भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी अवसाफ सईद से एक मुलाक़ात

अवसाफ सईद भारतीय विदेश सेवा के 1989 बैच के अधिकारी हैं। वे इन दिनों सैशल्स में भारतीय उच्चायुक्त पद पर नियुक्त हैं। इससे पूर्व हैदराबाद में प्रांतीय पारपत्र अधिकारी के रूप व्यवस्था में कई प्रकार के सुधारात्मक कदम उठाने के लिए उन्हें याद किया जाता है। सऊदी अरब, अमेरिका सहित कई देशों में भारत सरकार के काउंसलेट जनरल के रूप में उन्होंने काम किया है। उनका जन्म 18 सितंबर, 1963 को हैदराबाद के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। पिता एवज़ सईद शहर के जाने-माने साहित्यकार थे। अवसाफ सईद ने अनवारुल उलूम से इंटर की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय से भू-गर्भ शास्त्र में स्नातकोत्तर और पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। सेवा के दौरान कैरो स्थित अमेरिकन विश्वविद्यालय से अरबी भाषा में उन्होंने डिप्लोमा किया। लीबिया, सऊदी अरेबिया, डेनमार्क, अमेरिका, पश्चिम अफ्रीका, यमन सहित कई देशों में भारतीय विदेश मंत्रालय के महत्वपूर्ण पदों पर उन्होंने सेवाएँ प्रदान कीं। सऊदी अरेबिया में पहला एशियाई फिल्मोत्सव मनाने और इसकी परंपरा शुरू करने का श्रेय उन्हें ही जाता है।
सप्ताह के साक्षात्कार में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं... 


भारतीय विदेश सेवा में जाने का ख्याल कब आया?
मेरा बचपन मल्लेपल्ली में बीता। यहीं पर अनवारुल उलूम कॉलेज से इंटर तक की शिक्षा प्राप्त की। मुझे याद है कि दसवीं के बाद छुट्टियों में कुछ समय था, तो सब की तरह मैं भी टाइपिंग सीखने चला गया। कुछ ही दिन में मेरी स्पीड काफी अच्छी हो गयी। लोअर पास हो गये, तो हायर के लिए उत्साहित किया गया। वहाँ एक-दूसरे में शॉर्ट हैंड इंस्ट्रक्टर बैठा करते थे। उन्होंने मेरी टाइपिंग स्पीड देखने के बाद कहा, तुम टाइपिंग अच्छी कर लेते हुए शॉर्ट हैंड भी सीख लो। इससे आईएएस अफसर के पीए बन सकते हो। फिर मैंने स्टेनोग्राफी सीख ली। मुझे याद है कि शॉर्ट हैंड इंस्ट्रक्टर एक किस्सा सुनाते थे कि उनका एक स्टुडेंट गोदरेज कंपनी में इंटरव्यू के लिए गया। उससे पूछा गया कि एक मिनट में आप कितने शब्द लिख सकते हो, तो उसने जवाब देने के बजाय पूछ लिया कि एक मिनट में आप कितने शब्द डिक्टेट कर सकते हैं। मतलब यह था कि काबिल हो, तो कामयाबी हासिल की जा सकती है। इस दौरान पहली बार मैंने आईएएस के बारे में सुना था। आईएएस अफसर का पीए नहीं बन सका, लेकिन आईएफएस बन गया। दरअसल उस दौर में इंजीनियरिंग और मेडिसिन का बोलबाला था। मेरे पिताजी यही चाहते थे, लेकिन मैं उस ओर नहीं जाना चाहता था। मैंने तो प्रवेश परीक्षा भी नहीं लिखी। पिताजी इससे काफी नाराज़ हुए। डिग्री के बाद मैं उस्मानिया यूनिवर्सिटी से एमएससी करना चाहता था। उन दिनों सीआईटीए में प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं की तैयारी कराई जाती थी। वहाँ एमएससी में प्रवेश परीक्षा के लिए भी कोचिंग दी जा रही थी, जिसमें जियोलॉजी भी एक विषय था। मोहम्मद नसीमुद्दीन साहब आईआरएस थे, जो वहाँ पढ़ाते थे। मुझे नसीमुद्दीन साहब की बात याद है। उन्होंने कहा था कि इस छोटे से ग्रुप में आप अपने को जज नहीं कर सकते। अपने स्तर को इतना बढ़ाइए कि आप किसी को भी कंपटिट कर सकें। बड़ा उद्देश्य रखिए, केवल एमएससी आपका लक्ष्य नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रशासनिक सेवाओं