विकलांगों के मसीहा और जादुई कहानिकार अली बाक़र


(अली बाक़र से मेरी मुलाक़ात 2007 में हुई थी। शायद वह उनकी आख़री भारत यात्रा थी। उसके बाद उनके दुनिया से चले जाने की खबर आयी। उन दिनों उर्दू समाचार पत्र 'एतेमाद' के लिए लिया गया उनका साक्षात्कार  पेश है। इसमें बहुत सी पुरानी यादें हैं और उन यादों में बसा हैदराबाद और लंदन भी।)

हैदराबाद के एक प्रतिष्ठित घराने में आँखें खोलीं। पिता उन्हें अपनी ही तरह वकील बनाना चाहते थे, लेकिन में वकालत की शिक्षा अधूरी छोड़कर उन्होेंने मानव जाति के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उसमें शोध के नये पहलू तलाश किये कि जिससे न सिर्फ हिन्दूस्तान व यूरोप, बल्कि यू एन ओ में भी अपनी शख़ि्सयत का असर छोड़ा। साठ और सत्तर के दशक में। विकलांग बच्चों की कल्याण के लिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार के लिए काम किया और अपने देेेश के लिए जब इसी काम की ज़रूरत पड़ी तो उन्होंने अपने आपको पेश किया। एनआईएमएच `नेशल इंस्टीट्यूट आफ मेन्टल्ली हैंडिकैप, को हैदराबाद में स्थापित करने और विकलांगो के अधिकारों  के लिए क़ानून बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।। उर्दू साहित्य में एक कहानीकार के रूप में भी उनका नाम सम्मान से लिया जाता है।। लगभग 17 साल लंदन में गुज़ारने के बाद वो दिल्ली चले आये। जनवरी 2007 में जब वो हैदराबाद आये थे। उनसे उनके अपने बारे में बातचीत का अवसर मिला था। उसके चंद दिन बाद ही पता चला कि वो नहीं रहे। इस तरह यह उनका आख़री साक्षात्कार कहा जा सकता है। बातचीत के दौरान अली बाक़र ने अपनी यादों के जिन दरीचों को खोला था, वो यहाँ पेश हैं।
......

मेरी पैदाइश 18 मई 1927 को हुई। पूर्वजों का संबंध मोहसिनुल मुल्क से है, जो उत्तर भारत से हैदराबाद आये थे। उन दिनों बिलगराम से भी लोग आने लगे थे। अब्बाजान (पिताजी) मौलवी सैयद आफ़ताब हुसैन हैदराबाद के मशहूर सविल लायर(वकील) थे। मुसलिम विशेषकर शिया क़ानून पर उनकी पकड़ मज़बूत थी। उन दिनों आला हज़रत, बंदगाने अक़दस, हुज़ूरे अनवर नज़िाम(मीर उस्मान अली खान) उन्हें किंग कोठी बुलाते थे और फ़रमान तैयार करने के लिए उनकी ख़िदमत ली जाती। अब्बाजान ख़ास किस्म की शेरवानी दस्तार और कमरबंद के साथ वहाँ हाज़िर होते। आला हज़रत के पास से उन्हें एक रुपया भी मुआवज़ा नहीं मिलता था, लेकिन फ़रमान के साथ अख़बार में उनका नाम ज़रूर प्रकाशित होता था और अब्बाज़ान ख़ुशी-ख़ुशी अख़्बार के तराशे काट कर रख लेते थे।
मेरा दाख़ला चादरघाट स्कूल में कर दिया गया। उस वक़्त ये स्कूल काफ़ी शरीर क़िस्म के विद्याार्थियो की जगह बन गया था, ये अलग बात है कि मैं शरीर नहीं था। हाई स्कूल में उन दिनों सिकंदर अहमद, हुसैन ज़फ़र और सलाहुद्दीन ओवैसी साहब मेरे हम-जमात(सहपाठी) थे। सलाहुद्दीन ओवैसी साहब जमात में सबसे लंबे और मैं सबसे पस्ताक़द(नाटे क़द का) था। एक तस्वीर में आठवीं के विद्याा\थयों के साथ हम दोनों मौजूद हैं, वो तस्वीर अब भी मेरे पास मौजूद है।

