एक जल-थल यात्रा की कुछ यादें....


(हाल ही में आईआईआईटी में क से कविता के एक कार्यक्रम में मीनाक्षीजी से बातचीत के दौरान अपनी पुरानी कृष्णा यात्रा याद आयी। उस यात्रा का 29 अक्तबूर 2014 का लिखा हुआ एक यात्रावृत्तांत पेश है।)

ऊँची-ऊँची दूर तक फैली लंबी पहाडी चोटियों के बीच से नदिया की धार पर उलटे सफर करने का रोमांच अलग ही होता है और ऐसे में अगर बादल घिर आएँ, बारिश की बूंदें बौछार में बदल जाएँ और शाम से  पहले ही अंधेरा घिर आये तो फिर उस यात्रा का आनंद दुग्ना हो जाता है। हुआ कुछ ऐसा ही। दर असल तीन दिन पहले ही तय हो गया था कि महाबलेश्वर के निकिट पश्चिमी घाटों से निकलने वाली कृष्णा नदी के दीर्घदर्शन करने हैं। नवंबर 2014 के एक बुधवार की सुबह 6 बजे पर्टयक भवन, बेगमपेट में पर्टयन विभाग की बसें तैयार खड़ी थीं।

 यूँ मीडिया प्रतिनिधियों के पहुँचते-पहुँचते यात्रा के प्रारंभ में कुछ देर ज़रूर हुई, लेकिन लगभग ग्यारह बजे नागार्जुन सागर का विशाल बांध नज़रों के सामने था। बांध की सीमाएं जहाँ आन्ध्र-प्रदेश के गुंटुर जिले को तेलंगाना के नलगोंडा जिले से जोड़ती हैं, सड़क परिवहन के लिए बनाये गये छोटे पुल से नागार्जुन सागर का बाँध का नज़ारा करते हुए और बाँध के उस ओर फैले विशाल जलसंग्रहण का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, लेकिन बाँध में बंधने के बाद बाईँ ओर फीके हो चले कृष्णा नदी के रंग का नज़ारा किया जा सकता है। यूँ उससे कुछ पहले दायीं ओर घुमावदार सड़कों से होकर गुज़रती बस की खिडकियों से जगह-जगह पहाडी चोटियों के बीच से जल संग्रहण के मोहक दृष्य ज़रूर दिखाई देते हैं, लेकिन बांध के पास बनी बस्ती से गुज़र कर जब सागर के बोटिंग लांच स्टेशन के पास पहुँचते हैं, तभी इस बात का एहसास होता है कि इस सागर को एशिया का सबसे बड़ा मानवनिर्मित बाँध क्यों कहा जाता है।

हद्दे निगाह तक फैला जल क्षेत्र खास नज़ारे की दावत देता है। हैदराबाद से लगभग 150 किलोमीटर की यात्रा के बाद अपने दौर के विख्यात स्थल श्रीपर्वत के आस-पास फैले बांध के लांच स्टेशन पर एम एल अगस्त्या क्रूज़र पहले से ही तैयार है। अगस्त्या में शायद इस बार सामान्य से अधिक यात्री हैं। सभी को कृष्णा जल की धारा पर लगभग 110 किलोमीटर की यात्रा तय करनी है। योजना के अनुसार, हमें यहाँ से नागार्जुन कोंडा पहुँचना है, जो बौद्धकालिक धरोहरों में से एक हैं और भारतीय कलात्मक धरोहरों की सूची में महत्वपूर्ण नाम है। स्तूप स्थापत्य कला के महत्वपूर्ण नमूने यहाँ सुरक्षित हैं, लेकिन क्रूज़र द्विप के निकट से गुज़रती हुई आगे बढ़ती है। सूचित किया जाता है कि लांच स्थल से निकलने में देर होने के कारण यह अवसर हमारे हाथ से निकल गया है, यदि नागार्जुना कोंडा में प्रवेश करते हैं तो श्रीशैलम पहुँचने में देर हो सकती है और यात्रा के दौरान अंधेरा हो जाना असुविधाजनक हो सकता है,  इसलिए नागार्जुना कोंडा में रुकना रद्द कर दिया गया है। खैर! कॉलेज की दिनों में की गयी यात्रा की स्मृतियों से ही काम चलाना पड़ा, जब बताया गया  था कि सिद्धार्थ की कांसे की बनी मूर्ति नागार्जुन कोंडा की खुदाई के दौरान प्राप्त हुई थी, जो ईसा की प्रथम शताब्दी की बतायी जाती है।