के लिए मुझे तैयारी करनी चाहिए। टाइपिंग सीखने से मुझे सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि नसीमुद्दीन साहब आईएएस बनने वाले उम्मीदवारों को पढ़ाने के लिए जो नोट तैयार करना चाहते थे, वे मुझे डिक्टेशन देते थे और उन्हें मैं टाइप करता था। इस तरह उनके पढ़ाने से पहले ही वह नोट मेरे दिमाग का हिस्सा होते थे। मैं लगभग 15 घंटे इस तरह पढ़ता और नोट्स की तैयारी करता। यह हुआ कि मेरा एमएससी की प्रवेश परीक्षा में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान आया।

आप जियोलॉजी में काफी दिलचस्पी रखते थे। कभी इस क्षेत्र में व@रियर बनाने का ख्याल आया?
हाँ, बिल्कुल, सर्वे ऑफ इंडिया में एक पद निकला था जूनियर टेक्निक असिस्टेंट का। तब मैं एमएससी फाइनल में था। दो पदों के लिए 100 उम्मीदवार थे, लेकिन मेरा चयन हो गया। मैंने पिताजी से कहा कि मैं यह नौकरी नहीं करूँगा। पिताजी नाराज़ हुए कि सरकारी नौकरी से मना कर रहे हो। मैंने बताया कि यदि मैं जियोलॉजिस्ट की परीक्षा दूँ, तो इस पद और और उस पद में 10 वर्ष का अंतर है। पिताजी ने प्रश्न किया कि क्या ज़रूरी है कि तुम उस परीक्षा में भी पास हो जाओ, तो मैंने उनसे पूछा कि आप यह किस तरह से कह सकते हैं कि मैं पास नहीं होऊँगा। सिविल सर्विस से पहले ओएनजीसी, देहरादून में वैज्ञानिक के पद के लिए मैंने साक्षात्कार दिया था, जिसके लिए मेरा नियुक्ति-पत्र आ गया था। इत्तेफाक यह रहा कि एपीएससी में भी मेरा चयन हो गया, लेकिन मैं सिविल सर्विस के परिणामों के इंतजार में रुका रहा। कुछ और घटनाएँ भी बड़ी दिलचस्प हैं। मैं जब सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था, तो लगभग 15 घंटे अध्ययन करता था। मेरे साथ मुश्किल यह थी कि मेरे अनवारुल उलूम कॉलेज के दोस्तों को सिविल सर्विस में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। होटलों में बैठना, गपशप करना आदि उनके शौक थे। मुझे दोस्ती भी बनाए रखनी पड़ती थी, क्योंकि मैं उन्हें इस बात का एहसास न्ाहीं दिलाना चाहता था कि मैं उनसे अलग हूँ। मैं शरीर से उनके साथ रहता था, लेकिन दिमाग मेरा हमेशा सिविल सर्विस की तैयारी वाले मूड में ही रहता था। मैंने परीक्षा लिखी और उत्तीर्ण हुआ। उस समय की बहुत दिलचस्प यादें हैं। मेरे एक सीनियर थे, डी.बी. कुमार। उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा लिखी थी, लेकिन उनका चयन नहीं हो पाया था। वो ब्रेन ट्री नामक इंस्टीट्यूट चलाते थे, जहाँ विद्यार्थियों को सिविल सर्विस की तैयारी कराई जाती थी। एक दिन मैं कुछ काम से बाहर निकला और दोस्तों से मिलते-मिलाते घर पहुँचने में देर हो गयी। उसी दौरान डी.बी. कुमार घर आये और वालिद को बताया कि सिविल सर्विस का रज़िल्ट आ गया है। वालिद साहब ने मुझसे पूछा कि क्या हुआ, उन्होंने याद दिलाया कि मैंने सिविल सर्विस का इम्तेहान लिखा था। मैंने उन्हें जवाब दिया कि मुझे पता नहीं, रात बहुत हो गयी है, सुबह देखेंगे। मैं अंदाज़ से समझ लिया था कि मैं शायद कामयाब नहीं हो पाया हूँ, लेकिन उन्हें यक़ीन था। उस समय दि हिन्दू समाचार-पत्र हमारे घर आता था, जिसमें परिणाम प्रकाशित होते थे। पिताजी ने सुबह जगाया और बताया कि मेरा नाम समाचार-पत्र में छपा है। उस समय ढाई लाख लोगों ने प्रिलिम्स लिखा था। उसमें से 2000 पर्सनॉलिटी टेस्ट के लिए चुने गये थे और 556 शार्ट लिस्ट हुए थे। 

आपने आईएफएस को ही क्यों चुना? क्या पहले से आपके दिमाग में कोई खाका था?
