साँस से भी करीब है संगीत : रज़ा अली खान

उस्ताद रज़ा अली खान ख़्याल गायकी के क्षेत्र में जाने-पहचाने कलाकार हैं। खास बात यह है कि वे उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के पौत्र हैं। उन पर इस विरासत को संभालने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी है। उनका जन्म 8 अगस्त, 1962 में कराची में हुआ और बचपन दादा के साथ हैदराबाद में बीता। पहले दादा और बाद में पिता मुनव्वर अली खान से उन्होंने संगीत की शिक्षा ली। ख़्याल के साथ-साथ ग़ज़ल, ठुमरी, दादरा, गीत सोजख़्वानी, नोहाख्वानी और मनख़बत जैसी गायकी की विधाओं में उन्हें कमाल हासिल है। गायक होने के साथ-साथ उन्होंने संगीत संयोजन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी कंपोज़ की हुई ग़ज़लें गुलाम अली और पिनाज़ मसानी ने गायी हैं। उनके अलबम मूड्ल ऑफ इमोशन्स और धड़कन काफी लोकप्रिय हुए। वे काफी अरसे तक वीनस कंपनी में चीफ म्यूज़िक डॉयरेक्टर के पद पर काम कर चुके हैं। दूरदर्शन की कई टेलीफिल्मों के लिए उन्होंने संगीत निर्देशन किया है। वे बंगाल की संगीत अकादमी के सदस्य भी हैं। उनका घराना क़सूर पटियाला कहलाता है। इसके बारे में रज़ा अली खान बताते हैं कि इसमें दिल्ली, जयपुर, ग्वालियर और डागर के घरानों का एक खास फ्यूजन है, जो कई पीढ़ियों से मिश्रित होकर कसूर पटियाला के रूप में गुलदस्ता बन गया है।  पिछले सप्ताह ईटीवी के एक कार्यक्रम में भाग लेने वे हैदराबाद आये। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं...

 
आपका बचपन हैदराबाद में बीता। मोहल्ले में रहने के दौरान वहाँ की कुछ यादों के बारे में बताइए।
रेड हिल्स में नीलोफर दवाखाने के पास हम रहा करते थे। काफी कुछ याद है। हमारे घर के सामने के.बी. लाल साहब रहा करते थे। उन्हें संगीत का शौक़ था। उनकी बेगम दादा की शागिर्द थीं। लाल साहब और उनकी बेगम अक्सर दादा के पास आकर बैठा करते थे। आज जब देखता हूँ, तो वह जगह एक तंग गली जैसी दिखती है, लेकिन उस दौर में यह काफी बड़ी जगह थी। दूर तक मैदान जैसा दिखता था। मुझे याद है, शायद मैं तीन-चार साल का था। खेलते-खेलते मैं ग़लत रास्ते पर निकल गया। मुझे पता नहीं था कि मैं कहाँ पहुच गया हूँ। दादा के एक शागिर्द थे-शशि भाई, जिन्होंने मुझे देखा और पकड़कर घर ले गये। मैंने पाया कि दादा बहुत परेशान थे। मुझे ढूंढ़ने के लिए कई लोगों को भेजा गया। ज़ाहिर है, बच्चों को डराया जाता है, लेकिन उस घटना के बाद जब भी मैं बाहर खेलता था, दादाजी गेट के पास आकर बैठा करते थे कि कहीं मैं दूर न निकल जाऊँ। हैदराबाद के बारे में मैं यह कह सकता हूँ कि मैं बचपन से लेकर आज तक इससे जुड़ा रहा हूँ। हैदराबाद मुझमें जीता है। इसलिए भी कि मैं जो भाषा बोलता हूँ, उसमें हैदराबादियत है। 

सुना है, आपको बचपन में ही उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब ने सिखाना शुरू किया था। बच्चों को सिखाने का उनका क्या तरीका था?
वो इस मामले में बड़े उस्ताद थे। मुझे वो अक्सर खिलौने दिया करते थे। वो अक्सर नोंकदार खिलौने देकर खेलने के लिए कहते और मैं खेल-खेल में उससे बहुत कुछ सीख जाता। फिर जब मैं कोई दूसरा खिलौना माँगता, तो वे कहते कि यह याद करके दिखाओ, तभी मिलेगा। इसी तरह खेल-खेल में उन्होंने मुझे कई पलटें सिखाईं। चार आने की समझ उस समय तो मुझे थी नहीं, लेकिन उससे बहुत सारी चीज़ें खरीदी जा सकती थीं और वे पैसे देर तक खर्च किये जा सकते थे। दादा कहते थे कि मैं तुम्हें चार आने दूँगा। यह चीज़ याद करके सुनाओ और चार आने पाने की लालच मैं उन्हें याद करके सुना भी देता था। पलटें एक तरह से गायकी का अभ्यास होती हैं। उससे गला तैयार होता है। आज हम अपने शागिर्दों को वही सिखाते हैं। मैं उनकी गोद में बैठ कर उनका रियाज़ सुना करता था।

