रहस्यों से भरे कमरे का ताला खोलने वाली कलाकार सीमा कोहली

सीमा कोहली एक चित्रकार हैं। समकालीन कलाकारों में उन्होंने अपनी खास जगह बनाई है। 1960 में न्यू राजेंद्र नगर,  दिल्ली में एक सिख मगर आर्य समाज से प्रभावित परिवार में उनका जन्म हुआ। वे छोटी थीं, तो बुहत कम बोलती थीं। वे बचपन से ही अंतर्मुखी थीं। उनका यही अंतर्मुखी होना, उन्हें रंगों की दुनिया में ले गया। उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से दर्शन शास्त्र और साउथ पॉलिटेक्निक से एप्लाइड आर्ट में क्रमशः डिग्री और डिप्लोमा किया। मूर्तिकला, वीडियो इंस्टेलेशन, मिक्स मीडिया, फोटोग्राफी सहित कई शैलियों को उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया। उन्हें 2008 में ललित कला नेशनल अवॉर्ड फॉर वुमेन और 2009 में वीडियो इंस्टेलेशन के लिए फ्लोरेंस बिनाल में गोल्ड अवॉर्ड प्रदान किया गया। एक रचनाकार के रूप में अपने और संसार के अस्तित्व के प्रश्नों की खोज के लिए उन्होंने मन में उठने वाले जिन प्रश्नों के उत्तर तलाशे, उन्हें चित्रात्मक भाषा में अभिव्यक्त किया। उनकी चित्र श्रृंखला `हिरण्य गर्भ' काफी लोकप्रिय हुई। देश के विभिन्न शहरों के साथ-साथ विदेशों में उनके चित्रों को सराहा गया है। कलाकृति आर्ट गैलरी में अपने विशेष शो `गोल्डन वोम्ब डॉन ऑफ टाइम' के लिए सीमा हैदराबाद आई थीं।

 उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं...

आपके बारे में पढ़ा था कि आपकी चित्र यात्रा ढाई-तीन वर्ष की आयु में ही एक जर्मन मनोवैज्ञानिक के कारण शुरू हुई। क्या यह सच है?
मैं जन्म से ही बहुत कम बोलती थी। यूँ कह सकते हैं कि दूसरे बच्चों की तुलना में मैं बातें नहीं करती थी। मेरे पिता बहुत जागरूक थे। उन्होंने सोचा कि मुझे किसी डॉक्टर को दिखाया जाए। हालाँकि, वह दौर इतना खुले विचारों वाला नहीं था। अपने बच्चों को मनोवैज्ञानिक को दिखाना अच्छा नहीं समझा जाता था। लोग मनोवैज्ञानिक के पास नहीं जाते थे, लेकिन पिताजी नए  विचारों के शख्स थे। उन्हीं दिनों एक जर्मन मनोवैज्ञानिक दिल्ली आए। पिताजी मुझे उनके पास ले गए । उन्होंने कुछ टेस्ट किए । उन्होंने मेरे सामने कुछ सिक्के फेंके और मेरी प्रतिक्रिया देखी। फिर उन्होंने पिताजी से कहा, आपकी बेटी ठीक है। इसे बहुत सारे पेपर और रंग दीजिए। अगर उनसे ये  कुछ नहीं करेगी, तो फिर इसे मेरे पास ले आना। उस समय मेरी उम्र लगभग ढाई साल थी। अभी स्कूल जाना शुरू नहीं किया था। मैं आज भी सपने में खोने जैसी स्थिति में रहती हूँ और शायद तब भी ऐसी ही थी। उसके बाद मेरे सामने एक कलर मैजिक बॉक्स लाकर रख दिया गया। उसमें से रंग निकलते रहते थे। मेरा उससे मन भर गया, तो मैंने रंग माँगे। फिर कुछ कापियाँ दी गयीं। वह भी कम पड़ने लगीं, तो सफेद कागज़ के बंडल और रंग सामने रख दिए  जाते थे। मैं सुबह से लेकर शाम तक उन्हीं कागज़ों और रंगों में घिरी रहती थी। माँ मुझे उस हालत में देखती थीं, तो कहती थीं कि ये झल्ली हो गयी है (पगला गई है)।
आज भी वो सारी बातें आप को याद हैं?
वह एक मिस्ट्री थी। एक ऐसा अचंभा था कि अब भी जब मैं कोई काम कर रही होती हूँ, तो उत्साहित रहती हूँ। वही आकर्षण आज तक बना हुआ है। मुझे लगता है कि मैं एक कमरे का ताला खोल रही हूँ और उस कमरे के भीतर रहस्य ही रहस्य हैं। बहुत सारी अद्भुत चीज़ें हैं, जिन्हें मुझे जानना, बूझना है। मुझे अपने बचपन के वो दृश्य आज भी याद हैं। ऐसे लगता कि मैंने एक दृश्य देखा है और दूसरी बार उसी दृश्य को देखने के लिए बेचैन हूँ, चक्कर काट रही हूँ, घूम रही हूँ। मुझे लगता है कि मेडिटेशन के दौरान अचानक एक लम्हा ऐसा आता है कि कुछ पा लेने या अद्भुत लम्हे के दर्शन होते हैं और फिर उसी तरह के लम्हे के दर्शन के लिए हम लगातार मेडिटेशन करते जाते हैं। एक तलब बनी रहती है। आप इसे पहली नज़र में प्यार का मामला भी कह सकते हैं। आज भी मेरे साथ `अभी और...' का उत्साह बना हुआ है। आज भी मैं टेबल पर कागज़ या कैनवॉस फैलाकर बैठ जाती हूँ, तो घंटों गुज़र जाते हैं। मेरा मन उठने को नहीं करता।

कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सब आपको अपने पूर्वजों से विरासत में मिला हो, क्योंकि बिना कुछ देखे रंगों की ओर प्रेरित होना, चित्र बनाना और उसमें रमे रहना इत्तेफाक नहीं हो सकता?
हालाँकि, मुझे लगता है कि पेपर या कैनवॉस ही अपने आप में एक प्रेरणा हैं, जो हमें अपनी संगत में रहने के बदले बहुत कुछ देते हैं। मेरे दादा और पिता दोनों मेरे लिए प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। हमारा परिवार रावलपिंडी के पास के पिंड दादन खान से दिल्ली आया था। दादा हकीम चुन्नीलाल हिकमत (उपचार) करते थे। हाफज़िे कुरान थे। उन्हें वेद, उपनिषद कंठस्थ थे। फारसी भी आती थी। गीता और बाइबल का उन्हें खूब ज्ञान था। घर के बच्चों को वही कहानियाँ सुनाते थे। उन कहानियों में धर्म बहुत पीछे रह जाता था और व्यक्तित्व उभरकर सामने आता था। जब वे दिल्ली आए , तो यहाँ उनके मौलाना और विद्वान लोगों से रिश्ते बराबर रहे। हालाँकि वे शरीर से दिल्ली में थे, लेकिन ज़हन से पूरी तरह रावलपिंडी में रहते थे। इधर-उधर की कहानियाँ मिल जाती थीं। मेरे ज़हन में शायद उन कहानियों को परिभाषित करने की जिज्ञासा बनी रही। वे हर चीज़ को रिसाइकिल करने की कला में माहिर थे। वे प्लािस्टक के टेबल क्वर्स को काट-काट कर चिड़िया, घोड़ा, हाथी आदि की शक्ल के बुकमार्क बनाकर देते थे। यहाँ तक कि रोटी भी बनती थी, तो वे परिंदों की शक्ल में टुकड़े करके हमें खिलाते थे। ज़हन खाने में कम और उसके आकार में अधिक गुम हो जाता। इस तरह की कई बातें थीं, जिन्हें मैं अधिक जानने की कोशिश करती थी। यही सब बातें रंगों का रूप लेकर चित्रों में बदलती रहीं।
आपने जिन घटनाओं, कहानियों और स्मृतियों को परिभाषित करने के लिए रंगों का सहारा लिया। इस बारे में कुछ कहिए।
यह कला मेरी आंतरिक यात्रा की अभिव्यक्ति है। एक कलाकार के रूप में मैं अपनी बात कर रही हूँ। पेंटिंग मेरी भाषा है। मेरे और कैनवॉस के बीच की भाषा है। अगर कोई इसे समझना चाहे, तो उसे उस पेंटिंग या कलाकृति के साथ उतना ही समय बिताना पड़ेगा, जितना मैंने बिताया है, तभी चित्र और दर्शक के बीच संवाद शुरू होगा।
आपकी चित्र यात्रा को 50 साल से अधिक समय हो चुके हैं। इस यात्रा में कई पड़ाव आए होंगे। फिर भी कोई न कोई ऐसी घटना जीवन में घटी होगी, जिसे आप मील का पत्थर समझती हों या जहाँ आपने तय किया हो कि रंग भाषा ही आपका माध्यम है?
बिल्कुल, मुझे लगता है कि अधिकतर मामलों में हमारा प्रारंभिक समय ही तय करता है कि हमें क्या करना है। आगे का जीवन तो दृढ़ता लाता है। मुझे लगता है कि मैं बस अपने अंतर को रंगों में ढालती हूँ। न मैं कोई संदेशवाहक हूँ और न ही कोई समाजसेवा जैसा भाव मुझमें है। मुझे ऐसा भी एहसास होता है कि यह मेरी यात्रा तो है ही, लेकिन सबकी यात्रा ऐसी ही है। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ?, कहाँ जा रहा हूँ?, क्या है मेरे जीवन का उद्देश्य?, ये  प्रश्न सबके भीतर हैं। हमारे आस-पास यह सारा आडंबर क्या है? आडंबर है या सच्चाई है। इन सभी पहलुओं को प्रस्तुत करने का माध्यम कला है, जिसका बीज मंत्र दादा ने मुझे दिया। माता-पिता की वजह से मुझे माहौल मिलता गया। आध्यात्मिक माहौल के कारण मैं उपनिषद, क्रिष्चानिटी, इस्लाम विशेषकर सूफीज़म से संबंधित किताबें पढ़ती रही। कई दार्शनिकों को मैंने पढ़ा। एक घटना का उल्लेख मैं करना चाहूँगी। मैं छह-सात साल की रही हूँगी। मेरे बाल बहुत लंबे थे। माँ को उन्हें गूंथने में कफी मुश्किल होती थी। उस समय जब मैं लड़कियों की ड्राइंग बना रही थी। मेरी ड्राइंग में लड़कियों के बाल बहुत छोटे होते थे। एक दिन पिताजी की नज़र उस पर पड़ी और वे गंभीर हो गए । उन्होंने मुझसे पूछा, क्या तुम्हें छोटे बालों की ऐसी ड्राइंग अच्छी लगती है, तो मैंने हाँ में सिर हिलाया। दूसरे दिन वो मुझे सैलून ले गए  और मेरे बाल कटवा दिए । उसके बाद मेरा अलग ही व्यक्तित्व सामने था। मुझे लगा कि मेरे मन की बात किसी ने सुन ली। उसी समय मैंने समझ लिया कि यही मेरी भाषा है और यही मेरा रास्ता है। मुझे लगता है कि कैनवॉस केवल एक वस्तु नहीं, जीवंत है और लोगों से संवाद करती रहती है।