मेरे दिमाग़ में यह था कि सामान्य नौकरियों से हटकर कुछ अलग किया जाए। एक तरह से कह सकते हैं कि मेरे पैशन में सिविल सर्विस का तत्व शामिल हो गया था। विदेश सेवा के बारे में थोड़ा बहुत जानता था और कुछ जानना चाहता था। परीक्षाओं की तैयारी के दौरान में प्रो. बशीरुद्दीन साहब के पास गया, जो उस्मानिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। मुझे बताया गया था कि उनके सुपुत्र सय्यद अकबरुद्दीन फॉरन सर्विस में हैं। पूछने पर उन्होंने अपने लड़के की पूरी कहानी बताते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि मैं भी फॉरन सर्विस को प्राथमिकता दूँ, क्योंकि इसमें आईएस से कुछ अधिक अवसर मिलते हैं। विदेशों में रहने का मौका मिलता है। उन्हीं दिनों मैं वरिष्ठ आईएएस आबिद हुसैन साहब से भी मिला, ताकि कोई अच्छा मशवरा मिले। उस समय तक मैं मेन्स पास हो गया था। इंटरव्यू के लिए जाना था। उन्होंने बातचीत के दौरान बस इतना कहा कि यंग मैन मैं आपकी आँखों में देख रहा हूँ कि आप कामयाब हो जाओगे। मैं समझ गया कि वो यह जताना चाहते थे कि मैं अपने स्तर पर ही तैयारी करूँ और जो मैं हूँ, उसी को बताऊँ। खास बात यह थी कि 90 प्रतिशत रिश्तेदार अमेरिका और अरब देशों में हैं। शायद वह बात भी आईएफएस को प्राथमिकता देने में मेरे अंतर्मन में रही होगी। 

आम तौर पर छोटी-मोटी नौकरियाँ हासिल करने के लिए लोगों को काफी मुश्किल भरे हालात से गुज़रना पड़ता है, लेकिन बड़ी जिम्मेदारियों वाली सर्विस मिलने के बाद चुनौतियाँ शुरू होती हैं। आपके सामने किस तरह की चुनौतियाँ रहीं?