स्कूल को छुट्टी 
ये स्कूल के ज़माने का वाक़िया है। मैं एक दिन ख़ुशी-ख़ुशी में स्कूल से घर आया। वालिद साहब के दफ़्तर में देखा कि राजा दीन दयाल के लड़के हुकुमचंद बैठे हुए थे। मैंने उनसे कहा कि कल स्कूल की छुट्टी है। हुकमचंद साहब ने कहा कि अगर ऐसा है तो वो सारा घर मिठाइयाँ और फ़लों से भर देंगे, दर असल उस दिन सालारजंग का इन्तेक़ाल हो गया था। मगर जब उन्हें छुट्टी का कारण मालूम हो गया तो वो काफ़ी अफ़सुर्दा हो गये। फ़िर भी अपने वादे के मुताबक़ि दुसरे दिन उन्होेंने मिठाइयाँ और फल बच्चों के लिए ज़रूर भिजवाई। सालारजंग का जब निधन हुआ तो उन्होेंने कोई भी वसियत नहीं छोड़ी थी। उन्होेंने बेइन्तेहा दौलत छोड़ी थी। विरासत की दावेदारी शुरू हो गयी थी। ये मुक़द्दमा वालिद साहब के पास ही आया था। उन्होेंने सभी को मश्विरा दिया कि अदालत के बाहर इस मसअले को हल किया जाए। वरना फ़ैसला आते-आते बरसों लग जाएंगे। फ़ैसला 92 पाार्टियों के दरमियान था। मेरे ख़ानदान में ज्यादा तर लोग वकालत के पेशे से जुड़े थे। मैंने भी लॉ कॉलेज में दाख़ला लिया। वैसे मेरी दिलचस्पी उसमें ज्यादा नहीं थी। वालिद साहब के साथ कई बार अदालत जा चुका था। वहाँ की कार्रवाई देखते हुए मुझे ऐसा महसूस होता है कि दो वकीलों और एक जज में कोई एक तो ग़लत होता ही है। वालिद साहब ने बहुत समझाने की कोशिश की कि ये पेशा है, लेकिन फाइनल का पेपर बिना परीक्षा लिखे ही चला आया। वालिद ये सुनकर परेशान हुए, लेकिन वे बड़े फराक़दिल(उदार) और प्यारे आदमी थे। उन्होंने छूट दे रखी थी कि जो चाहूं-सो करूँ। उसके बाद मैं ने आर्ट्स का रुख़ किया। डिप्लोमा इन सोशल वर्क में दाख़िला लिया। आर्ट्स कॉलेज के दिन ही अलग थे। बैतबाज़ी (शायरी में अंत्याक्षरी) के मुक़ाबलों में हिस्सा लेते थे। उस्मानिया विश्वविद्यालय की पत्रिका के संपादक मंडल में भी मुझे शामिल किया गया।

