आईटी प्रशासन में बढ़ा है आम आदमी का महत्वः राजेंद्र निम्जे

राजेंद्र निम्जे सेंटर फॉर गुड गवर्नेन्स के महानिदेशक हैं। यह केंद्र आज तेलंगाना और केेंद्र सरकार सहित कई राज्य सरकारों तथा अन्य देशों में ई-प्रशासन और और स्वच्छ प्रशासन हेतु सुझाव और समाधान प्रस्तुत करने का काम रहा है। यहाँ लगभग 300 विशेषज्ञ काम करते हैं। राजेंद्र निम्जे 1994 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। राजेंद्र निम्जे का जन्म नागपुर में हुआ। एनआईटी, नागपुर (पूर्व में वीआरसीई) से उन्होंने इंजीनिय्रिंग में स्नातक और आईआईटी मुंबई से स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी की। स्टैन्फोर्ड विश्वविद्यालय से उन्होंने ई-गवर्नेन्स में फेलोशिप भी परप्त की। अभियंता के रूप में वे भारत सरकार की इंजीनिय्रिंग सेवा में नियुत्त हुए और बहुत कम समय में कार्यकारी अभियंता के पद पर पहुँचे। राजेंद्र निम्जे पहले आईपीएस और बाद में आईएएस चुने गये। जीएचएमसी में अतिरित्त आयुत्त, खम्मम जिलाधीश, तकनीकी शिक्षा विभाग के आयुत्त सहित कई महत्वपूर्ण पदों पर उन्होंने काम किया। परिष्कृति और ई-हैदराबाद जैसी प्रतिष्ठित योजनाओं के लिए उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा। सप्ताह का साक्षात्कार में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं ः-

पहली बार मन में कब विचार आया कि आपको आईएएस बनना है?
यूँ हर आदमी की अपनी अलग कहानी होती है। उसने पहले से कुछ सोचा होता है कि उसे कुछ बनना है। उसी तरह मेरी कहानी में भी थोड़ा-सा ट्विस्ट है। मैंने 20 साल की उम्र में इंजीनिय्रिंग और इसके बाद एमटेक किया। पिताजी परेफेसर थे। सरकार की ओर से उन्हें एक्जीक्टिव मजिस्ट्रेट के रूप में नियुत्त किया गया था। दस्तावेज़ों की प्रतिलिपि को प्रमाणित करने के लिए रोज़ाना सैकड़ों लोग उनके पास आते थे। उन्हें सोशल सार्विस का शौक था। जब मैंने एमटेक किया, तो उन्होंने कहा कि आईएएस के लिए अपेयर हो जाओ। उनके दिमाग़ में था कि कलेक्टर की भूमिका में अधिक लोगों की मदद की जा सकती है। उन्हें यह भी विश्वास था कि मैं आईएएस में चुना जाऊँगा, लेकिन उस समय मुझे आईएएस का अर्थ भी नहीं पता था। मैंने उनके साथ बहस की कि बीए, बीकॉम करके भी लोग आईएस बन जाते हैं, मैंने तो इंजीनिय्रिंग की है। मैं इंजीनिय्रिंग सार्विस में जाऊँगा, आईएएस क्यू बनूँ? लेकिन मैं भारत सरकार की इंजीनिय्रिंग सेवा (सेंट्रल पीडब्ल्यूडी) में चला गया। मध्य-प्रदेश और महाराष्ट्र दो राज्यों का अधिकारी था। 25 साल की उम्र में दो राज्यों का कार्यकारी अभियंता काफी बड़ा पद हुआ करता था। इसके बावजूद पिताजी मुझे आईएएस बनने के लिए कह रहे थे। शायद मेरी नासमझी को देखकर उन्होंने मुझसे इस विषय पर बात करनी छोड़ दी, लेकिन एस सड़क हादसे में उनकी अचानक मौत हो गयी। मुझे गहरा धक्का लगा। उनके अंतिम संस्कार में 10 हज़ार से अधिक लोग आये थे। तब मैंने उस समय महसूस किया कि पिताजी मुझे आईएएस बनने के लिए क्यों कह रहे थे और दूसरों के लिए काम करने की बात मेरी समझ में आयी। मैंने उसी साल फॉर्म भरा और पहले ही प्रयास में आईपीएस के लिए चुना गया, लेकिन मैंने ज्वाइन नहीं किया। दूसरी बार प्रयास किया, तो सफल नहीं हुआ, लेकिन तीसरी बार मैं आईएएस के रूप में चुन लिया गया। जब मैं आईएएस सेवा में आया, तो एहसास हुआ कि शायद मैं इसी के लिए बना था। तब मुझे लगा कि लोगों के लिए काम करने के लिए दुनिया में इससे अच्छा कोई और विकल्प नहीं है। 