पहली बार कब एहसास हुआ कि आप एक महान संगीतज्ञ के घर से संबंध रखते हैं?
मैं बता रहा था कि जब खेलकर मैं थक जाता था, तो दादा की गोद में बैठ जाता था। अगर वो उस समय रियाज़ कर रहे होते थे, तो अजीब एहसास होता। लगता कि मैं एक समंदर के पास खड़ा हूँ। आवाज़ में ऐसा खिंचाव था कि आदमी वहाँ से हट नहीं सकता था। हालाँकि मुझे मौसक़िी की समझ नहीं थी। ऐसा आज होना अलग बात है, क्योंकि आज हममें मौसक़िी की समझ है, लेकिन जब उसके बारे में पता नहीं था, तो उस समय हिप्नोटाइज़ वाली हालत हुआ करती थी कि वहाँ से हटे ही नहीं। मुझे याद है कि कलकत्ता के रवींद्र सदन में उनका परेगरम था। वह मेरे लिए उनका आखिरी परेगरम था। हालाँकि उसके बाद वे विशाखापट्टनम गये थे, लेकिन मैं वहाँ नहीं जा पाया था। मैं अपनी दादी के साथ पहली कतार में बैठा था। वालिद (मुनव्वर अली खान) और दादा गा रहे थे। जब मैंने पीछे देखा, तो जो लोग बैठे थे और जिस तरह से वो प्रतिक्रियाएँ कर रहे थे, उन्हें देखकर बाल मन को यह एहसास हो गया कि सामने जो स्टेज पर बैठी है, वह कोई मामूली शख़ि्सयत नहीं है। मेरे वालिद भी महान कलाकार थे। मैं समझता हूँ कि दादा का बहुत महान हो जाना एक कारण था, जिसमें वालिद की शख़ि्सयत छुपी थी। 

कौन-सी बातें थीं, जिससे लगता कि उनका गाना काफी मुश्किल था?
जब मैंने संगीत की साधना शुरू की और संगीत के बारे में जानने लगा, तो दादा का गाना रिकॉर्डों में सुनता था। मैं सोचता था कि यह कोई सुपर ¿ाूमन बात है। आज भी मैं समझता हूँ कि उनके गाने को पूरी तरह समझना आसान नहीं है। उन्हें समझने के लिए आधा बड़े गुलाम अली ख़ान तो होना पड़गा। दादा ही नहीं खानदान में बहुत सारे लोग थे, जो एक से बढ़कर एक कलाकार थे। छोटे दादा बरकत अली खान साहब, अमान अली खान साहब, मुबारक अली खान साहब आदि। उन्हें सुनकर एहसास होता है कि सुर में से सुर निकालना रियाज़ की एक लंबी जिंदगी की देन थी। मुझे उसे रिपरेडयूस करने के लिए कई साल लगे। कई बार ऐसा होता कि उन्होंने किसी राग में शुरू किया और गाते-गाते कई तरह की चीज़ें उसमें मिल रही हैं। वह शुरू में समझ में नहीं आता था, लेकिन जब मैं खुद गाने लगा, तो समझ आने लगा।

आपके साथ भी ऐसा होता होगा कि कुछ गा रहे हैं और गाते-गाते कुछ और ही चीजें निकल आयीं?
यह तो अक्सर होता है, जैसे `आए ना बालम...या.. याद पिया की आये हो।' इसके अलावा लोग अक्सर मोग़ले आज़म की `ठुमरी प्रेम जोगन बन के जोगन की सुंदरी' सुनाने को कहते हैं, तो कुछ ऐसा हो जाता है, जो मूल में नहीं होता या जिसका कोई इरादा नहीं किया होता है या वह पहले से नियोजित नहीं होता है। कार्यक्रम के बाद लोग कहते हैं कि गायन के इस भाग में खाँ साहब (बड़े गुलाम अली खान) की छवि दिख रही थी, तो मुझे खुशी होती है।
अब तक के आपके संगीत सफर में कौन-सा ऐसा लम्हा था, जिससे आपको लगा कि बड़ा चुनौतीपूर्ण है?
हर वक़्त चैलेंजिंग है। क्लासिकल मौसिक़ी के साथ आप ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं, तो उसमें चौबीसों घंटे चैलेंज है। इसके चाहने वाले सीमित संख्या में हैं। इसमें एक और बात है कि हर आदमी की चाहत का अपना कलाकार है। रसिक बँटे हुए हैं। हर सेकेंड चैलेंज है, क्योंकि आप जिस कला को लेकर चल रहे हैं, उसे अगर कोई कॉर्पोरेट बैकिंग नहीं है, तो मुश्किल है। किसी संस्था के साथ जुड़े हैं तो ठीक है, लेकिन अगर आप आज़ाद हैं, तो ज़रा मुश्किल है। हमारी सरकारों ने ऐसा कोई काम अब तक किया नहीं है कि संगीतकारों का एक सुरक्षित जीवन हो। पहले रेडियो पर 6 कार्यक्रम होते थे, लेकिन अब एक ही रह गया है। सम्मान भी सब को नहीं मिलते और सम्मान का रुपया भला कितने दिन चलेगा। सम्मान भी क़ाबिलियत की तुलना में रसूख़ के आधार पर दिये जाते हैं। किसी को सम्मान मिला, तो यह नहीं कहा जाता कि उसमें कितनी योग्यता है, बल्कि यह कहा जाता है कि उसकी पहुँच दूर तक है।