कुछ आगे बढते हैं। धूप सिर पर है। चारों ओर दूर-दूर तक सागर का पानी फैला हुआ है। अभी लहरें उतनी तेज़ नहीं हो पायी हैं। क्रूज़र सीधी दिशा में चल रहा है। सामने दो द्विप दिखाई दे रहे हैं, इसलिए पता नहीं कि कृष्णा की मुख्य धारा किस ओर से आ रही है। अब हम बाईं ओर मुड जाते हैं। लगभग एक घंटा गुज़र चुका है। अब कृष्णा की मुख्य धारा की ओर आगे बढ़ते हैं। दाएँ बाएँ पहाडों को अपने जल प्रवाह से काटने वाली कृष्णा के अनोखे दृष्य और फिर बीच बीच में कई सारे छोटे-छोटे द्विपों को अपने में दामन मे लेती कृष्णा नदी पर हम आगे बढ़ते जाते हैं। 

पानी पर तैरती हवा की लहरे, नीले आसमान पर हल्के सफेद बादल और सागर से नदी में सिकुडता जल प्रवाह। नदी की चौडाई कहीं कम तो कहीं अधिक, लेकिन दोनो ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड। उसी दौरान दोपहर के खाने के लिए आमंत्रित करते पर्यटन विभाग के अधिकारी बताते हैं कि हम लगभग 500 फीट गहरे जल के ऊपर हैं और यह गहरायी सागर के पास 590 फीट थी।

सागर से कई किलोमीटर दूर निकल आने के बाद नदी के दोनों किनारे क़रीब से देखे जा सकते हैं। दोनों ओर घने जंगल हैं और पहाडी चोटियाँ हैं। कल्पना ही की जा सकती है कि उन चोटियों के दूसरी ओर कोई आदमियों की बस्ती होगी या नहीं। एक जगह दो गायें तैरती हुई एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर जाती दिखाई देती हैं। पानी में केवल उनके सिर ही दिखाई दे रहे हैं। इससे लगता है कि आस-पास कोई बस्ती होगी।

दोपहर गुज़र चुकी है। शाम अभी कुछ दूर है। पानी पर धूप की चमक और पास के पहाडी चटानों से गुज़रते बादलों के साये अनोखा नज़ारा पैदा करते हैं। बताया जाता है कि अब हम नल्लामलाई जंगलों के क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं। दिन भर का थका हुआ सूरज सामने है, लेकिन क्रूजर में यात्रा कर रहे पर्यटकों में उत्साह बढ़ रहा है। यह उत्साह थोड़ी-थोडी देर बाद नदी की मुख्य धारा में अपने अस्तित्व को खो रहे दूसरी नदी और छोटे छोटे नालों के धारों और नदी के ऐसे उस दिलचस्प मोड़ के कारण भी है, जहाँ दूर से लगता है कि अब नदी सामने के पहाड़ तक जाकर खत्म हो जाती है, लेकिन फिर दायीं ओर उसका बहाव नज़र आता है।

अब लगता है हम अपने गंतव्य स्थल के नज़दीक पहुँच गये हैं। कई तरह के अद्भुत नज़ारे सामने हैं। छोटे से टोकरे को चप्पू से आगे ब़ढ़ाते हुए दम्पति नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे को पहुँचते हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं उनकी संख्या बढ़ती जाती है। जगह-जगह सफेद और काले रंग के थरमाकोल तैरते दिखाई देते हैं। पानी वहाँ से बह निकलता है और थरमाकोल वहीं पर अटके हुए हैं। जब क़रीब से गुज़रते हैं तो पता चलता है कि ये मछुआरों के लिए निशान हैं, जहाँ उन्होंने अपने शिकार के लिए जाल बिछा रखा है। किनारों का मंज़र भी बहुत खूबसूरत हैं। कई जगहों पर जलधारा ने पहाडों को कुछ इस तरह काटा है, लगता है पत्थर तराश कर वहाँ रख दिये गये हैं।