सेंटर फॉर गुड गवर्नेंस इन दिनों काफी चर्चा का केंद्र है। किस तरह के काम यहाँ होते हैं?
यह एक तरह से सरकार की सेवाओं को जनता तक पहुँचाने में टेक्नोलॉजी के उपयोग को परेत्साहित करता है। टेक्नोलॉजी आज काफी उन्नत है। सेंटर बताता है कि मोबाइल, टैब तथा इस तरह की उन्नत सुविधाओं से सरकारी सेवाएँ कैसे लाभान्वित हो सकती हैं। कृषि, स्वास्थ्य, चाहे जो विभाग हो, उनके लिए नीतियाँ बनाने और उन पर अमलावरी के लिए ई-प्रशासन से सहयोग करने में गुड गवर्नेन्स की भूमिका महत्वपूर्ण है। यह तेलंगाना सराकर के आधीन तो काम करता है, लेकिन भारत सरकार और कुछ को छोड़ देश के लगभग सभी राज्यों के लिए यहाँ योजनाएँ बनायी जाती हैं। भारत सरकार के गुड गवर्नेन्स इंडेक्स पर यहीं काम हो रहा है। एक बार जब यह इंडेक्स तैयार हो जायेगा, तो सरकारें कितनी सफल हैं, यह दावा सप्रमाण सही माना जाएगा, क्योंकि उसके मानक इस इंडेक्स में होंगे। 

आपने यह कार्य तो अपनी सेवा के पररंभिक दौर में ही शुरू किया था?
यह बात सही है कि मैंने विभिन्न पदों पर काम करते हुए वहाँ के काम को बेहतर बनाने के लिए छोटे-छोटे आइडिया पर चीज़ें बनाई और उन पर अमलावरी खुद ही की, लेकिन यहाँ का काम काफी व्यापक है। यहाँ केवल हमारे आइडिया ही नहीं, दूसरे अधिकारियों की सोच को साकार करने में सहयोग दिया जाता है। हमारे पास 31 जिलाधीश हैं। वे अपनी सोच लेकर आते हैं कि उन्हें ऐसा करना है। कई बार वे समस्या लेकर आते हैं, हम आइडिया के साथ उन पर अमलावरी में उनका सहयोग करते हैं। अगर यहाँ आइडिया हमारा भी है, तो काम अपने लिए नहीं, बल्कि जनता को लाभान्वित करने के लिए है। पहले ऐसी कोई संस्था हमारे पास नहीं थी, इसलिए मैं निजी आईटी कंपनियों या आईटी विशेषज्ञों द्वारा यह सेवाएँ लिया करता था। 

