अच्छी तरह से जानने का दुख

देखना मेरी ऐनक से...


दुनिया गोल तो है ही, बहुत छोटी भी है। जब कभी थोड़ी-सी फुर्सत में हम दोस्तों में एक दूसरे से बातचीत करते हुए तीसरे का जिक्र निकल आता है और पता चलता है कि एक से दूर रहने वाले बहुत से चेहरे दूसरे के कुछ क़रीब के हैं, तो लगता है कि दुनिया सचमुच में छोटी है। उसके इस छोटेपन में आदमी के बड़े होने का राज़ छुपा हुआ है। आदमी जब बड़ा होता जाता है तो दुनिया छोटी होने लगती है और दुनिया बड़ी होने लगती है तो आदमी छोटा।
फलकनुमा पैलेस से हैदाराबद की एक शाम
बच्चा बड़ा होने लगता है तो प्रश्न करने लगता है। कई बार माता पिता बच्चे के प्रश्नों के उत्तर देते हुए खुशी महसूस करते हैं, लेकिन जब प्रश्न बढ़ जाते हैं तो उन्हें भी झुंझलाहट होती है और गोलमोल-सा जवाब देकर बच्चे को खामोश करने की कोशिश की जाती है। यही माँ बाप कभी-कभी इस चिंता से ग्रसित भी होते हैं कि बच्चा कहीं अधिक न जान जाए। फिर जब वह बड़ा होता है तो माँ बाप चाहते हैं कि वह अधिक से अधिक जान जाए, इस दुनिया के बारे में। ताकि दुनिया उसके सामने छोटी होती रहे। कुछ नया जान पाने की खुशी भला किसे नहीं होती। दुनिया से जान पहचान के इसी चक्कर में हम कभी कुछ ऐसा भी जान जाते हैं, जिससे हमें दुख होता है और कह उठते हैं कि यह न जानता तो ही अच्छा था।
अहमद नदीम क़ासमी का एक अफ़साना(काहनी) याद आ रहा है। गोरकन(कब्र खोदने वाला) की बेटी को उस सूचना से काफी खुशी होती है, जिसमें उसे पता चलता है कि किसी की मौत हो गयी है। क्योंकि इससे उसके पिता को रोज़गार मिलेगा और उसके घर खाने-पीने की कुछ चीज़ें आएंगी। आये दिन मिलने वाली सूचना की तरह ही उसे एक दिन एक व्यक्ति की मौत की सूचना मिलती है, पहले तो वह खुश होती है, लेकिन जब उसे पता चलता है कि मरने वाला उसका अपना पिता है तो उसे मौत के बारे में मालूम होता है और इस नये अर्थ को पाने पर उसे दुःख होता है।
अधिक जान पाने का दुःख भी बड़ा अजीब है। यह प्रक्रिया आदमी की बढ़ती उम्र के साथ शुरू होती है। ज़िंदगी में जब हम कभी अपने से ज्यादा किसी और में दिलचस्पी लेने लगते हैं तो उस दूसरे आकर्षण के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने की चाह होती है। उस आकर्षण को समझने का प्रयास करने लगते हैं। इस समझने में आकर्षण ही नहीं एक अजीब तरह का सुख भी होता है। नाम, पता, व्यक्तित्व और उसके नये-नये पहलु जानते हुए हर पहलु पर नयी तरह की खुशी और दिल को अलग तरह का सुकून, जिसके बारे में हम सोचने लगते हैं कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, लेकिन कभी-कभी सुख की सुबह को लेकर निकले उस सूरज के साथ जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते रहते हैं, दुःख की शाम हमारे इंतेज़ार में खड़ी रहती है और हम जो किसी को समझने, जानने या जान जाने के पीछे दौड रहे थे, वही जी का जंजाल बन जाता है।
गुरुदत्त की फिल्म काग़ज़ के फूल का एक संवाद याद आ रहा है। नायक को जब एहसास होता है कि जो नायिका उसे बहुत अच्छे से समझने लगी है, उसे इसके बदले दुःख ही मिला है, वह कह उठता है, कभी-कभी लोग एक दूसरे को इतनी अच्छी तरह क्यों समझने लगते हैं, क्यों...काश कि ऐसा न होता।
दुनिया रुकती नहीं है। चाहे उसे कोई जान जाए या न जान पाए, उसका चक्कर तो चलना ही है, लेकिन न जान कर खुश होने से जान जाने के दुःख का स्वाद अलग ही होता है।

Comments

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  3. सर. पढ़ा तो पढ़ते चला गया. सलीम सर के लेखों को पढ़ना, अपनी अभिव्यक्ति क्षमता का विकास करना

    ReplyDelete
  4. सर. पढ़ा तो पढ़ते चला गया. सलीम सर के लेखों को पढ़ना, अपनी अभिव्यक्ति क्षमता का विकास करना

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

बीता नहीं था कल

सोंधी मिट्टी को महकाते 'बिखरे फूल'

कहानी फिर कहानी है