खुद को साबित करने पर ही मिलता है सम्मान : रवींद्र गुप्ता


रवींद्र गुप्ता दक्षिण मध्य रेलवे के महाप्रबंधक हैं। रेल मंत्रालय ने पदोन्नति देकर उन्हें रेलवे बोर्ड सदस्य बनया है। वे 1975 बैच के स्पेशल क्लास अपेरेंटिस (एससीआरए) अधिकारी हैं। इलाहाबाद में जन्मे, पले-बढ़े रविंद्र गुप्ता ने इससे पूर्व पश्चिमी रेलवे के चीफ मेकॉनिकल इंजीनयर, जमालपुर वर्कशॉप के मुख्य प्रबंधक सहित रेलवे के विभिन्न जोनों में महत्वपूर्ण पदों पर सेवाएँ दी हैं। उन्होंने तेज़ रफ्तार ट्रेनों तथा रेलवे सुरक्षा के मामलों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशिक्षण प्राप्त किया है। रेलवे में होने के बावजूद जल संरक्षण तथा तालाबों के पुनरुद्धार में उनकी खास दिलचस्पी है। कई स्थानों पर उन्होंने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण उप्लब्धियाँ प्राप्त की हैं।
सप्ताह के साक्षात्कार में उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं...

रेलवे में आना इत्तेफाक रहा या योजनाबद्ध तरीके से सेवा में प्रवेश किया?
इसे आप लक्षित ही कह सकते हैं। अगर मैं समय में कुछ पीछे जाऊँ, तो मुझे याद आता है कि मैं आईआईटी  से इंजीनियरिंग करना चाहता था, लेकिन रास्ता दूसरी ओर मुड़ गया। पिताजी उन दिनों गोरखपुर में थे। वे राज्य सरकार की सेवा में थे। उनके एक उच्च अधिकारी का एक पुत्र उत्तर पूर्व रेलवे मुख्यालय में था। एक बार हम उनसे (अधिकारी के पुत्र से) मिलने रेलवे क्वार्टर गये। यह बिल्कुल अलग दुनिया थी। मेरे पिताजी उस कॉलोनी के रख-रखाव से काफी प्रभावित हुए। मैं समझता हूँ कि उस समय भारत में रेलवे सेवा सबसे अच्छी सेवा कहलाती थी। आज भी उसे बनाए रखा गया है। हम तीन लड़के थे। उस युवा अधिकारी ने पिताजी से कहा कि अपने बेटे को रेलवे अधिकारी बनाएँ। पिताजी बहुत प्रभावित हुए और मेरे सामने एससीआरए ही लक्ष्य हो गया। मैं आईआईटी की तैयारी पहले से ही कर रहा था, जो मेरे लिये मुश्किल नहीं था। मैं गणित में काफी अच्छा था। यही मेरे लिए स्ट्रांग प्वाइंट था। अंग्रेज़ी अच्छी नहीं थी, इसलिए एक साल का ट्यूशन लिया।  इस तरह एससीआरए की परीक्षा में मैं पिताजी की उम्मीदों पर खरा उतरा। मेेरा आईआईटी में भी चयन हुआ और एससीआरए में भी। आईआईटी का परिणाम पहले आया था, इसलिए मैंने आईआईटी, कानपुर में प्रवेश भी ले लिया। एक सेमिस्टर के बाद एससीआरए का परिणाम आया, तो आईआईटी छोड़कर मैं जमालपुर पहुँच गया। अपेेरेंटिसशिप के लिए चार साल तक पढ़ाई की और मेकॉनिकल इंजीनियर बन गया।

एक तरह से कहा जा सकता है कि रेलवे ने ही आपको अपने लिए तैयार किया?
नहीं,  ऐसा नहीं है। जमालपुर की एससीआरए स्कीम बहुत पुरानी है। वर्ष 1927 में इसकी शुरुआत हुई। यह अलग बात है कि पिछले साल से यह बंद हो गयी, क्योंकि अब रेलवे को यह लगता है कि जब दूसरे इंजीनियरिंग कॉलेज प्रतिभाएँ तैयार कर रहे हैं, तो अलग से काम क्यों किया जाए? उस समय बैकअप सपोर्ट नहीं था। जमालपुर वर्कशॉप के बारे में कहा जा सकता है कि यहाँ की रोलिंग मिल देश भर में अलग स्थान रखती थी। उस समय भारत में रेलवे की तकनीकी नहीं थी। इसलिए ब्रिटिशर्स ने 1862 में इसकी नींव रखी। एक समय था, जब यहाँ 25 हज़ार कर्मचारी काम करते थे और स्टीम लोको का ज़माना था। इसके सभी पार्ट यहाँ बनते थे। लोको की ओवर ऑयलिंग होती थी।

