शरीर और आत्मा के बीच के रिश्ते को समझने के लिए सीखा नृत्य

निहारिका तुम्मला

निहारिक युवा कत्थक कलाकार हैं। हालाँकि किसी भी शास्त्रीय कलाकार के बारे में यह सुना जाता है कि उन्होंने यह कला बचपन से सीखी है। प्रारंभिक जीवन में ही उन्हें यह शौक़ हो गया था। कई गुरुओं से उनकी तालीम जारी रही आदि आदि, लेकिन निहारिका के साथ मामला कुछ अलग है। उन्हेें यह शौक़ 19 वर्ष की उम्र में विदेश की भूमि पर इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने के दौरान हुआ। उनकी बहुत छोटी-सी, लेकिन बहुत दिलचस्प कहानी है। उन्होंने कला को पेशे के तौर पर नहीं, बल्कि शौक़ के रूप मेें ही अपनाया और जीवन भर इसी भावना से कत्थक के साथ जुड़ी रहना चाहती हैं। वे बताती हैं- मैं एक विद्यार्थी ही हूँ। पाँच-छह वर्षों के अपने कलात्मक जीवन मेें जो कुछ सीखा है, उसको सुरक्षित करने और अधिक ज्ञान अर्जित करने, सीखने व रियाज़ करने और कला की बारीकियों को जानने का प्रयास कर रही हूँ। मेरा मानना है कि शास्त्रीय कला के क्षेत्र में कोई भी कलाकार जीवन भर विद्यार्थी ही रहता है। बल्कि मैं तो यह कहना चाहूँगी कि कला विशेष को सीखने के लिए, एक पूरा जीवन नाकाफी है। 
   यूनिवर्सिटी ऑफ टोरेंटो में टेक्नोलोजी में इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में अचानक उन्हेें खयाल आया कि शास्त्रीय नृत्य सीखना चाहिए। भारत में शास्त्रीय नृत्य सीखने की परंपरा से यह बिल्कुल अलग बात थी। इसके बारे मेें निहारिका बतताती हैं कि आमतौर पर बच्चों को उस समय नृत्य, गायन या वादन सीखने के लिए गुरू के पास भेजा जाता है, जब वे बहुत छोटे होते हैं। उन्हेें यह भी पता नहीं होता कि वे ऐसा क्यूँ कर रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे उन्हेें इस बात का एहसास होने लगता है और वे इसमेें रम जाते हैं। आठ-दस साल बाद उन्हेें महसूस होता है कि उनके माता-पिता ने उन्हेें यह सिखाकर बहुत अच्छा किया है। वे कहती हैं- मेरे सामने दूसरी समस्या थी। मैं सोचती थी कि क्या मैं 19 साल की उम्र मेें नृत्य सीख सकती हूँ? हालाँकि मुझे परफार्मर नहीं बनना था। मेरी प्रेरणा स्त्रोत एक कैनेडियन कत्थक नर्तकी और शिक्षिका ज्वाइना डिसूज़ा थीं। उनके जीवन में भी कुछ ऐसी ही घटना घटी थी। जब 20 साल की उम्र मेें उन्हेें भारतीय शास्त्रीय नृत्य सीखने का शौक हुआ तो वे सब कुछ छोड़-छाड़कर कैलिफोर्नियाँ गईं और पंडित चित्रेश दास की शिष्या बन गईं। यह साठ के दशक का दौर था, जब भारत मेें शास्त्रीय नृत्य मेें पुरुषों की संख्या कम हो रही थी। दुर्गालालजी और बिरजू महाराज जी जैसे बहुत कम कलाकार थे, जो अपनी जगह बनाए हुए थे। कैलिफोर्निया मेें उस्ताद अली अकबर खान का एक संगीत कॉलेज था, जहाँ चित्रेश दास को नृत्य सिखाने के लिए बुलाया गया था। उनके बारे मेें मैंने जो कुछ जाना, वह आश्चर्यजनक था। एक ऐसी जगह, जहाँ भारतीय शास्त्रीय संगीत के बारे मेें अधिक जानकारी नहीं थी। कृष्ण, विष्णु और शिव के प्रतीकों से जुड़ा यह नृत्य निश्चित रूप से एक अलग वेशभूषा की माँग करता था। चित्रेश जी ने मेलों, ठेलों और विश्वविद्यालय के फुटपाथों पर, पब्लिक स्क्वायर पर, स्ट्रीट फेस्टिवल्स मेें प्रदर्शन कर के, केवल नृत्य की भाषा से ही गोरे लोगों को अपना ऑडियन्स बनाया था। ज्वाइना ने वहाँ चित्रेश दास का प्रदर्शन देखा और कत्थक उनके जीवन का लक्ष्य बन गया। 20 वर्षों तक कत्थक सीखने के बाद, उन्होंने टोरेंटो आकर यहाँ एक कत्थक स्कूल शुरू किया था।निहारिका के कत्थक की ओर आने का श्रेय फ्लेमिंको नृत्य को भी दे सकते हैं। दरअसल, वे गर्मी की छुट्टियों मेें फ्लेमिंको सीखना चाहती थीं। सालसा के कुछ स्टेप्स उन्होंने पहले ही सीखे थे, लेकिन ज्वाइना डिसूज़ा को देखा तो उनका झुकाव कत्थक की ओर हो गया। कत्थक की उस क्लास मेें केवल भारतीय नहीं थे, बल्कि चीनी भी थे और स्थानीय गोरे भी। एक वर्ष की शिक्षा के बाद उन्हेें जब पहली प्रस्तुती देनी थी तो सलाम नमस्कार शीर्षक एक रचना बनायी गई, जिसमेें एक ही रचना मेें दो नर्तकियाँ हिंदु और मुस्लिम सांस्कृतिक प्रतीकों को अलग-अलग प्रस्तुत करती हैं। स्थानीय कला-प्रेमियों के लिए यह चौंका देने वाली कृति थी कि गाना और बजाना तो एक ही है, लेकिन दो नर्तकियाँ उसको अलग-अलग रूप मेें परिभाषित कर रही हैं। दोनों की वेषभूषा भी अलग-अलग है। अब तक उन्होंने चार स्थानों पर यह रचना प्रस्तुत की है। निहारिका का मानना है कि कत्थक ने भारतीय परंपराओं से मुग़लों के शाही दरबारों मेें प्रवेश लिया तो उसने अपनी अलग ही कथा गढ़ी। मंदिरों से शुरू हुई इस परंपरा में मनोरंजन के तत्व जुड़ गए। ग़ज़ल, ठुमरी के साथ-साथ तबले की विशेषता, कायदा, रेला और टुकड़ा के तत्वों से जुड़कर, उसमेें कई नए गुण आ गए।