जब आपने आईटी में इंजीनिय्रिंग की, तब ई-गवर्नेन्स के बारे में बहुत कम लोग जानते थे। आज जब आप पलटकर देखते हैं, तो तब और अब में क्या अंतर पाते हैं?
मेरा आईटी से संबंध डॉस के ज़माने से है। जब आईटी के बारे में जानना तो दूर, यह शब्द सुनने में भी नहीं आता था। रूम के आकार का कंप्यूटर हुआ करता था। सरकारी क्षेत्र में इसका उपयोग अभी शुरू नहीं हुआ था। बीते 20-25 वर्षों में जो कंप्यूटर ऑप्शनल हुआ करता था, अब असेंशियल बन गया है। इससे भी आगे, अर्थात ई-गवर्नेन्स पर काम हो रहा है। यह केवल सरकार के लिए नहीं, बल्कि आम आदमी को क्या सेवा दी जा सकती है, इसके लिए काम कर रहा है। वर्ष 2000-2001 के आस-पास इसके लिए सरकार को आईटी डिपार्टमेंट बनाना पड़ा। सरकारी सेवाओं को सीधे उसके लाभार्थी तक पहुँचाने में आईटी ने क्रांतिकारी भूमिका निभाई। आज इज़ ऑफ डूइंग बज़िनेस जैसा शब्द हम सुनते हैं, यह क्रांति का नया अवतार समझा जा सकता है। इससे पता चलता है कि आपका काम सरकार के किस विभाग में, किस अधिकारी के पास कब से है और उसे मंज़ूरी मिलने में कितनी देरी लगेगी या फिर उसके देरी के क्या कारण हैं। हर चीज़ लिंक हो गयी है, बल्कि मोबाइल पर इसकी ट्रैकिंग की जा सकती है।

सरकारी कामों में आप किस तरह का परिवर्तन महसूस करते हैं?
सरकार के काम तो तब भी वही थे और आज भी वही है। चाहे अधिकारी हो या जनप्रतिनिधि, दोनों का उद्देश्य जनता के लिए काम करना है। कहा जा सकता है कि पहले यह बंद बक्सा हुआ करता था, आज सब कुछ पारदर्शी है। पहले अधिकारी या जनप्रतिनिधि जनसाधारण के पूछने पर कहते थे कि यह हम ही कर पाएँगे, आपकी समझ में नहीं आएगा, लेकिन आज वह ऐसा नहीं कह सकता। लोगों को फाइल मूवमेंट आसानी से समझ में आ सकता है। आज पहले की तरह पेंशन के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ता, रिटायर होने से पहले उसकी पेंशन के दस्तावेज़ उसके घर पहुँच जाते हैं। यह सही है कि आज व्यवस्था नब्बे प्रतिशत सुधर गयी है, लेकिन मानवीय लालच हमेशा काम करता है। इतने सुधारों के बावजूद अगर कोई सोचता है कि वह नियमों को तोड़कर अपना काम कर सकता है, वह रास्ता निकाल लेता है, तो यह आसान नहीं रहा।

आम तौर पर बिचौलिये आम आदमी को डराते थे कि उनके बिना काम नहीं चलेगा, क्या अधिकारियों को भी ऐसा लगता था कि बिचौलियों के बिना काम नहीं चलेगा?
बिल्कुल, कुछ अधिकारी यह महसूस करते थे कि बिचौलिये उनका काम आसान करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि बिचौलियों की भूमिका बिल्कुल ही खत्म हो गयी है। आज भी एक छोटी-सी मोटरसाइकिल रजिस्टर करने के लिए हम एंजेंटों का सहयोग लेते हैं। हालाँकि हमें पता है कि यह काम सीधे कर सकते हैं, लेकिन लगता है कि कहाँ-कहाँ किस-किस लाइन में खड़ा रहना पड़ेगा, इसलिए कुछ अधिक खर्च करके एजेंट की मदद लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। कुछ अधिकारी भी यह समझते हैं कि एजेंट द्वारा कमिशन पाना उनके लिए आसान है। ऐसा भी है कि यदि किसी को सही रास्ते का पता चल जाए कि वहाँ काम बस साइन करने से हो जाता है और लाइन में खड़े होंगे, तो भी दसवाँ, बीसवाँ और पचासवाँ नंबर आएगा, लेकिन एजेंट को अलग से पैसे नहीं देने पड़ेंगे। दूसरी ओर, समय बचाने के लिए कुछ लोग बिचौलिये का साथ लेकर खुश हैं। 

सरकार में आईटी के उपयोग का पहला अनुभव कैसा रहा?
मैं उन दिनों वरंगल जिले का संयुत्त जिलाधीश हुआ करता था। चंद्रबाबू नायुडू मुख्यमंत्री थे। वरंगल जिले की वेबसाइट बनायी गयी थी। इससे मुख्यमंत्री बहुत खुश थे। उस समय मुख्यमंत्री की खुशी का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता था। यहाँ मैंने राशनकार्ड कूपन सिस्टम को कंप्यूटरीकृत किया था। हमने 7 दिन के कैंपेन में पाया कि 20 प्रतिशत बोगस कार्ड हैं। इस तरह सरकार के करोड़ों रुपये बचाए गये।