हिरण्य गर्भ की श्रृंखला काफी लोकप्रिय रही। इसकी प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
मैं पिछले 25 साल से ऊर्जा पर काम कर रही हूँ। हिरण्य गर्भ उसकी शुरुआत थी। मुझे लगता है कि हर आस्था में गर्भ का संदर्भ है। गर्भ को कोई नकार नहीं सकता। जब मैं और आप बात कर रहे हैं, तो उसके बीच भी गर्भ है, क्योंकि कोई नई बात इस बातचीत से निकलकर आती है। गर्भ हर जगह है, चाहे मनोवैज्ञानिक रूप में हो, शारीरिक रूप में हो, आध्यात्मिक रूप में हो या बौद्धिक रूप में। हर जगह उसकी उपस्थिति है। इसके लिए मुझे शोध के कई पहलुओं से गुज़रना पड़ा और यह क्रम आज भी जारी है। मुझे लगता है कि जब चित्र बनता है, तो वह चित्रकार का होता है, लेकिन जब वह दर्शक के सामने होता है, तो उससे जुड़ जाता है।
आम तौर पर लोग एक ही काम करके बोर होते हैं। आप यदि अपने में ऐसा भाव पाती हैं, तो क्या करती हैं?
ऐसे भाव हर व्यक्ति में आते हैं। एक कलाकार के लिए भी भूख को शांत करने के लिए नए -नए  विषयों की आवश्यकता होती है। मैंने अपनी कला यात्रा में ड्राइंग बनाई, उससे पेंटिंग की तरफ आई, उससे इंस्टालेशन का रुख किया और थ्री डी की इच्छा में वह मूरत की ओर रुख किया। उसके बाद जब लगा कि उसमें मूवमेंट चाहिए, तो फिर परफार्मेेंस बन गयी। कई लोग कहते हैं कि मैं पेंटर हूँ, तो इन सब बातों से मैं बँट जाऊँगी, लेकिन मुझे लगता है कि मैं समुंदर में मिलना चाहती हूँ। उस समुंदर में जिसकी अनेकों धाराएँ हैं, नदियाँ हैं, जो उसमें आकर मिलती है। उसमें जितनी शांति है, उतना ही जोश है। मुझे महसूस होता है कि अपने बनाए चित्र को मूरत में बदलना है, तो उसको वैसा करने में जुट जाती हूँ। मुझे याद है कि जब मैं बनारस के यात्रा से लौटते हुए कुछ मूर्तियाँ घर लायी, तो घर में आर्य समाजी विचार रखने वाले बुजुर्गों ने कहा कि दसवीं सीढ़ी से यह फिर पहली सीढ़ी की तरफ क्यों। मुझे लगता है कि हर किसी का रास्ता अलग-अलग है, लेकिन वह जा रहा एक मंजिल की ओर है। अगर कोई किसी रास्ते पर नहीं है, तो भी उसका एक रास्ता है। हमारे शरीर में एक सुप्रिम कांसेसनेस है, जो सर्वत्र सर्वज्ञ है, तो हमें यह मानना पड़ेगा कि सारी नसें एक व्यवस्था से जुड़ी हैं। कोई नस यह कह दे कि मैं शरीर का हिस्सा नहीं हूँ, तो उसके ऐसा कहने भर से कुछ नहीं होता। उसे अलग करने की ज़रूरत नहीं है। एक बार मेरे चित्रों में बड़ी अचंभित करने वाली स्थिति पैदा हुई। मैंने कुछ कमल के पौधे और फूल बनाए। कुछ फूल इधर-उधर हो गए  थे। देखने से आसानी से पता नहीं चल पाता था कि कौन-से पौधे से कौन-सा फूल उगा है।