 
निहारिका ने टोरंटों मेें कई उत्सवों मेें छोटे से लेकर बड़े कार्यक्रमों तक मेें नृत्य प्रदर्शन किया। जब वे भारत आईं तो उन्होंने अपनी तालीम परंपरा मुंबई की सीमा मेहता के निर्देशन मेें जारी रखी। अब फिर वे कनाडा जाने की तैयारी कर रही हैं। हालाँकि उनका रियाज़ हर दिन जारी रहता है। इसके बावजूद वे मानती हैं कि अभी कम से कम छह साल कत्थक की तालीम जारी रहेगी। एक टेक कर्मी के रूप मेें उनके सामने अलग चुनौतियाँ हैं, जिसके चलते उन्हेें कत्थक को अपने साथ बनाए रखने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। वे कहती हैं-  
मैं इस बात के लिए चिंतित हूँ कि दुनिया को संवारने की यात्रा मेें मेरा कत्थक मुझसे न छूट जाए। मेरी गुरु बताती हैं कि जब मैं 60 वर्ष की हो जाऊँ और अपनी नाती या पोती के मित्रों के सामने नृत्य करूँ और वे उससे प्रभावित हों, यह इस शौक की सफलता होगी। आज मैं देखती हूँ कि मैं अपने कार्यालय के काम से थक कर घर लौटती हूँ तो शरीर की थकान को दूर करने के लिए कत्थक से बढ़कर कोई और चीज़ नहीं होती। एक घंटा मैं रियाज़ के रूप मेें नृत्य करूँ तो सारी थकन जाती रहेगी और आत्मा से शरीर का रिश्ता नये रूप मेें ढलता जाएगा। इसीलिए मैं मानती हूँ कि शास्त्रीय नृत्य चाहे कत्थक हो या कोई और, शरीर और आत्मा के बीच के रिश्तों को समझने मेें मदद करता है।

निहारिका का मानना है कि भारत के अधिकतकर कलाकार अपनी बहुत अच्छी रचनाएँ पश्चिमी देशों मेें प्रस्तुत करते हैं या कर पाते हैं। वह इसलिए भी कि वहाँ शास्त्रीय संगीत और नृत्य के लिए काफी अच्छा माहौल है। वहाँ यह नहीं देखा जाता कि यह भारतीय है यूरोपी, बल्कि उससे मन को कितनी शांति मिलती और वे कितना मनोरंजित होते हैं। इसके लिए खर्च की उन्हेें कोई परवाह नहीं होती। वहाँ इसके लिए बड़े-बड़े उत्सव स्थल बने हुए हैं। भारतीय शहरों मेें इसकी कमी अब भी महसूस होती है कि यह शौक आम आदमी तक उस शिद्दत से नहीं पहुँच पाया है। 





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