आपने आईआईटी और अपेरेंटिसशिप में क्या अंतर महसूस किया?
आईआईटी में केवल पढ़ाया जाता है, लेकिन यहाँ पढ़ाई और ट्रेनिंग साथ-साथ चलते हैं। छह महीने पढ़ना और छह महीने प्रैक्टिकल करना। जमालपुर का ट्रेनिंग प्रोग्राम बहुत इंटेंसिव प्रोग्राम था। सुबह 7 बजे पढ़ने की शुरुआत होती थी। शाम में दो घंटे खेलना अनिवार्य था। शाम में 7 बजे के बाद दो घंटे की कक्षा होती थी। ज़िंदगी बहुत खूबसूरत थी। सोचने का समय ही नहीं मिलता था कि क्या करना है?
पहली पोस्टिंग के बारे में कुछ बताइये?
इटारसी रेलवे का बहुत बड़ा जंक्शन है। यहीं पर मेरी पोस्टिंग हुई। डिजिटल लोकोमेटिव का मेंटनेंस शेड है, जो उस समय का बड़ा शेड माना जाता था। इन लोकोमेटिव के रख-रखाव की जिम्मेदारी मुझे दी गयी। लोकोमेटिव बहुत कीमती संपत्ति होती है। इसमें तकनीकियाँ होती हैं। किसी भी काम को समझना बड़ी चुनौती होती है। अधिकारी का काम यह नहीं होता कि वह हुक्म दे, बल्कि वो उसे पहले सीखे, फिर औरों को सिखाए। हम आदेश तभी दे सकते हैं, जब वह काम हमें आता हो। हम वर्कर्स से सीखते हैं, किताबें पढ़ते हैं और फिर काम को सही तरीके से जानते हैं। 

इटारसी से लेकर हैदराबाद तक की जिंदगी में बहुत सारे पड़ाव रहे। इसमें सबसे दिलचस्प पड़ाव कौन-सा रहा?
दिलचस्प पड़ाव की बात की जाए, तो मेरी पोस्टिंग वर्ष 1993 में पुणे में एक वरिष्ठ डिवीजन प्रबंधक के रूप में हुई, लेकिन यहाँ मैं पूरे संगठन का प्रमुख था। मेरी पोस्टिंग के समय चीफ मेकॉनिकल इंजीनियर ने कहा कि इस शेड की हालत बहुत खराब है और आपको इसे सुधारना है। हालत ज्यादा खराब हो, तो डर लगा रहता है कि आप जिम्मेदारी पर खरा उतरेंगे या नहीं। आपको जिम्मेदारी इसलिए मिलती है कि सामने वालों को आप पर भरोसा होता है। इस तरह जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ जाती है। मैंने वह कर दिखाया। सुबह 8 से रात 8 बजे तक मैं काम करता था। शेड में ही रहता था। मेरी मेहनत के परिणाम सामने आये। लोग समझ गये कि मैं अच्छा काम करना चाहता हूँ। आप किसी भी स्थान पर जाइये, तो लोग पहले आपको जाँच कर देखते हैं कि आप उस पद के योग्य हैं या नहीं। जब उन्हें पता चल जाता है कि वे आपको घुमा नहीं पाएँगे, तो फिर आपके साथ काम करने लग जाते हैं। मैं समझता हूँ कि कोई भी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए खुद को साबित करना पड़ता है कि हम उसके काबिल हैं। इसके बाद ही पूरा सम्मान और समर्थन मिलता है। जब मैंने पुणे में श्रेष्ठ प्रदर्शन किया, तो उपलब्धि मिली और खुशी भी।

वहाँ से आप जमालपुर वर्कशॉप आये। इसके बारे में कुछ बताइये?
हाँ, यहाँ सीएमई बन के आया था। यहाँ आने के बाद मुझे पता चला कि बारिश के दिनों में कारखाना कई दिनों तक बंद रहता है।  टाउनशिप से पानी आकर इसमें भर जाता है। जैसा मैंने बताया था कि ये अंग्रेजों के ज़माने का कारखाना था। मैं जानता था कि अंग्रेज़ अपने काम के साथ कभी समझौता नहीं करते थे। मैंने सोचा कि उन्होंने इसका कुछ न कुछ तोड़ निकला होगा। सारी पाइप लाइन चेक करवाई। सब ठीक था। एक सुझाव आया कि बरसाती पानी के बहाव की नयी पाइप लाइन बना दी जाए। इसमें 50 से 60 लाख रुपये लगते। मैंने कुछ और जानने की कोशिश की, लेकिन कोई सुराग नहीं मिल रहा था। एक दिन सुबह मैं कारखाने पहुँचा, तो बिल्कुल गेट के पास एक छोटी ड्रेन देखी, नालानुमा, जो काफी पट गई थी। मैंने उसे साफ करवाया, क्योंकि वो कारखाने के चारों तरफ थी।  चार दिन बाद जम के बारिश हुई। कर्मचारी समझ रहे थे कि  कारखाना फिर दो चार दिन के लिए बंद होगा, क्योंकि पानी से सारी मशीनें खराब हो जाती थीं, लेकिन जब मैं सुबह कारखाना पहुँचा, तो हैरत की इंतहा नहीं रही, कारखाने में एक भी बूंद पानी नहीं था। सभी को आश्चर्य हुआ। 60 लाख बच गए, सो अलग। क्या पता नई पाइपलाइन के बाद भी समस्या बनी रहती। इस घटना से समझ आया कि कभी-कभी बड़ी समस्याओं के छोटे-छोटे हल होते हैं, लेकिन हम इन्हें नहीं देख पाते हैं। 

