फिल्में पहचान देती हैं, लेकिन नाटक जैसा संतोष नहीं

 विख्यात फिल्मकार एवं रंगकर्मी अविजित दत्त ने कहा कि फिल्मों ने उन्हें पहचान ज़रूर दी है, लेकिन नाटक जिस तरह दिल को सुकून पहुँचाते हैं, वह फिल्मों से नहीं मिलता। यही कारण है कि वे बार-बार रंगमंच की ओर लौट आते हैं।

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अविजित दत्त से विशेष बातचीत

अविजित दत्त अपना प्रतिष्ठित नाटक नूरजहाँ लेकर हैदराबाद आये थे। कादिर अली बेग थिएटर फेस्टिवल के दूसरे दिन आज उन्होंने अपने इस इतिहास आधारित नाटक का मंचन किया। अविजित दत्त ने पीकू, लैंड ऑफ गॉड्स, मद्रास कैफे, नो वन किल्ड जेसिका, गांधी टू हिल्टर, कामसूत्रा ए टेल ऑफ लव जैसी फिल्मों में अभिनय किया है। साथ ही यात्रिक थिएटर के निदेशक के रूप में उन्होंने 50 से अधिक नाटकों का निर्देशन किया है। हज़ार चौरासी की माँ जैसा विख्यात नाटक उन्होंने लिखा था।
 खास बात यह है कि वे हैदराबाद पल्बिक स्कूल, बेगमपेट के छात्र रहे हैं। कोलकाता से अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद वे दाार्ज्लििंग में अंग्रेजी के शिक्षक बन गये, लेकिन कार्य में मन नहीं लगा और वे दिल्ली चले गये और वहाँ विज्ञापन, रंगमंच तथा फिल्मों के लिए समार्पित हो गये। जिस तरह मैथिलीशरण गुप्त अपने काव्य में इतिहास में खोए हुए नारी पात्रों को उजागर करने के लिए ख्याति रखते हैं, ठीक उसी तरह अविजित दत्त ने मध्ययुगीन कई नारी पात्रों को रंगमंच से अभिव्यत्त किया है।
नूरजहाँ उनके इसी क्रम की महत्वपूर्ण कड़ी है। नाटक मंचन के बाद `मिलाप' से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि फिल्मों से वे लगातार जुड़े रहे हैं। उनके कई मित्र इस बारे में प्रतिक्रिया व्यत्त करते रहते हैं, लेकिन जब कोई उनसे यह कहता है कि उसने उनका अमुक नाटक देखा है, तो उन्हें सबसे अधिक खुशी होती है।एक प्रश्न के उत्तर में अविजित ने कहा कि देश के नाटककार फिर एक बार ऐतिहासिक पात्रों की ओर मुड़ रहे हैं। इस तरह आयातित नाटकों के बजाय देश के इतिहास में लुप्त पात्रों पर खोज जारी है। एक तरह से यह भारतीय रंगमंच के लिए काफी अच्छा समय है। विशेषकर ऐतिहासिक पात्रों पर अच्छे नाटक लिखे जा रहे हैं। इसके बावजूद अविजित दत्त को इस बात का अफसोस है कि देश में मौखिक कथा-कथन की परंपरा दम तोड़ रही है। कई ऐतिहासिक पात्र और दंतकथाएँ लुप्त होती जा रही हैं। इस परंपरा को किसी न किसी रूप में जीवित रखना जरूरी है। इसकी खोज में ही हमें लोककथाएँ और मिथक मिलेंगे। अविजित ने कहा कि उन्होंने हैदराबाद पब्लिक स्कूल में 6 से 10वीं कक्षा तक पढ़ाई की। इसके बाद मुंबई का रुख किया। वहाँ एक वर्ष रहने के बाद फिर से वापस लौटे और जूनियर्स के साथ 12वीं कक्षा में प्रवेश लिया। आज भी उन्हें हैदराबाद में गुज़ार हुए दिन याद हैं। उनके कई मित्र इसी माहौल की देन हैं। नाटकों कीे शुरुआत कोलकाता में कॉलेज के दौरान हुई। यही सिलसिला उन्हें दिल्ली ले गया, जहाँ वे नाटकों को जीते रहे। नूरजहाँ नाटक के बारे में वे कहते हैं कि नारीवाद पर यह नाटक मीठा थप्पड़ है। यह नूरजहाँ के पात्र से ही हो सकता था।



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