हिन्दी के पाठक वर्ग में अपने लेखक को पालने की प्रवृत्ति नहीं है : पंकज प्रसून

पंकज प्रसून पेशे से वैज्ञानिक हैं। वे केंद्र सरकार के लखनऊ स्थित केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान में तकनीकी अधिकारी हैं, लेकिन हिन्दी के काव्य मंचों पर एक व्यंग्य कवि के रूप में तथा पत्रिकाओं में व्यंग्य लेखक के रूप में भी वे जाने जाते हैं। रायबरेली जिले के सहजोरा गाँव में जन्मे गोंडा में पले-बढ़े पंकज शुक्ला की साहित्य में रुचि शुरू से ही थी। कवि के रूप में बाद में वे पंकच प्रसून कहलाए। विज्ञान में स्नातकोत्तर की उपाधि आर्जित करने के बाद वे सीडीआरआई से जुड़ गये। सरकारी सेवा में नियुत्त होने के बाद भी उनका लेखन जारी रहा और इसी लेखन के कारण आज वे देश के उन बहुत कम युवा व्यंग्यकारों में जाने जाते हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं से पाठकों को प्रभावित किया है। हाल ही में हिन्दी दिवस के अवसर पर एनजीआरआई ने उन्हें विशेष रूप से आमंत्रित किया था। इस अवसर पर साहित्य पठन-पाठन की वर्तमान स्थिति पर उनसे गुफ्तगु हुई।  पंकज प्रसून से हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं... 
विज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा और सेवा के दौरान साहित्य से कैसे जुड़ना हुआ?
घर और गाँव में साहित्यिक माहौल था। यूँ तो ज़िला रायबरेली भी साहित्यिक हस्तियों के लिए मशहूर रहा है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मलिक मुहम्मद जायसी जैसे लोगों का संबंध रायबरेली से है। तुकबंदी करने का शौक मुझे बचपन से था। मैं अपनी डायरी में लिखता था, लेकिन किसी को दिखाने या सुनाने की हिम्मत नहीं होती थी। एक बार गाँव आया, तो मेरी डायरी पिताजी के हाथ लगी। उसमें लिखी कविताएँ उन्होंने पढ़ीं। उनके पूछने पर मैंने बताया कि मैंने ही लिखी हैं, तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने समझा कि मैंने वह इधर-उधर से कॉपी की है। पड़ोस में एक साहित्यकार रहते थे, कालिका बख़्शजी। पिताजी ने वह डायरी उन्हें बतायी। मैंने उन्हें भी बताया कि यह डायरी मेरी ही है और वह कविताएँ मैंने ही लिखी हैं। उन्होंने इसकी प्रमाणिकता के लिए एक लाइन दी और कहा कि इस पर कविता लिखो। परीक्षा की घड़ी थी। मैंने उस पंत्ति को कविता में बदला, तो वे आश्चर्यचकित हुए और दूसरे दिन गाँव के सारे साहित्यकारों को बुलाया और एक काव्य गोष्ठी रखी, जिसमें मुझे विशेष रूप से सुना गया। इसके बाद गाँव के वाार्षिक कवि सम्मेलन में भी मेरा नाम रखा गया। दसवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान उस पहले कवि सम्मेलन में मैंने हिस्सा लिया था। यह बात सही है कि मैंने स्नातक और स्नातकोत्तर में विज्ञान विषय में पढ़ाई की, लेकिन कोर्स की किताबों के अलावा मैं दिनकर, निराला और बहुत सारे कवियों और साहित्यकारों को पढ़ता था।


आपने व्यंग्य ही क्यों चुना?
बारहवीं कक्षा के बाद जब मैं लखनऊ आया, तो मैंने पाया कि मैं साहित्य में बहुत सारी विधाओं में लिख रहा हूँ, लेकिन किसी एक विधा में अपनी पहचान बनानी चाहिए। इसलिए मैंने अपने दोस्तों की सलाह पर व्यंग्य कहना शुरू किया और बाद में यही मज़िाज बन गया। व्यंग्य में मुझे अधिक सुविधा लगती थी। लखनऊ से एक पत्रिका प्रकाशित होती है ‘अट्टहास’। उस समय वर्ल्ड कप में इंडिया हार गयी थी। मैंने उसी पर एक रचना लिखी थी। उनके कहने पर मैंने मौसमी रंगत शीर्षक से काव्य कॉलम लिखना शुरू किया। मैंने व्यंग्य में भी परंपरागत पत्नी को लेकर जो हास्य-व्यंग्य था, उसके स्थान पर सत्ता पर व्यंग्य लिखने को परथमिकता दी और कोशिश की कि वह चुटकुलेबाज़ी से कुछ अलग हो। मैंने कहानियाँ भी लिखी हैं, जो भी व्यंग्य प्रधान हैं। जब कोई बात कविता में नहीं कर पाता हूँ, तो कहानी या लेख लिखता हूँ।

कविता के बारे में कहा जाता है कि जब आप कोई बात गद्य में नहीं कह पाते हैं, तो कविता में उसे कहा जाए, लेकिन आपका हिसाब उलटा है। इस पर क्या कहेंगे?
यह कविताओं की परिभाषाओं में से एक है, लेकिन मुझे महसूस हुआ कि कविता में हम वैयक्तिक होते हैं। हम हमारे अनुभवों को अभिव्यत्त करते हैं, लेकिन गद्य में व्यवस्था के भीतर के आंकलन को भी प्रस्तुत किया जा सकता है। कहानी के संवाद इसमें भावों के विशेष संवाहक होते हैं। कविता की अपनी सीमा है, लेकिन गद्य सीमाओं से बाहर निकलकर बात करने की क्षमता रखता है। 