कोई ऐसी चित्र श्रृंखला, जो काफी चुनौतीपूर्ण रही हो?
हाँ, लगभग 25 साल पहले की बात है। मैं पेपर पर चित्र उतारती थी। जब मैंने कैनवॉस पर ऐसा करना चाहा, तो हो नहीं पा रहा था। इस प्रयास में घर की सारी छत रंगों से भर जाती थी। यह तकनीक मुझे आसानी से समझ में नहीं आ रही थी। एक-डेढ़ साल तो मैं कैनवॉस पर अमूर्त की तरह चित्र उतारती रही। एक संघर्ष के दौर से गुज़रना पड़ा। मैंने फिर एक ही रंग में काम करना शुरू किया। एक दिन मैं अपनी बालकनी में खड़ी थी। आकाश में देख रही थी, तो वह नीले रंग का था, लेकिन नीचे पेड़ अलग-अलग रंग के, घर अलग-अलग रंग के, गाड़ियाँ अलग-अलग रंग की, साइकिल अलग और वहाँ जो लोग चल रहे हैं, उनके कपड़े अलग-अलग रंग के, लेकिन उसकी बनाई हुई दुनिया में सब कुछ अलग-अलग रंग का होकर भी मिला हुआ है। कुछ इतना सुंदर कि किसी को किसी के अलग होने की चिंता ही नहीं है। मुझे लगा कि मुझे रंगों को अलग-अलग रखने की चिंता क्यों है? तब मैंने रंगों को पूरी आज़ादी दी कि जाओ आसमान में विचरण करो, बल्कि उनसे कहा कि तुम जो कहोगे, मैं वही करूँगी।
एक नारी चित्रकार के रूप में आप औरत की वर्तमान हालत के बारे में क्या सोचती हैं?
दरअसल हम एक बहुत ही खराब दौर में दाखिल हो गए  हैं। हमारे देश में सारा सिस्टम मातृप्रधान हुआ करता था। औरत का बहुत सम्मान था। उसकी हालत बुहत अच्छी थी। मैं केवल औरत को औरत की तरह नहीं देखती, बल्कि पूरी प्रकृति को औरत के रूप में देखती हूँ। हमने पहला हमला तो प्रकृति पर किया, फिर हमें होश ही नहीं रहा। हमने हर चीज़ का नाजायज़ फायदा उठाया। निर्भया तो बस एक घटना थी, लेकिन हमने ज़मीन को खोखला कर दिया, नदियों को गड़बड़ कर दिया, जीवनदायिनी वायु को प्रदूषित कर दिया। हमें पता ही नहीं है कि हमें कहाँ रुकना है। माँ-बाप को पता नहीं है कि बच्चों को क्या सिखना है। मुझे लगता है कि इस लूट में सब के सब जुटे हुए हैं। जितना निकालना है, निकाल लो। जो खींच सकते हो, खींचो।

युवा चित्रकारों को क्या संदेश देना चाहेंगी?
युवाओं से कहना चाहूँगी कि अपने अनुभव से सीखो। विचार और अनुभवों को आत्मसात करना ठीक है, लेकिन उधार लेना ठीक नहीं, क्योंकि दूसरे का तजुर्बा चोरी है। आपको चलना सीखना है, तो चलना पड़ेगा। जो कुछ अनुभव सिखाते हैं, उससे सीखते रहो।

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