ऐतिहासिक हार
बैतबाज़ी के मुक़ाबलों में अकसर आर्ट्स कॉलेज की ही टीम जीतती थी। एक बार विमेन्स कॉलेज के दरबार हॉल मे बैतबाज़ी का मुक़ाबला था। आर्ट्स कॉलेज और विमेन्स कॉलेज में मेरे अलावा अफ़ज़ल मोहम्मद, मोहम्मद यूसुफ़ुद्दीन खान और कुछ लड़कियाँ भी थीं। हॉल लड़कियों से खचाखच भरा हुआ था। मुझे पूरी उम्मीद थी कि हमारी ही टीम जीतेगी। इसलिए मैंने अपनी बहनों को बता दिया था कि मैं जैसे ही स्टेज से उतरूँगा अाटोग्राफ ले लेना। उसके लिए उन्हें बाज़ब्ता क़लम और आटोग्राफ बुक खरीदकर दिये थे। मुक़ाबला शुरू हुआ। आख़री शेर की बारी थी।`य'  के लगभग जितने शेर याद थे ख़त्म हो गये थे। शेर हमारी टीम को कहना था। मैंने कहा -
यूँ तो छोटी है ज़ात बकरी की 
दिल को लगती है बात बकरी की 
इस शेर पर काफ़ी हूटिंग हुई। ज़ीनत आपा(विख्यात साहित्यकार प्रो. ज़ीनत साजिदा) सदारत कर रहीं थी। दूसरी जानिब सफ़िया अरीब(सुलैमान अरीब की पत्नी) थी। ज़ीनत आपा ने कहा,`तुम को शर्म नहीं आती, इस तरह का शेर कहते हुए।' मैंने जवाब दिया, यह शेर इक़बाल का है, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। लड़कियों की ही हिमायत की गयी। स्टेज से उतर कर देखा तो दोनों बहने ग़ायब थी। दुसरे दिन अख़बारों में ख़बर थी कि तालियों की गूंज में अली बाख़र की टीम की हार का ऐलान किया गया।
उन्हीं दिनों मेरी मुलाक़ात जेल विभाग के इन्स्पेक्टर जनरल  कपाडिया साहब से हुई। उन्होंने क़ैदियों कल्याण का काम मुझे संभालने को कहा। तजुर्बे के तौर पर एक प्रोजेक्ट शुरू किया गया। यह एक अर्ध-सरकारी काम था, लेकिन उस प्रोजेक्ट की वज्ह से मुझे पहली बार विदेश जाने का मौक़ा मिला। यूएनओ का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन अपराध की रोकथाम के विषय पर लंदन में आयोजित होने जा रहा था। हिन्दूस्तान भर से दो लोग उसमें शामिल हुए। मैं और टाटा इंस्ट्ट्यूट आफ साइंसेस के डायरेक्टर।

मुर्दों के साथ बिताई छुट्टियाँ
यूएनकी कान्फ्रेंस से वापिस आने के बाद मैंने सोचा कि क्रिमनोलोजी पढ़नी चाहिए और पीजी डिप्लोमा करने के लिए आक्सफर्ड यूनिवार्सिटी में दाख़ला ले लिया। इत्तेफ़ाक़ यह हुआ कि यहीं पर पीजी डिग्री में भी दाख़ला मिल गया। देखा जाए तो हैदराबाद में क़ैदियों के कल्याण के काम से ही मैंने अपनी अमली ज़िन्दगी की शुरूआत की थी और यहीं ज़हन में एक बात घर कर गयी कि ऐसे लोगों के लिए कुछ करना चाहिए, जिन्हें मदद की ज़रूरत है। लंदन में साइकालोजी के प्रोफेसर हेनरी से मेरी संबंध अच्छे हो रहे। उन्होेंने मुझे आक्सफोर्ड़ की सिटी कान्सिल में शामिल किया, जहाँ मुझे काम करने का मौक़ा मिला। यह वह दौर था, जब काले लोगों के साथ गोरों का अच्छा सुलूक नहीं था। हिन्दूस्तान, पाकिस्तान से लोग आने लगे थे। आठ सप्ताह की शिक्षा के बाद सप्ताह की छुट्टी होती थी। हम जैसे ग़रीब विद्यार्थी, छुट्टियों में काम करके अपना खर्च निकाल लेते थे। मैंने जब काम की तलाश की तो सिटी कौन्सिल ने देखा कि मैंने साइंस पढ़ी है तो मुझे डिस्पेन्सरी में काम दिया। सोच यही थी कि काले लोगों को ख़राब से ख़राब काम दिया जाए। बेहतर काम की तलाश में मुझे मुर्दाख़ाने का काम मिला। हुआ कुछ यूँ कि मुझे 25 हफ्ते की छुट्टियाँ मिल गयी थीं, काम देने से पहले मुझसे पूछा गया,`मरे हुए लोगों के बारे में तुम्हारी क्या राय है?'
मैंने जवाब दिया,`मैं उन्हें अक़ीदत (श्रृद्धा) से देखता हुँ।'
इस तरह मुझे मुर्दा ख़ाने का मुहाफ़िज़(रक्षक) बना दिया गया। उससे पहले। जो अँग्रेज़ वहाँ काम करता था, वो मुर्दों के साथ अच्छा सुलूक नहीं करता था, इसलिए लोग उससे नाराज़ रहते थे। वहाँ दो दिन तक मैं खाना नहीं खा सका। उसके बाद हालात से समझौता कर लिया। मैं सैंडविच अपने साथ ले जाता और मुर्दों के साथ बात करते हुए वक़्त गुज़ारता। यह एक तरह का ब्लैक ¿ाèमर था। उर्दू मीडियम से शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने आपको आक्फोर्ड के माहौल में ढ़ालना आसान नहीं था, लकिन इसमें कामियाबी मिली। पाँच साल के बाद मैं वापिस हिन्दूस्तान चला आया।


