मूल भारतीय नाटक लेखन का गुलशन काफी खिला हुआ है-टॉम अल्टर

 विख्यात अभिनेता एवं रंगमंच कलाकार टॉम ऑल्टर ने फिल्मी और रंगमंचीय जिंदगी में कई किरदारों को जिया है, लेकिन उन्हें गांधी का किरदार सबसे चुनौतीपूर्ण लगता है। वे बताते हैं कि यदि गाधीजी न मरते तो.. नाटक में उन्होंने गांधी का जो चरित्र जिया था, वह सबसे अलग था।
टॉम ऑल्टर ने जहाँ हिन्दी फिल्मों में अंग्रेज़ की भूमिका निभाते हुए लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बनायी, वहीं उन्होंने टेलीविजन पर चरित्र अभिनेता के रूप में लोकप्रियता बटोरी। उसी प्रकार रंगमंच पर के.एल. सहगल, मौलाना आज़ाद, बहादुरशाह ज़फर, साहिर तथा ग़ालिब के जीवन से जुड़े नाटकों में उनकी भूमिका काफी महत्पूर्ण रही। क़ादिर अली बेग थिएटर फेस्टिवल में भाग लेने आये टॉम ऑल्टर ने बातचीत में कहा कि इस समय मूल भारतीय नाटक लेखन का गुलशन काफी खिला हुआ है। भारतीय रंगमंच के लिए यह अच्छा समय है। उन्होंने कहा, इन दिनों मैं लगभग 15 नाटकों में काम कर रहा हूँ। वे लगभग सभी हिन्दुस्तानी हैं। हर दिन कोई न कोई नई स्कि्रप्ट लेकर मेरे पास आता है। अपनी धरती पर अपने माहौल में लिखे जाने वाले नाटकों के लिए हालात काफी उत्साहजनक हैं। टॉम कहते हैं कि शेक्सपियर के नाटकों की तुलना में हिन्दुस्तानी भाषा के नाटक काफी सरल एवं सहज भाषा में होते हैं। ये जहाँ नाटककार को आसानी से याद हो जाते हैं, वहीं रसिक तक भी आसानी से संप्रेषित किये जा सकते हैं। शेक्सपियर के नाटकों की भाषा समझना सभी के लिए सहज नहीं है।


एक प्रश्न के उत्तर में टॉम ऑल्टर ने कहा कि मौलाना आज़ाद पर उन्होंने जो नाटक किया, वह पात्र उनके दिल के काफी नज़दीक है, लेकिन गांधीजी का पात्र उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा। यह इसलिए भी कि नाटक में यदि गांधीजी न मरते तो.. पर बहस की गयी है। वे कहते हैं, किसी पात्र को इतिहास में ढूँढ़कर उसे मंचित करना आसान होता है, लेकिन एक महान व्यक्तित्व के न होने पर उनके होने के समय से जोड़कर देखना काफी कठिन होता है। पिछले चार साल से मैं गांधीजी की भूमिका इस नाटक में निभा रहा हूँ, जो मुझे सबसे मुश्किल लगा है। इसलिए भी यह मुश्किल है कि यह फर्जी पात्र है। इसमें गांधीजी मरे नहीं हैं... और फर्जी चीज़ को प्रस्तुत करना मुश्किल होता ही है। यूँ भी गांधीजी की जिंदगी की बारिकियों को समझना और कलाकार के रूप में उन मानकों पर उतरना

आसान नहीं। वर्तमान समाज में गांधीजी के सिद्धांतों पर पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में टॉम अल्टर ने कहा कि गाँधी के सिद्धांत तो उसी समय टूट गये थे, जब देश टूटा था। मौलाना आज़ाद को छोड़ दें, तो लगभग सभी नेता भागीदारी पर समझौता कर चुके थे। मौलाना आज़ाद को आखिर तक विभाजन स्वीकार नहीं था,  लेकिन गांधीजी को इस पर मजबूरन अपनी मर्जी के खिलाफ सहमती जतानी पड़ी। उसी समय उनका दिल टूट चुका था। यही कारण है कि आज़ादी की रात वे दिल्ली में नहीं थे, बल्कि कोलकता में खून-खराबे को रोकने की कोशिश कर रहे थे। टॉम कहते हैं, मुझे लगता है हमने उनके असूलों को छोड़ा नहीं तोड़ा है। वे आज़ादी के बाद सिर्फ साढ़े पाँच महीने तक जिये। हमने एक बड़ा अपराध किया कि सबकी एकता के समर्थक उस महान हस्ती को मार दिया। मुझे लगता है यह अपराध हम सबने मिलकर किया है और हमें उसके लिए माफी माँगनी होगी।'

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