श्रीशैलम का ऊँचा बांध दूर से दिखाई दे रहा है। अंधेरा बढ़ने लगा है। क्रूज़र से नीचे के बहाव पर नज़र डालते हैं तो जलधारा का अंदाज़ ही अलग है। लगता है, पानी के बहाव अनमने ढंग से आगे बढ़ रहा है, उसमें नदी के पानी जैसी जान नहीं दिखाई दे रही है। इसका कारण पूछे जाने पर बताया जाता है कि यह पानी बिजली उत्पादन केंद्र से छोडा हुआ है। इसमें वो मस्ती नहीं है, जो सीधे नदी की धारा में होती है। आगे जाकर जहाँ तुंगभद्रा, भीमा, दिंडी और दूसरी नदियाँ उसमें मिलती हैं, तब उसमें चंचलता आ जाती है। क्रूज़ से उतरने के लिए कुछ खास स्टेशन नहीं बना है। बस नदी के किनारे पत्थरों के पास उसे रोक दिया जाता है और अस्थायी फुटवोयर मार्ग से उतरकर हम पास की सड़क पर खड़ी अपनी बसों की ओर बढ़ते हैं। नदी से ऊपर जाने का रास्ता एक मंदिर से होकर गुज़रता है और उससे पहले बड़ी संख्या में नदी विहार के लिए बड़ी संख्या में टोकरे रखे गये हैं। सुबह हैदराबाद से निकलकर श्रीशैलम पहुँचा यात्री हो सकता है कि थका हुआ महसूस करे, लेकिन उसे यह भान ही नहीं रहता है इस थल-जल (रोड कम क्रूज़) यात्रा में वह सड़क और कश्ती के मार्ग से 5 जिलों (हैदराबाद, रंगारेड्डी, नलगोंडा, गुन्टुर और महबूबनगर) को पारकर छठे जिले कर्नूल में पहुँच गया है। 

ब्रह्मारम्बा मल्लिकार्जुन मंदिर के लिए मशहूर श्रीशैलम दक्षिण भारत के धार्मिक स्थलों में से एक है। यहीं पर बना है कृष्णा नदी का ऊँचा बांध और उस पर श्रीशैलम जल विद्युत परियोजना का निर्माण किया गया है। इस दर्शनीय स्थल के दिन और रात में अलग-अलग नज़ारे दिखाई देते हैं। पहडों पर कई मोड लेती सड़क पर ऊपर चढते समय रात में पहाडों पर जल्ते बल्ब और नीचे पानी में उसका अक्स रोमांचकारी होता है, तो दिन में कई घुमावदार मोड़ और पहाडों से नदी में उतरती और नदी से पहाडों पर चढ़ती सड़क को देखने का आनंद अलग ही होता है। श्रीशैलम की यात्रा में मुख्य मंदिर के दर्शन के अलावा रोप वे, पाताल गंगा, शिखरम के दर्शन तथा आदिवासी संग्राहलय का अवलोकन स्मृतियों में नयी घटनाओं को जोड़ता है। 

हैदराबाद लौटते हुए रास्ते में टाइगर व्यूव पाइन्ट एक अनोखा नज़ारा है। नल्लामल्लाई जंगलों से होता हुए मुख्य मार्ग से जीपों द्वारा लगभग 8 किलोमीटर तक कच्ची सड़क की यात्रा करने के बाद हम इस प़ॉइंट तक पहुंचते हैं। हालांकि किसी शेर के दर्शन नहीं होते (कहा जाता है, कभी कभार ही होते हैं।), लेकिन कई किलोमीटर दूर तक फैले दृष्य को इस दर्शन स्थल से देखा जा सकता है। की जगहों पर टूटे फूटे पुराने छोटे-छोटे मकानों के ढांचे दिखाई देते हैं। बताया जाता है कि यह निज़ामकाल में शिकार का मुख्य स्थल हुआ करता था। शाम होने को है और हम अब हैदराबाद के लिए निकल पड़ते हैं।


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