आपने एक बार कहा था कि जो कुछ आपको मिला है, उसे बनाए रखना काफी चुनौतीपूर्ण है?
सबसे पहली बात यह है कि एक संगीतकार को जब तक संगीत से प्रेम नहीं होता, वह संगीत के प्रति समर्पित नहीं हो सकता। संगीत उसके लिए सबसे पहली परथमिकता होनी चाहिए। साँस न ले गँवारा है, लेकिन मौसिक़ी उससे ज्यादा ज़रूरी है। आज मैं अगर गा न सकूँ और मेरी आवाज़ साथ छोड़ जाए, तो मैं जीकर कर क्या करूँ। प्रश्न यही है कि आप संगीत को कितना जीते हैं? बड़े से बड़ा हादसा हो जाए, लेकिन आपके दिमाग़ में संगीत के लिए जगह होनी चाहिए। मुझे याद है कि मैं अपनी दादी के साथ था। मुझे पता था कि उनसे यह मेरी आख़िरी मुलाक़ात है, लेकिन मेरे ज़हन में राग मारवा ही चल रहा था। अंजाने में मैं उसके बारे में सोचा जा रहा था। 

आपको विरासत में जो ग़ज़ल गायकी मिली है, आज के दौर की ग़ज़ल गायकी इससे बिल्कुल अलग है। क्या कहना चाहेंगे?
ऐसा नहीं है कि सभी ने एक तरह से गाया है। हर उस्ताद ने अपने अंदाज़ से गाया है। यह इसलिए भी कि वो शायरी को जानते थे। शायरों के साथ रहते थे। शेर में छुपे अर्थ को कैसे अपनी गायकी और संगीत से दूसरों तक पहुँचाया जाए, वे इसके लिए काफी मेहनत करते थे।

हाल के तीस-चालीस वर्षों में ग़ज़ल में सहलअंदाज़ी आयी है। आप इसके बारे में क्या विचार रखते हैं?
यह सही है कि वह इस सहलअंदज़ी से मास में पापुलर होती जा रही है, लेकिन इससे ग़ज़ल नहीं रह गयी। अगर उसमें वह क्लासिकियत नहीं रही, तो फिर उसे गायकी की उस धारा से नहीं जोड़ा जा सकता। यह अलग बात है कि अब उसकी जैसी ग़ज़लें भी बहुत कम लिखी जा रही हैं। मास के लिए जो चीज़ें बनती हैं, उसे मुंबई की भाषा में हुक लाइन कहा जाता है। यह एक शोध के अनुसार, मुश्किल से 20 या 30 सेकेंड ही सुना जाता है। आज अगर कोई अंतरे से गाना शुरू करे, तो समझ नहीं आएगा कि यह वही गाना है, जिसका मुखड़ा लोकप्रिय हो गया था। जैसे एक ग़ज़ल थी, `नये कपड़े बदल के जाऊँ कहाँ' और `बाल बनाऊँ किसके लिए, वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया, मैं बाहर जाऊँ किस के लिए।' यह शेर काफी मशहूर भी हुआ, लेकिन गाने में बड़ा अजीब लगता था। यक़ीनन यह रिवायती अंदाज़ में नहीं खपेगा। ग़ज़ल जब गायी जाए, तो सुननेवाला अपनी यादों के उस दौर में जाए, जिसको उसने देखा और जिया है। सर्वाइवल के लिए सहल होना बुरा भी नहीं है। रिवायत और सहलअंदाज़ी दोनों ज़रूरी है।

क्या कलाकार का कलात्मक जीवन व्यत्तिगत जीवन में घटी घटनाओं से प्रभाावित होता है?
बिल्कुल होता है। बहुत कम लोग होते हैं, जो कलाकार को सुनते हुए उसके व्यत्तिगत जीवन की परवाह नहीं करते। अगर मुझे लोग सुन रहे हैं और मैंने बहुत अच्छा गाया भी है, तो यह भी कहेंगे कि यह वही है, जिसने वैसा या ऐसा किया था। अगर अलग-अलग देखते, तो िंज़दगी बहुत आसान हो जाती। 

आपको नई पीढ़ी से किस तरह की उम्मीदें हैं?
शिकायत तो सबको है, लेकिन मैं कहना चाहूँगा कि सौ शागिर्दों में 5 तो ऐसे निकलेंगे ही, जिनकी प्रतिभा और मेहनत पर आपको नाज़ होगा। उस्ताद के लिए भी ज़रूरी है कि वो अपने शागिर्दों के भीतर छिपी प्रतिभा को बाहर निकाले।

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