनी आस्था रखता है, उसके बारे में भी एक-दूसरे को जानना चाहिए।

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