गोरी मेम इन्तेज़ार 

हिन्दूस्तान वापिस आने के बाद मुझे एक नौकरी मिल गयी थी। सेन्टर फार दि स्टडी आफ डेवल्पिंग सोसायटी उन्हीं दिनों क़ायम हुआ था। म़र्जी का काम तो नहीं था, लेकन रिसर्च का काम था। अच्छी नौकरी के बाद घर के लोगों को मेरी शादी की फ़िक्र हुई। पहले तो लोगों ने ये सोचा कि पाँच साल लंदन मे रहा हो तो कोई गोरी मेम आती होगी, लेकिन काफ़ी वक्त गुज़रने बाद भी कोई मेम नहीं आयी। एक दिन मैं नसीमा आपा के साथ घर आ रहा था कि उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया। `आखिर तुमको कैसी लड़की के साथ शादी करनी है।' मैंने कहा,`पढ़ी लिखी हो, अगर मुझे कुछ हो जाए तो बच्चों को पढ़ा लिखा सके, रौशन ख्याल हो, सूरत शकल से अच्छी हो। हम से मिलती-जुलती हो। न इतनी ख़ूबसूरत हो कि मुहल्ले भर के लोग घर में आ बैठे और न ऐसी कि मैं मुहल्ले वालों के घर में जा बैठूँ।'
आपा ने कहा, `ज़रा गाड़ी रोको।'
और वो मुझे वहीं छोड़ कर सैयदा ज़हीर के घर में चली गयी। उनके और हमारे परिवार में अच्छे संबंध थे। उन्होंने सैयदा ज़हीर साहेबा से हुसैन ज़हीर साहब के भाई सज्जाद ज़हीर साहब (विख्यात प्रगतिवादी लेखक)की लड़की से रिश्ते की बात की।
रज़िया सज्जाद ज़हीर साहेबा ने कुछ शर्ते रखीं। मुझे अलग से लेजाकर कहा,`अगर तुम पैसों के लिए शादी कर रहे हो तो हमारे पास पैसे नहीं हैं। सज्जाद ज़हीर साहब, कभी 200 रुपये से ज्यादा कमाते नहीं हैं। हमारी लड़की पी. एच.डी कर चुकी है। वो अगर कहीं काम करना चाहो तो रोकोगे नहीं। बाहर जाने का मौक़ा मिले को रोकोगे नहीं।
इस तरह दिल्ली में सड़क के किनारे एक छोटी सी तक़रीब में मेरी शादी हुई। उसमें शहर के काफ़ी बड़े, बड़े लोग शरीक थे।
यह इमेज उनकी उर्दू किताब लंदन के रात दिन के एक प्रष्ठ की है, जिस पर उन्होंने अपनी खूबसूरत उर्दू तहरीर में मेरे नाम अपने ऑटोग्राफ किये थे।