मैं बहुत खुश किस्तम था कि अब तक मुझे जो भी असाइनमेंट मिले, पूरे महत्वपूर्ण रहे। लेबनान के बाद जब मेरी पोस्टिंग हैदराबाद के प्रांतीय पासपोर्ट अधिकारी के रूप में हुई, तो मुझे इसका अंदाज़ा नहीं था कि मुझे यहाँ कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। दरअसल देखा जाए, तो यही मेरी पहली स्वतंत्र जिम्मेदारी थी। देश भर में मुंबई बम धमाकों के बाद स्थितियाँ काफी बदली हुई थीं। जब मेरी यहाँ नियुक्ति हुई, तो एक सीनियर अधिकारी ने बुलाया और हौसला बढ़ाया। उन्होंने कहा कि परिवर्तन के कार्य चरणबद्ध तरीके से करें और बड़े फैसले प्रक्रियागत रूप से लें। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। यह जिम्मेदारी का काम भी था कि विदेश सचिव जैसे वरिष्ठ अधिकारी ने हौसला बढ़ाते हुए विभागीय स्तर पर तटस्थ रूप से साथ खड़े रहने का वादा किया। मुझे यहाँ आने के बाद पता चला कि उच्च स्तरीय अधिकारियों ने मुझे नैतिक समर्थन देकर क्यों भेजा। यहाँ आने के बाद मैंने देखा काफी सारी समस्याएँ थीं। एक ओर भ्रष्टाचार की शिकायतों को दूर करना था, तो दूसरी ओर जनता को अधिक सुविधाएँ पहुँचाना था। नया पासपोर्ट जारी करने के लिए तीन महीने लगते थे। एजेंटों का दखल था। देश भर से कोई भी व्यक्ति फर्जी दस्तावेज़ बनाता और यहाँ से पासपोर्ट के लिए आवेदन दाखिल करता। आज जिस तरह जाँच के लिए तकनीक उपलब्ध है और जो प्रक्रिया है, उस समय नहीं थी। मैंने सीधे जनता से संपर्क बनाना शुरू किया। मैं हर दिन लगभग 500 लोगों से मिलता और उनकी समस्याएँ सुनता। यह प्रक्रिया सुबह 9.30 बजे से शुरू होती थी। पासपोर्ट अदालत की शुरुआत की गयी। इसमें सभी अधिकारी एक छत के नीचे होते और कोई भी आकर अपनी समस्या सुना सकता था। एक दिन एक सज्जन आये और कहा कि मैं पासपोर्ट अधिकारी से मिलना चाहता हूँ। एक अधिकारी ने उन्हें मेरे पास भेजा। उन्होंने मुझसे यही कहा कि वे अपनी समस्या केवल आरपीओ (प्रांतीय पासपोर्ट अधिकारी) को ही सुनाएँगे। उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि पासपोर्ट अधिकारी इस तरह दूसरे अधिकारियों एवं स्टॉफ के साथ लोगों से बिना किसी अप्वाइंटमेंट के मिलेंगे। मैंने उन्हें अपने ही कक्ष में भेजा और 45 मिनट बाद उनसे मिलने चला गया। काफी कुछ सुधार आये और पासपोर्ट जारी करने के समय को तीन महीने से घटा कर एक महीना कर दिया गया। उसी दौरान एक घटना कुछ ऐसी हुई कि कुछ लोगों को फर्जी पासपोर्ट की प्रक्रिया बंद करना पड़ा और गिरफ्तारियाँ भी हुईं। उस दौरान परिस्थितियों को देखते हुए विभाग की ओर से मुझे सुरक्षा उपलब्ध करायी गयी। उस समय के पुलिस महानिदेशक भास्कर राव अच्छा सहयोग कर रहे थे। जब जिद्दाह में मेरा स्थानंतरण हुआ, तो वहाँ भारतीय हज यात्रियों के निवास को लेकर जो श्रेणियाँ थीं, उसमें कुछ अनियमितताएँ थीं। मुझे उन्हें भी दूर करने का मौका मिला। 

सऊदी के काउंसलेट जनरल रहने के दौरान वहाँ अवैध रूप से रह रहे कर्मचारियों को एक साथ बड़ी संख्या में वापस भेजने की एक घटना आपके दौरान घटी। इसके बारे में कुछ बताइए।
