भई इतने ख़फ़ा भी न हों...


देखना मेरी ऐनक से 



मोअज्जम जाही मार्केट की एक तस्वीर
बहुत बार ख्याल आया कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कोई हम पर गुस्सा करे, झगड़ा करने पर उतारू हो और हम मुस्कुरा दें। झगड़ा करना आदमी की फितरत में शामिल है। गुस्सा या क्रोध उसके मौलिक गुणों में शामिल होता है और यह नौ रसों में से एक है, फिर भी शांत रहना और खुश होना भी तो जिंदगी में गुस्से पर भारी पड़ सकता है। एक बार एक साथी से झगड़ा हुआ, झगड़ा क्या था, उसकी बात अच्छी नहीं लगी और मैं बिगड़ पड़ा। उधर से भी लगभग वैसा ही व्यवहार रहा। वहाँ कोई था नहीं कि बीच बचाव करता, इसलिए कुछ देर बाद खुद ब खुद ही दोनों शांत हो गये। घर आकर जब सोचा तो अपने आप पर हंसी आने लगी। इस बात पर कि क्या वह बात बिगड़ने और झगड़ा करने की थी। शायद वह भी अपने उस व्यवहार पर हँसा होगा, पता नहीं, उससे पूछा भी नहीं।



आये दिन हम इस तरह छोटी-छोटी बातों पर लोगों को उलझते, झगड़ते देखते रहते हैं। झगड़ों के लिए कभी सरकारी नल काफी मशहूर हुआ करते थे, लोग आपस में लड़ पड़ते थे। खास तर पर महिलाएँ एक दूसरे को खूब नवाज़तीं। अब जब से नल लोगों के अपने घरों में आ गये हैं, तब से सरकारी नल के वो मंज़र नहीं दिखई देते, लेकिन आफिस, घर, सड़क, बस स्टॉप, रेल के डिब्बे और न जाने कहाँ कहाँ लोग आपस में एक दूसरे पर बिगड़ जाते हैं। हो सकता है जान-पहचान दोस्ती, रिश्तेदारी, सास-बहू और पति-पत्नी में आपस में नोंक झोंक हों, लेकिन कई बार हम उनसे भी लड़ पड़ते हैं, जिन्हें जानते तक नहीं। एक दिन कैंटीन के पास दो विद्यार्थी आपस में गुत्थम गुत्था थे। बात कॉलर पकड़ने तक आ गयी थी। बीच बचाव के बाद झगड़े का कारण जाना तो बड़ा दिलचस्प था। एक की मोटर साइकिल से दूसरे की पैंट पर सड़क पर फैले पानी के छींटे बिखर गये थे। इससे दूसरे ने पहले से रिश्तेदारी बना ली। जी हाँ, बिल्कुल यह एक ऐसी गाली है, जो रिश्तेदारी की सूचक होती है और लखनऊ में इसको बहन की शान में गुस्ताख़ी करना भी कहा जाता है। ताज्जुब इस बात पर कि जिसको साले.. कहकर संबोधित किया गया था, वहाँ इस रिश्तेदारी की कोई संभावना ही नहीं थी, क्योंकि उसकी अपनी कोई बहन थी ही नहीं। हाँ ऐसा हो सकता था कि संबोधित करने वाला उसे अपनी पत्नी का भाई बना ले और इस रिश्तेदारी पर कोई एतेराज़ भी नहीं होना चाहिए।
बेखुद देहलवी का एक शेर याद आ रहा है...
वो गालियाँ हमें दे और हम दुआएँ दें
ख़जिल उन्हें ये हमारा जवाब कर देगा


फलकनुमा पैलेस से शहर की एक तस्वीर



 खजिल का मतलब है, शर्मिंदा होना। गालियाँ  खाने के बाद दुआएँ देकर चुप कराना हो सकता है, बहुत पुरानी बात हो, लेकिन आज यह प्रासंगिक नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। एक दो बार इसका तजुर्बा बड़ा दिलचस्प रहा। एक बार एक दोस्त मुझ पर बहुत चिल्ला रहा था और मैं उसके चिल्लाने पर मुस्कुरा रहा था। वो इसलिए भी कि उसके चिल्लाने का कारण मैं जान गया था। जब कोई नाराज़ होगा तो जताएगा ज़रूर। अब यह उस पर निर्भर करता है कि वह अपनी नाराज़गी चिल्लाकर जताता है, गाली देकर, झगड़ा करके या फिर मारपीट पर उतारू हो कर, लेकिन सामने वाला पक्ष यह समझेगा कि वह नराज़गी जता रहा है, तो हो सकता है कि यह सब एक तरफा हो और बात बतंगड़ बनने से रह जाए। एक और पते की बात, अगर कोई नाराज़ है और अपनी नाराज़गी जताना चाहता है तो यह ज़रूरी नहीं कि ऐसे तरीके से जताए कि सामने वाला भी नाराज़ हो जाए। हो सकता है कि पुराने लोग काफी दक़ियानूसी रहें हों, लेकिन वो कुछ मामलों में ज़रूर समझदार हुआ करते थे। अपनी नाराज़गी जताने के लिए मौके का इंतेज़ार किया करते कि सामने वाले को खुद ही अपनी ख़ता का एहसास हो और दूसरे के ख़फ़ा होने का कारण भी।



गाँव के एक सूखे पेड़ की तस्वीर,जो सूखकर भी आसमान से बात कर रहा है और एक शानदार मंज़र पेश कर रहा है।

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