दोबारा लंदन का सफ़र 
नजमा(पत्नी) को लंदन यूनिवार्सिटी में अवसर मिला गया था, लेकिन उनकी माँ ने कहा कि वो अकेली नहीं जाएँगी। इसलिए मैंने ये सोच कर एक साल की छुट्टी ली कि एक साल रह कर लौट आएँगे, लेकिन वक़्त गुज़रता गया और मुझे ऐसा काम मिला, जहाँ कुछ कर दिखाने का अवसर था। इस काम में मुझे भी दिलचस्पी थी। वहाँ के अस्पतालों में विकलांग बच्चों के साथ अच्छा सुलूक नहीं हो रहा था। अख़बार इसके बार में लिख रहे थे। वहाँ की सरकार ने इन स्थितियों में सुधार के लिए एक समिति का गठन किया था। इस समिति में मुझे सलाहकार के रूप में शामिल किया गया था। सात इलाक़ों में 10 अस्पतालों का चयन किया गया। ये काम मेरे लिए काफी महत्वपूर्ण था। इसी के तहत जिनेवा में एक कांफ्रेन्स में भी मैंने हिस्सा लिया। मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की हालत में सुधार और उनके साथ अच्छे व्यवहार के लिए एक रिपोर्ट तैयार करके सरकार को सौंपी। इंग्लैंड की सरकार ने इस रिपोर्ट को स्वीकार भी कर लिया। रिपोर्ट के अनुसार, विभिन्न स्थानों पर ऐसे बच्चों के लिए अस्पताल खोले गये।
काम के दौरान घर पर बड़ी-बड़ी कारें घर पर लेने आती थीं। उन्हें देख कर वालिद और सज्जाद ज़हीर दोनों पूछते कि मैं काम क्या करता हूँ? एक बार तो वालिद क़लम लेकर लिखने भी बैठ गये थे। मैं हमेशा उनकी बातें टाल जाता था। भारत सरकार ने विकलांगों के लिए राष्ट्रीय संस्थान स्थापित करने के लिए एक रिपोर्ट तैयार करने का निर्णय लिया था। इसके लिए भारत सरकार ने इंग्लैंड से कुछ विशेषज्ञों का सहयोग पूछा था। मुझे इस काम के लिए चुना गया। मुझे खुशी थी कि मैं अपने देश के लिए कुछ काम आ सकूँ। मैं चाहता था कि यह काम केवल एक समिति और उसकी रिपोर्ट तक सीमित ना रहे, इसलिए मैंने शर्त रखी कि इस समिति में तीन से अधिक लोग नहीं रहेंगे। हुआ ऐसा ही। देश भर में घूम फिर कर समस्याओं का गहन अध्ययन किया गया। गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भी अनुरोध किया था कि यह संस्थान गोवा में हो। उनकी भावना को समझा जा सकता था। उनाका एक पुत्र मानसिक रूप से कमज़ोर था। मैं चाहता था कि संस्थान हैदराबाद में हों, हालांकि लोगों ने इस बात की शिकायत भी की कि मेरा संबंध हैदराबाद से होने के कारण यह सिफारिश की जा रही है। भारत सरकार ने भी उस सिफारिश को मंजूर कर दिया।
एक दौर ऐसा भी था कि लोग विकलांगों के बारे में सोचते भी नहीं थे। आज हालात बदले हैं। लोग उनके बारे में सोचने लगें हैं। सरकारोेंं की नीतियाँ बदली हैं। जब मैंने काम शुरू किया था तो वो हैदराबाद में तीन सौ क़ैदियों तक सीमित था, लेकिन जब विकलांगों के लिए काम करना शुरू किया तो लाखों लोगों को इसका लाभ पहुँचने लगा। भारत में विकलांगों के अधिकारों की लड़ाई में महत्वपूर्ण सफ़लता यह मिली कि उसके लिए विधेयक लाया गया और कानून बन पाया। हालाँकि यह काम मुश्किल था, लेकिन कोई भी सफ़लता रातों रात नहीं मिलती। केवल चमत्कार की कामना करने से कोई काम नहीं होता। काम करते रहेंगे तो परिणाम भी आते रहेंगे। विशेषकर वो काम जो दूसरों के लिए किये जाते हैं।...लोगों को विकलांगों के अधिकारों के बारे में भी सोचना चाहिए। केवल सरकारी नीतियों से कुछ नहीं होता, उस पर अमलावरी भी ज़रूरी है।