जब मेरी पोस्टिंग वहाँ थी, तो लगभग 8 लाख भारतीय वहाँ रह रहे थे। यह घटना 2007 की है। अचानक एमनेस्टी की घोषणा कर दी गयी। लगभग 40 हज़ार भारतीय, जो वहाँ अवैध रूप से रह रहे थे, उन्हें वापस भेजने के लिए जेद्दा के तरहीन डिपोर्टेशन सेंटर में जमा कर दिया गया। आप अंदाज़ा लगाइए कि आपके मकान पर एक साथ 40 हज़ार लोग आ जाएँ, तो क्या हालत होगी। यह बड़ी चुनौती थी। उन्हें वापस भारत भेजना था। एक-दो दिन में उन्हें भेजा नहीं जा सकता था। उन सबके खाने-पीने का प्रबंध करना था। मैंने वहाँ जितने भारतीय उद्यमी, व्यापारी और कर्मचारी संघ थे, सभी से संपर्क किया और भारतीयों के खाने-पीने के प्रबंध का अनुरोध किया। इस तरह उनके तीनों समय के खाने का प्रबंध किया जा सका। ऐसे समय एक अधिकारी की जिम्मेदारी यह भी होती है कि उन हज़ारों लोगों में अपने देश के नागरिकों की पहचान करना, क्योंकि उनमें से अधिकतर लोगों के पास वैध दस्तावेज़ नहीं थे। उनके पासपोर्ट उनके पास नहीं होते थे। यहाँ तो एक साथ 40 हज़ार लोग थे। फिर उन्हें एमर्जेन्सी दस्तावेज़ देकर भेजना होता है। उन भारतीयों की मदद के लिए बड़े पैमाने पर प्रबंध किया गया और उन्हें भारत भेजने में सफलता मिली।

सऊदी अरब में फिल्मों की संस्कृति नहीं है, फिर आपने एशियन फिल्म फेस्टिवल के लिए स्थानीय सरकार को राज़ी कैसे कर लिया?
काउंसल जनरल के रूप में मैं एशियाई अधिकारियों के संघ एसीजीसी का महासचिव था। मैंने देखा कि वहाँ यूरोप के लोग फिल्मोत्सव करते हैं, लेकिन दूसरे देशों के लोगों को अनुमति नहीं थी। यूरोपीय कार्यालयों के उस महोत्सव में दूसरे लोगों को तो दूर स्थानीय लोगों को भी आमंत्रित नहीं किया जा सकता था। हमने भी योजना बनायी और 10 एशियाई देशों के एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में हम स्थानीय विदेश मंत्रालय के महानिदेशक के पास गये। वे सांस्कृतिक रूप से काफी उदार थे। पहले तो वे चौंके, लेकिन जब उन्होंने देखा कि 10 देशों के कि राजनायिक इसमें शामिल हैं, तो वे मान गये। उन्होंने शर्तें लगाते हुए कहा कि इसमें कोई बाहर का व्यक्ति शामिल नहीं होगा, केवल राजनायिक ही भाग लेंगे। सऊदी प्रतिनिधियों को भी इसमें आमंत्रित नहीं किया जाएगा। हमने उस वक़्त उनकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं, लेकिन जब फिल्मोत्सव हुआ, तो लगभग सभी शर्तें टूटीं। फिल्मोत्सव का उद्देश्य ही था, सांस्कृतिक आदान-प्रदान। हम स्थानीय लोगों को दिखाना चाहते थे कि राजनायिक आपस में देखकर क्या करते। आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि सऊदी में भी फिल्म क्षेत्र काफी उन्नत है, लेकिन वे लोग फीचर फिल्मों के बजाय डाक्युमेंट्री फिल्में बनाते हैं। हमने सऊदी फिल्म सोसाइटी से अपनी फिल्म दिखाने का अनुरोध किया। 10 दिन के इस महोत्सव में व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि हर दिन एक देश अपनी एक डाक्युमेंट्री और एक फीचर फिल्म दिखाए और सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाएँ। पहले दिन इंडिया डे था और उद्घाटन समारोह भी। उत्सव का उद्घाटन सऊदी डाक्युमेंट्री से किया गया। स्थानीय सांस्कृतिक विभाग के डिप्टी मिनिस्टर ने इसका उद्घाटन किया और वहाँ उपस्थित लोगों में आधे से ज्यादा सऊदी नागरिक थे। यह परंपरा आज तक चली आ रही है। इससे विभिन्न देशों के आपसी सांस्कृतिक रिश्ते मज़बूत होते हैं। मैं जब डेनमार्क में नियुक्त था, तो वहाँ प्रधानमंत्री वाजपेयी का दौरा काफी महत्वपूर्ण था। 18 वर्ष बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री वहाँ दौरे पर आये थे। वह दौरा ही उस पोस्टिंग को यादगार बनाने में काफी था।

कोई यादगार पोस्टिंग, जहाँ आपको कुछ हटकर काम करने का मौका मिला?