यह तजुर्बा बाद में भी काम आया होगा?
हाँ, कई घटनाएँ हैं, लेकिन दो और घटनाएँ बताना चाहूँगा, जिनमें से एक का संबंध हैदराबाद से है। मैं चक्रधरपुर में डीआरएम था। यहाँ रेलवे टाउनशिप थी। पुराने स्टीम लोको आते थे। टाउनशिप में पानी की समस्या थी। मालूम किया, तो पता चला कि यहाँ तालाब तो हैं, लेकिन सूखे पड़े हैं। यहाँ भी नई पाइप लाइन बिछाने में काफी रुपये लगते। मैंने तालाब खुदवाने का निर्णय लिया। इसी बीच मेरा तबादला हो गया और वह काम बीच में ही रुक गया। बाद में लोगों ने बताया कि  आधे खुदे तालाब ने भी समस्या हल कर दी। जब मैं हैदराबाद आया, तो यहाँ भी वही समस्या थी। पानी का बिल काफी ज्यादा आ रहा था। अब इस समस्या के दो हल थे। आसान हल ये था कि पानी का इस्तेमाल कम कर दो और मुश्किल हल ये कि नयी व्यवस्था तलाश करो। सिकंदराबाद स्टेशन नज़िामों के दौर का है। यहाँ अंग्रेज भी रहे। रेलवे के लिए पानी की अलग व्यवस्था उन्होंने ही की होगी, लेकिन समय के साथ-साथ वह व्यवस्था धूमिल हो गई। पता चला कि सालारजंग के नाम से एक कुआँ यहाँ है। देखा तो कुएँ की जगह गड्ढा बन गया। मैंने उसे खुदवाया। इससे 2 करोड़ रुपये पानी के बिल में बचाये गये। दो और कुओं के बारे में पता चला कि खुदाई का काम चल रहा है। उम्मीद है कि पानी के बिल में 5 करोड़ रुपये की बचत होगी। ये तीनों बावलियाँ पिछले 17-18 साल से बंद थीं। बावलियों के लिए मशहूर शहर में उनके रेस्टोरेशन से पानी की  छोटी-छोटी समस्याओं को हल किया जा सकता है। ऐसा कुछ करना चाहिए, जिसे लोग याद रखें। ये कुआँ सालारजंग के नाम से था, लेकिन लोग ये भी कहेंगे कि इसे रवींद्र गुप्ता ने री-स्टोर किया। सालारजंग जन्नत में बैठे मेरे लिए दुआ करते होंगे कि इसने मेरा नाम फिर से रोशन किया।

दक्षिण मध्य रेलवे के कुछ अनुभव बताइये?
यहाँ के कर्मचारी बहुत उत्साही हैं। ये देश भर के अच्छे जोनों में से एक है। देश का ये हिस्सा बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा है। यहाँ नई तकनीकी अपनाने के लिए लोग तैयार रहते हैं। स्टॉफ के समर्पण से बहुत कुछ किया जा सकता है। मुझे लगता है कि अगर डीआरएम के रूप में मैं चक्रधरपुर में रहता, तो तालाब का काम अधूरा नहीं छोड़ता।

अब आप रेलवे बोर्ड सदस्य के रूप में सेवा देने जा रहे हैं। आपको बधाई। वहाँ आपकी क्या प्राथमिकताएँ होंगी?
सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। मैं चाहता हूँ कि इसके साथ कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए। मेरी ज़िम्मेदारी रोलिंग स्टॉक की है। सुरक्षा दो तरह से की जा सकती है। एक कि पटरियाँ सुरक्षित हों और दूसरा कि कोच में यात्री सुविधाजनक महसूस करे। एक और उद्देश्य है, रेलगाड़ियों को गतिमान रखना। सुपरफास्ट ट्रेनों के लिए तकनीकी बनाई जा रही है, ताकि 250 किलोमीटर प्रति घंटा से इन्हें चलाया जा सके।

काम के अलावा कोई शौक?
पढ़ने का शौक है। किताबों से अधिक से अधिक जानने को मिलता है। इसके अलावा घूमने का शौक है। रेलवे में काम करना फौजी की जिंदगी की तरह है। एक रेजिमेंटल की तरह काम करना पड़ता है।

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