शायरी छोड़ दी 
लिखना तो आदमी शुरू से ही करता है, जब वो ख़त लिखता है। घर में लिखने पढ़ने का माहौल था। मरसिया सलाम पढ़ते थे। शायरी और ज़बान की अहमियत थी। अपने तजुर्बात और एहसासात को जब हम दूसरों तक पहुँचा सकने के क़ाबिल हो जाते हैं। वहीं अदब पैदा होता है। जहाँ तक ख़त लिखने की बात है, मैं अपनी बहन की रुख़्तसी के वक़्त अजीब हालात से गुज़रा। यहाँ से लंदन जाते ही मैंने उसको ख़त लिखा। उस दिन से आज तक शायद कोई 23 अक्तूबर नहीं गुज़री , जब मैंने उनको ख़त ना लिखा होगा। यह दिन उसके विवाह की सालगिरह होती है। उन ख़तों में ख़ैर ख़ैरियत के अलावा रिश्तों, घटनाओं और ज़िन्दगी के अलग-अलग पहलुओं पर बात होती। उन्होेंने उन सब ख़तों को संभाल कर रखा है। मैंने पहले नज़्में लिखना शुरू की थीं। यह देख कर वालिद साहब ने कहा,`तुम में वो शय-ए-लतीफ नहीं है और वो कौन्सा शायर है जो मुफ़लिस नहीं रहा। हालांकि मैं इतना बुरा भी नहीं कहता था।
शफ़क़ के आईने में
चाँद के पहले
समंदर में
जिधर देखू कोई
रंगों की चिलमन से निकल आये
कोई पूछे
अगर मुझसे
कि कैसे हो
अली बाक़र
तो सिर रख कर
मैं कांधे पर
बमुश्किल कह कहूँ इतना
वो आईना है
उससे पूछ लो
हाले दिल मेरा
मैंने अपने शायराना मज़िाज़ को अफ़सानों में ढ़ाला। शायद इसी लिए लोग उनको शायराना नस्त्र(गद्य) कहते हैं।


एम एफ़ हुसैन से मुलाक़ात

एम एफ़ हुसैन साहब से मेरी दोस्ती लगभग 40 साल पुरानी है। उनसे पहली मुलाक़ात लंदन में बड़े दिलचस्प अंदाज़ में हुई । वो एक स्टूडियो में तस्वीर बना रहे थे और कुछ अँग्रेज़ लड़कियाँ उनको घेरे हुए थीं। उनका इरादा था कि हुसैन साहब से मुफ़्त में तस्वीरें हासिल कर लें। मैं उसी वक़्त वहाँ पहुँचा था। हुसैन साहब ने मुझे देखा और शायद ये समझा कि मैं उनकी मदद कर सकता हूँ और मैंने उन लड़कियों को कुछ इस तरह डांटा कि वो स्टूडियो से बाहर निकल गयीं। हुसैन साहब से उसके बाद अकसर मुलाक़ातें होती रहीं। उनकी ज़िन्दगी पर एक अफ़सानवी किताब लिखने का सिलसिला पिछले तीन बरसों से चल रहा है। (यह काम अधूरी ही रह गया, क्योंकि इसी दौरान उनकी मौत हो गयी)
लोेग हैदराबाद के बारे में पूछते हैं तो क्या बताऊँ!
यादें आ-आ के लिपट जाती हैं दामन से मेरे
कैसे बतलाऊँ कि किस-किस से हया आती है
दोस्तों के साथ हमीदिया के सामने चायख़ाने पर बैठना। दोस्तों के अलग-अलग ग्रूप थे। मैंने दुनिया के लगभग 25 देश देखें हैं और वहाँ की तहज़ीब भी, लेकिन यहाँ कि रवादारी (उदारता) और गंगा जमुनी तहज़ीब कहीँ और नहीं है। शायद ये उर्दू और दरबारी तहज़ीब की देन है। अगर किसी को ग़लती से पैर लग जाए तो वो वो ख़ास अंदाज़ से हाथ से छूकर भी माफ़ी मांग लेगा। ये माहौल उत्तर भारत में कहीं नहीं मिलता। औरतें जिस तरह अपने आपको संवारती है, यह सब तहज़ीब का हिस्सा ही तो है। हिन्दू मुसलिम घरानों में मेल मिलाप ..किसी के सिखाने और तक़रीर से नहीं पैदा हुआ है, बल्कि इसी तहज़ीब की देन है। माना शहर की सड़कें  अब बहुत तंग हो गयी हैं। उसमें पहले जैसे विस्तार नहीं रहा है, फिर भी लोगों के दिल अब भी कुशादा है। हैदराबाद ग़रीबों , विधवाओँ और बीमारों की मदद के लिए  जान जाता है ।

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