यूँ तो मैंने हर जगह कुछ न कुछ यादगार काम किये। जैसा कि मैंने इससे पहले बताया, लेकिन जब यमन में मेरी नियुक्ति हुई, तो यहाँ मुझे लगा कि ऐतिहासिक जड़ें काफी गहरी हैं। मुझे इसका शौक भी था। यहाँ पर मैंने स्थानीय ऐतिहासिक चीज़ों पर कई आलेख लिखे। एडन, जिसे किसी जमाने में पूरब का पैरिस कहा जाता था। आज तो खैर वहाँ दुबाई जैसे शहर हैं, लेकिन पिछली सदियों में एडन ही महत्वपूर्ण था। गाँधीजी ने यहाँ का दौरा किया था। एडन के विकास में पारसियों का भी योगदान था। भारतीयों ने भी इसमें म्ाहत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मैंने यहाँ के मंदिरों पर एक सर्वे किया था। उस वक्त वहाँ 14 मंदिर थे, उनका एक कैटलॉग बनाया गया। एक स्वतंत्रता सेनानी थे, वासुदेव बलवंत फड़के। लोगों को कालापानी तो पता है, लेकिन एडन के बारे में मालूम नहीं है। अंग्रेज़ उस समय उनके लिए अधिक खतरे वाले स्वतंत्रता सेनानियों को या तो अंडमान भेजते थे या फिर एडन, क्योंकि यह दूर था। इससे अंग्रेज़ों का खतरा कम हो जाता था। वासुदेव फड़के काफी साहसी थे। वे एक बार जेल तोड़कर बाहर भी निकले, लेकिन पकड़े गये। वहाँ उन्होंने भूख हड़ताल की और उसी हड़ताल के दौरान शहीद हो गये। गाँधीजी जब गोलमेज़ कॉन्फ्रेंस में गये थे, तो वापसी में वहाँ रुकना चाहते थे, लेकिन ब्रिटिश नहीं चाहते थे कि गाँधीजी वहाँ रुकें, लेकिन गाँधीजी को अपने पास मेहमान बनाने के लिए ब्रिटिश कमांडर के खिलाफ वहाँ की जनता सड़कों पर आ गयी। इसके बाद गाँधीजी, सरोजिनी नायुडू और मदन मोहन मालवीय वहाँ रुके। उसी दौरान अरबी भाषा में गाँधीजी का पहला साक्षात्कार प्रकाशित हुआ, जिसे मोहम्मद लुकमान ने लिखा था। मेरी मुलाकात उनके पुत्र डॉ. फारुक लुकमान से हुई थी, जो अरब न्यूज़ के संपादक हो गये थे।

नयी पीढ़ी के युवाओं को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
आज कई सारे दूसरे आकर्षणों, निजी और कॉर्पोरेट क्षेत्रों में बड़े अवसरों के बावजूद सिविल सर्विस में लोगों की रुचि बनी हुई है। हैरत देखिये कि बिहार जैसा राज्य, जहाँ उच्च शिक्षा के लिए बहुआयामी सुविधाएँ नहीं हैं, से भी युवा सिविल सर्विस में आते हैं और देश में परिवर्तन लाने का हिस्सा बनते हैं। यह तय है कि जब आप कुछ करना चाहते हैं, जब पॉवर में होते हैं, तो आपके पास समाज में परिवर्तन लाने के लिए काफी अवसर होते हैं। निजी क्षेत्र की बड़ी नौकरियों में बने रहने के लिए हर समय चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, तो सरकारी क्षेत्र में भी आपको अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करना पड़ता है। पारदर्शिता और उत्तरदायित्व बढ़ गये हैं। इसलिए बदलाव लाने के इच्छुक युवाओं के लिए यहाँ अवसर है।

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