हाल ही में एक सर्वे आया है कि आज का हिन्दी लेखक अपने लेखन से अधिक नहीं कमाता। आप इसे कैसे महसूस करते हैं?
इस सर्वे के बारे में बात करने से पहले मैं एक और सर्वे के बारे में बताऊँगा। उस सर्वे में बेस्ट सेलर की बात की गयी थी। उस सूची में न आज के ज़माने के शिवमूार्ति हैं, न ज्ञान रंजन हैं, न ज्ञान चतुर्वेदी हैं, न नरेश सक्सेना, न उदय प्रकाशजी। फिर सवाल पैदा होता है कि वह सूची बेस्ट सेलर की कैसे हो गयी। उस सूची में सत्य व्यास, निखिल सचान जैसे नाम हैं। उसमें एक ही प्रकाशक की किताबे हैं। इसे देखकर महसूस होता है कि यह ज़माना मार्केटिंग का है। जिन्होंने अच्छी मार्केटिंग की, उनका प्रदर्शन बेहतर होगा। भीतर सामग्री बहुत अच्छी है, लेकिन रैपर अच्छा नहीं हैं, तो वह चीज़ नहीं बिकेगी। हिन्दी के अधिकतर साहित्यकार बहुत अच्छा लिख रहे हैं, लेकिन उनकी मार्केटिंग नहीं हो पा रही है। वे साहित्यकार सोशल मीडिया की दुानिया से भी नहीं जुड़ पा रहे हैं।
यह सही है कि मार्केटिंग और सोशल मीडिया के कारण कुछ लेखक स्टार बन गये हैं, लेकिन अधिकतर यह कहा जाता है कि हिन्दी का लेखक अपनी लेखनी पर जी नहीं सकता। यह कितना सही है?
यह बिल्कुल सही है। जिस तरह दूसरी भाषाओं के पाठकों ने अपने लेखकों को परेत्साहित किया है, पाला है, उस तरह हिन्दी के पाठक वर्ग ने नहीं किया। हिन्दी के पाठक वर्ग में अपने लेखकों की किताबें खरीदकर उन्हें उत्साहित करने की परंपरा पनपी ही नहीं। पुस्तक मेलों में पसरा सन्नाटा बताता है कि पाठक वर्ग में किताबों के प्रति उदासीनता छायी है। युवा वर्ग अपने सेलफोन और टैब पर जो कुछ मिलता है, उसे पढ़कर अपनी भूख को शांत करता है। दूसरी ओर अमेज़ॉन और इस जैसे ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर कुछ किताबें दिखती हैं और उन्हें खरीदने वालों की अलग भीड़ है। दरअसल इन दिनों कॉर्पोरेट कल्चर के कारण कुछ अंग्रेज़ी नामों की हिन्दी किताबें फुलपेज विज्ञापन समाचार-पत्रों में छपती हैं। इससे कॉर्पोरेट कंपनियों और उससे जुड़े कुछ लोगों को तो लाभ पहुँचता है, लेकिन परंपरागत हिन्दी साहित्य की किताबों के पठन-पाठन की परंपरा को कोई अधिक लाभ नहीं पहुँचता। कॉर्पोरेट लेखक का हिन्दी साहित्य के सरोकारों से कोई संबंध नहीं है। वह गाँव से नहीं जुड़ा है। इसलिए वह पाठक को भी उन सरोकारों से जोड़ नहीं पाता। यह सब मेट्रोपोलिटिन साहित्य है। इसकी लांचिंग भी फिल्म की तरह होती है। फिल्म की तरह की किताबें शुक्रवार को रिलीज़ होती हैं, शनिवार को उसकी समीक्षाएँ छपती हैं और एक पूरा माहौल बनाया जाता है। उसके प्रमोशन के लिए बहुत कुछ किया जाता है। लेखक कई जगहों पर खुद उपलब्ध होते हैं। उसी तरह जैसे अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अपनी फिल्म के प्रमोशन पर निकल जाते हैं। देश और भाषा के सरोकारों से जुड़े साहित्य को परेत्साहित करने के लिए इस तरह की मार्केटिंग स्ट्रेटजी कब बनेगी, पता नहीं।

कोई यादगार घटना बताइए।
जब मैंने कविताएँ मंचों पर सुनानी शुरू की, तो मुशायरों मुझे भी बुलाया जाने लगा। उन दिनों नैनीताल का मुशायरा काफी मशहूर था। जिस मुशायरे में मुझे बुलाया गया था, वहाँ राज्यपाल मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। मैंने पढ़ना शुरू किया, ‘हमारे देश में दो तरह के गांधीवादी पाये जाते हैं। पहले जो महात्मा गांधी मार्ग पर बनाते हैं और दूसरे जो महात्मा गांधी मार्ग पर चलते हैं। मैंने मार्ग बनवाने वाले से पूछा, यह कैसा गांधी मार्ग है, जहाँ सीवर खुला है, पानी बह रहा है, सड़क खुदी है, उस पर रोड़े ही रोड़े हैं। वो बोले गांधी के पथ पर चलना आसान नहीं है...’ राज्यपाल ने उन पंत्तियों पर खड़े होकर अभिवादन किया। उन्हें इस अवसर पर मैंने किताब दी ‘जनहित में जारी’। यह कविताओं का संग्रह है। लगभग 15 दिन बाद राज्यपाल अजीज़ कुरैशी का फोन आया और उन्होंने काव्य संग्रह की तारीफ की और विशेषकर व्यंग्य पर खुशी जतायी।

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