खम्मम में आपने ई-प्रशासन से जुड़ा परिष्कृति अनुभव किया था, उसकी योजना कैसे बनी?
दरअसल मैं वहाँ का संयुत्त जिलाधीश रह चुका हूँ। उस दौरान शिकायतों के समाधान के लिए अपनी जेब से रुपया खर्च करके मैंने एक सॉफ्टवेयर बनाया था और उसकी टेाÅस्टग भी की थी। जब मैं कलेक्टर बनकर वहाँ गया तो, ज्वाइनिंग के दूसरे दिन ही उसे लांच किया। मैंने देखा कि कलेक्टर से मिलने के लिए हर दिन बड़ी संख्या में लोग आते हैं। सबकी समस्याएँ सुनने और उसे समझने में काफी समय लगता है, जिसके चलते कई लोगों की मदद नहीं हो पाती। कोई पूछता कि सर मैंने आपसे तीन महीने पहले शिकायत की थी, आपने उस पर कुछ लिखा भी था। इस वक्त वह फाइल कहाँ है, यह जानना बहुत मुश्किल था। कई काम चाहकर भी जल्दी नहीं किये जा सकते थे। कार्यालय में दाखिल आवेदन और शिकायत-पत्र खो जाना आम बात थी। मैंने इस समस्या से निपटने के लिए शिकायतों के नंबर देने शुरू किये और शिकायत करने वालों को उस नंबर का एक प्रिंटआउट। इसके लिए एक कंप्यूटर सेक्शन शुरू किया गया, जिसके लिए 10 लोगों को प्रशिक्षण दिया गया। हर सप्ताह इन शिकाय्ातों की समीक्षा की जाने लगी। यह वर्ष 2004 की बात है, जब 10 पैरामीटर्स में खम्मम जिला प्रथम स्थान पर पहुँचा था। इस व्यवस्था से शिकायत करने वाले आदमी का महत्व बढ़ा और सम्मान भी।
किस पद पर काम करना आपको अधिक चुनौतीपूर्ण लगा?
हर काम में चुनौती है और हर काम अलग होता है। जब मैं सब-कलेक्टर था, तो कलेक्टर हमें काम सिखने के लिए अच्छा माहौल बनाते। कुछ ग़लतियाँ भी माफ हुआ करतीं थी, क्योंकि उस समय काम सीख रहे होते थे। कलेक्टर बनने के बाद ग़लतियों के लिए कोई जगह नहीं थी। यहाँ लगता कि सरकार कुछ चाहती है और स्थानीय राजनेता कुछ। पक्ष-विपक्ष दोनों को संभालना होता है। मुख्यमंत्री के आदेशों का पालन करते हुए निर्धारित समय में परिणाम देने पड़ते हैं। मुख्यमंत्री का हर दिन सुबह पाँच बजे फोन आता। कलेक्टर के रूप में मुझे लगा कि सेवाएँ प्रदान करने का दायरा काफी बड़ा होता है। इसी तरह तकनीकी शिक्षा आयुत्त के रूप में भी काम किया। नये पॉलिटेक्निक स्थापित किये। 

राजनेताओं के साथ काम करने में कुछ समस्याएँ?
अधिकारी को यह समझना होता है कि राजनेताओं को भी जनता के लिए काम करना होता है। यह अलग बात है कि कभी-कभी उनकी परथमिकता कुछ और होती है। कुछ अधिकारी अपने आपको सुपिरियर समझकर रिश्ते बिगाड़ लेते हैं। दरअसल इस बात को समझना होगा कि जन-प्रतिनिधि का कार्य अधिकारी से अधिक चुनौतीपूर्ण होता है। हमारे सामने तो आगे बढ़ने, उन्नति पाने का रास्ता खुला रहता है, लेकिन उनके बने रहने का दारोमदार जनता के लिए किये गये कामों पर ही टिका रहता है। कई लोग तो बस एक बार ही चुने जाते हैं।


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