घर से तो अच्छे ही कपड़े पहन के निकले थे


 देखना मेरी ऐनक से...

उस दिन शहर की एक स्टार होटल में एक फिल्म निर्देशक का इंटरव्यू करके कमरे से बाहर निकला था। पांचवीं मंज़िल से नीचे उतरना था। लिफ्ट का रुख किया और लॉबी का बटन दबाया। चौथी मंजिल पर लिफ्ट रुकी और दरवाज़ा खुला तो सामने का दृष्य असहज करने वाला था। एक युवती खड़ी थी। महसूस हुआ कि वह वार्डरोब जाने के बजाय ग़लती से लिफ्ट की ओर आयी है। यह कोई नयी बात नहीं थी। आये दिन इस तरह के दृष्य होटलों पबों और पार्टी स्थलों के आस पास देखने को मिलते हैं, लेकिन लगा कि यह दृष्य पता नहीं क्यों ज़हन से निकल नहीं पा रहा था। ज़हन को टटोला तो दो दिन पहले की घटना याद आयी। गोशामहल में प्लाइउड की एक दुकान पर उनके मालिक अग्रवाल साहब से बातचीत के दौरान जब नई पीढ़ी की आज़ाद रविश पर चर्चा होने लगी तो अचानक उनके लबों पर एक अंजाने दर्द और चिंता की मिली जुली प्रतिक्रिया थी।
अग्रवाल साहब की यह चिंता उनकी अकेले की चिंता नहीं है, बल्कि एक सभ्य समाज की दो पीढ़ियों की बीच के वैचारिक संघर्ष को दर्शाने वाली महत्वपूर्ण कड़ी है। उन्होंने बताया कि वे अपनी पत्नी के साथ शहर की एक लक्ज़री होटल में अपने मित्र की पार्टी में भाग लेने गये थे। जब वे पार्टी से बाहर निकल रहे थे तो उन्हें पब के पास से होकर गुज़रना था। सामने खड़ी कुछ युवतियों को देखकर उन्होंने भी असहज महसूस किया। उनकी पत्नी भी लड़कियों के पहनावे को देखकर अचंभे में थीं। दोनों ने एक दूसरे को वहाँ तो कुछ नहीं कहा, लेकिन जब घर की ओर निकले तो उन्हें उतनी ही उम्र के अपने बच्चों की चिंता सताने लेगी। पति ने समझाया ये लड़के लड़कियाँ यहाँ के नहीं हैं, नौकरियों के लिए दूसरे शहरों से यहाँ आते हैं और फिर उन्हें कोई समझाने वाला नहीं होता, शायद इसलिए वे इस तरह अपना पैसा और समय बर्बाद कर रहे हैं।
पत्नी ने भी अपने आपको समझाते हुए कहा, हो सकता है, अपने बच्चे ऐसे न हों, वो तो घर से अच्छे ही कपड़े पहन के निकलते हैं।... यह किसी एक पब, होटल या शहर की बात नहीं है, बल्कि तेज़ी से विकास की ओर आगे बढ़ते हर शहर की रगों में इस तरह की संस्कृति का खून मिश्रित होने का प्रयास करता रहा है, लकिन जब यह संस्कृति बंद दरवाज़ों से बाहर निकलकर सभ्य समाज से टकराने लगती है तो वहाँ पीढ़ियों के बीच का संघर्ष और बढ़ जाता है। आज सोशल मीडिया के दौर में इस टकराव को व्यक्तिगत आज़ादी और सोशल पुलिसिंग के बीच का टकराव कहा जाता है और बहुत जल्दी टीका टिप्पणी करने वाले लोग खुद बड़ी टिप्पणियों का शिकार हो जाते हैं। दर असल यह समस्या पूरे समाज की है भी नहीं। हाँ इतना ज़रूर है कि यह समस्या ज़माने की तेज़ रफ्तार दौड़ के बीच अपने क़दम मज़बूती से न रखकर अंजाने बहाव में बह जाने वाली युवा पीढ़ी की है, जो न बच्चे हैं और न बड़े बन पाये हैं। समाज में इस तरह की कुछ चीज़ें कभी कभार आ भी जाती हैं, लेकिन समाज खुद उन्हें रिफाइन करने लगता है। फिर भी जब बाज़ार घर और जेब में घुस आये तो ऐसी चीज़ों को जाने में देर ज़रूर लगती है।
हैदराबाद के मशहूर उर्दू पत्रकार और लेखक अख़तर हसन का परिवार पिछली सदी के तीसरे और चौथे दशक में प्रगतिशील विचारधारा के लिए हैदराबाद ही नहीं, देश के साहित्य जगत में खास पहचान रखता था। हैदराबाद में मुस्लिम समुदाय में अभी बुर्क़े की संस्कृति उतनी आम नहीं हुई थी। शहर की लगभग महिलाएँ जब बाज़ार निकलतीं तो चादरों का उपयोग करती थीं। अख़तर हसन की बड़ी बहन जो बाद में बाजी के नाम से मशहूर हुईँ और साहित्यिक और राजनीतिक हल्कों में उनका दबदबा रहा, वह उस्मानिया विश्वविद्यालय में पहली ऐसी छात्रा थीं, जिन्होंने चादर ओढ़ना बंद कर दिया था, लेकिन उनका दुपट्टा और कपड़े पहनने के सलीक़े ने समाज में उनकी एक सम्मानजनक छवि बना दी थी। एक बार जब उनसे मुलाक़ात में इस संबंध में बातचीत हुई, तो बाजी ने साफ कहा था, बेटा आज़ादी और बेशर्मी में बहुत फ़र्क़ है। फिर उन्होंने कई सारे महिला पुरुषों के नाम लिये थे, जो अपने कपड़े पहनने के सलीक़े से समाज में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे। ..बात बिल्कुल सही लगी, क्योंकि कपड़े पहनने का मामला तो व्यक्तिगत है, लेकिन यह भी याद रहे कि वह मनुष्य की सभ्यता का हिस्सा भी है।

Comments

Popular posts from this blog

बीता नहीं था कल

सोंधी मिट्टी को महकाते 'बिखरे फूल'

कहानी फिर कहानी है