तीन पंक्तियों की तलाश

 देखना मेरी ऐनक से


मूर्तिकाल राधाकृष्ण की एक कलाकृति
दुनिया को देखने का एक अलग अंदाज
आखिर क्या ढूंढते रहते होएक मित्र का अचानक पूछा गया यह सवाल पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि कोई बार-बार दोहरा रहा है, और पूछता रहता है कि किस बात की तलाश है, क्या चाहिए, क्यूँ भटकते रहते हो और जब यही सवाल अपने आपसे पूछता हूँ तो बड़ा दिलचस्प जवाब मिलता है। तीन पंक्तियों की तलाश है, जो सुकड़ती हैं तो दो और कभी कुछ बढ़ जाती हैं तो चार से पांच पंक्तियों तक फैल जाती हैं। पत्रकारिता की भाषा में इसे लीड या इंट्रो कहते हैं। वह भूमिका जो किसी भी समाचार के लिए बांधनी है। लीड़ जिससे सुर्खियाँ बनती हैं। सुर्खियाँ जो समाचार पत्र के पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, जिसमें एक दुनिया बसी होती हैं और उसी दुनिया के बाज़ार से निकल आते हैं समाचार। 
एक पत्रकार की दिन भर की कमाई बस यह लीड ही होती है। इन तीन पंक्तियों के बिना उसकी दिन रात की मेहनत किसी काम की नहीं। और तीन पंक्तियाँ भी ऐसी कि जिसमें नयी, आकर्षक, ज़ोरदार, चटखारेदार, मसालेहदार, दमदार और न जाने कितने....दार की विशेषता होती है। अगर उसमें ऐसा न हो तो वह लीड बेकार है। इसके बिना खबर लिखी भी जाती है तो किसी कोने में, कहीं पड़ी रहती है। चाहे वह किसी नेता का भाषण हो या फिर ज़रूरतमंद नागरिकों को समय पर न मिलने वाला राशन, किसी कलाकार का पेंशन हो फिर नवोदित या पीरिचित डिज़ाइनर का नया फैशन, हर चीज़ को छपे हुए रंगीन पृष्ठों की ज़ीनत बनाना हो तो उन तीन-चार पंक्तियों की ही ज़रूरत होती है, जिससे बात शुरू की जाए।
आज ईमेल, वाट्स एप और एसएमएस का ज़माना है। उसकी अपनी भाषा है, लेकिन एक ज़माना वो भी था, जब एक पत्र लिखना हो तो कई पृष्ठ लिख-लिख कर फाड़ना, बल्कि फाड़ते चले जाना मामूली बात थी। जब तक कि फटे, लिपटे, मुढ़े हुए काग़ज़ों का ढ़ेर पास में पड़ा न हो ख़त लिखने का मज़ा ही नहीं आता था। उस समय यह ढेर और बड़ा हो जाता था, जब लिखने वाला प्रेमी या प्रेमिका की भूमिका में हो। उस समय न कंप्युटर था न मोबाइल फोन और न डिलिट करने की कोई सुविधा। एक ही काम हो सकता था, काग़ज़ पर लिखी पंक्तियाँ अगर संतुष्ट करने वाली न हों तो उसे फाड़कर रद्दी की टोकरी के हवाले किया जाए और दूसरे काग़ज़ पर फिर से लिखा जाए। आश्चर्य इस बात का है कि ज्यादातर काग़ज़ शुरू की उन्ही तीन-चार पंक्तियों के लिए फटा करते थे। जब भूमिका लिखी जाती तो फिर विस्तार में अधिक समस्या नहीं होती।


ज़िंदगी भी समाचार के लीड़ की उन तीन-चार पंक्तियों की तरह ही है, जो कभी आसानी से मिल जाती है और कभी उसे मुश्किल से ढूंढ निकालना पड़ता है। कभी तो जो कुछ है, उसी में कुछ को महत्वपूर्ण बनाना पड़ता है। सूरज हर दिन सुबह जगह बलदकर निकलता है। रात के बाद सुबह का मैसेज देने वाली सूरज की किरणें बताती हैं कि नींद से जागने के बाद फिर से नयी ज़िंदगी मिली है। वह कल की तरह पुरानी नहीं है। इसमें कुछ नया ढूंढना है। यह बोरिंग बिल्कुल नहीं होना चाहिए।  नीरसता के तत्वों को इसमें कोई जगह नहीं है। ऐसे ही जैसे हर सुबह एक नयी न्यूज़ की तलाश में निकल पड़ने वाले पत्रकार को हमेशा यह उम्मीद बंधी रहती है कि उसे न्यूज़ की लीड मिल ही जाएगी। रोज़ की सी दिखने वाली चीज़ों में भी वह नये रंग भरता है। नयी पंक्तियाँ तलाश करता है।

Comments

  1. Saleem Bhai pahli baar prima facie aapka Blog dekha. Achchha laga.

    Aapka
    Abdul Hameed Khan
    Assistant General Manager
    NABARD, Hyderabad.

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