भारतीय फार्माकोपिया आयोग के चेयरमैन डॉ. मुहम्मद अब्दुल वहीद से गुफ्तगू

यह जरूरी नहीं है कि किसी भी क्षेत्र में महान कार्य करने के लिए मशहूर स्कूल और कॉलेज में ही पढ़ें या सब कुछ छोड़ कर एक ही धुन में लगे रहें। दुनिया और दुनियादारी के साथ भी एक साधारण स्कूल में पढ़ कर बड़े काम किए जा सकते हैं। शर्त यही है कि दुनिया को कुछ देने का भाव मन में हो। इस गणतंत्र दिवस पर हैदराबाद से घोषित पद्मश्री पुरस्कारों की सूची में यूनानी शोधकर्ता डॉ. मुहम्मद अब्दुल वहीद का नाम उल्लेखनीय है। पद्म पुरस्कार के साथ-साथ भारत सरकार ने उन्हें बड़ी जिम्मेदारी दी है। उन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले भारतीय फार्माकोपिया आयोग का चेयरमैन बनाया गया है। मोहम्मद अब्दुल वहीद का जन्म 22 फरवरी, 1955 को  तेलंंगाना के महबूबनगर जिले में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पेट्लाबुर्ज सरकारी उर्दू पाठशाला में हुई। वे अनावारुल उलूम से इंटर की शिक्षा प्राप्त करने वाले पहले ऐसे छात्र हैं, जिन्हें पद्म पुरस्कार के लिए चुना गया है। बचपन से उनके मन में एमबीबीएस कर डॉक्टर बनने की इच्छा थी, जिसके लिए उन्होंने एमसेट लिखा, लेकिन प्रवेश नहीं मिल सका। इसके बाद उन्होंने बीयूएमएस में प्रवेश लिया। जेआरएफ के लिए शोधार्थी के रूप में उनका चयन हुआ। कुछ ही दिन बाद भारत सरकार के हैदराबाद स्थित यूनानी शोध संस्थान में चिकित्सक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने अपने चिकित्सीय और शोधार्थी जीवन में शोध को प्राथमिकताएँ दीं और यूनानी चिकित्सा पद्धति को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए सतत प्रयासरत रहे। भारत सरकार की कई चिकित्सा शोध परियोजनाओं के साथ वे जुड़े रहे। कैलिफोर्निया के यूनिवर्सिटी ऑफ लॉस एंजिलिस, दिल्ली के एम्स तथा मुंबई के केम में उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई परियोजओं में उन्होंने सक्रिय रूप से काम किया। वे केंद्रीय यूनानी चिकित्सा शोध संस्थान के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए। विटिलिगो (त्वचा पर सफेद धब्बों का रोग) के उपचार के लिए उनके द्वारा किया गया शोध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। वे आयुष मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली सीसीआरयूएम परिषद की सलाहकार समिति के अध्यक्ष भी रहे। 160 शोध परियोजनाओं के समन्वयक तथा 17 यूनानी फार्मूलों के विकास का रिकॉर्ड उनके नाम है। सप्ताह के साक्षात्कार में उनसे हुई बातचीत के अंश इस प्रकार हैं... 

डॉक्टर का व@रियर आम तौर पर लोग योजनाबद्ध तरीके से बनाते हैं। क्या आपके साथ भी यही हुआ?
डॉक्टर बनने का शौक बचपन से था। अंग्रेज़ी में दक्षता के लिए सिटी कॉलेज के पास पंडितजी से मैंने टयूशन लिया। वो ग्रामर सिखाते थे। मैं एमबीबीएस डॉक्टर बनना चाहता था, लेकिन प्रवेश नहीं मिल सका। उसी समय देखा कि बीयूएमएस में प्रवेश मिलने की संभावनाएँ हैं, तो इसमें ही प्रवेश ले लिया। मेरी खुशकिस्मती रही कि बीयूएमएस के पूरा होते ही जेएआरएफ में योग्यता मिली और उसके सात महीने बाद ही मेरी भारत सरकार के संस्थान में नियुक्ति हो गयी।

माना जाता है कि बीयूएमएस के विद्यार्थी और चिकित्सक खुद को एमबीबीएस की तुलना में हीन समझते हैं, यह कितना सही है? क्या आपके साथ ऐसा कुछ हुआ?
यह सही है। शुरू में मुझमें भी यह एहसास था और मैं सोचता था कि एमबीबीएस करता, तो अच्छा होता, लेकिन बाद में यह सोच जाती रही और मैं अब यह सोचता हूँ कि अच्छा हुआ कि मैंने यूनानी के क्षेत्र को चुना। एमबीबीएस होता, तो शायद किसी एक क्षेत्र का विशेषज्ञ बन कर रह जाता। शोध के क्षेत्र में काम करते हुए मैं यूनानी औषधियों के खज़ाने ढूँढ निकालने से वंचित रह जाता। मैं विटिलिगो जैसी सामाजिक अभिशाप समझी जाने वाली बीमारी का उपचार ढूंढ नहीं पाता। कई सारे प्रयोग, जो यूनानी में मैंने किए, नहीं कर पाता।
विटिलिगो के उपचार का विचार कैसे आया?
जब मैं ओपी में बैठता था, तो अक्सर लोग त्वचा पर आने वाले सफेद धब्बों की परेशानी लेकर आते। उनसे बातचीत करने के दौरान मुझे महसूस हुआ कि यह केवल रोग नहीं है, बल्कि लड़कियों के लिए तो यह सामाजिक अभिशाप है। इसके चलते उनकी शादी नहीं होती है। इसके अलावा उनकी दूसरी बहनों की शादी में भी परेशानी आती है। उनकी माताएँ चिंता ग्रस्त होकर सो नहीं पाती हैं। उसी दौरान मुझे हज की यात्रा पर जाने का मौका मिला। मैंने दुआ की कि मैं इन दु:खी लोगों के लिए ऐसा कुछ कर सकूँ, जिससे उनकी समस्याएँ दूर हों। मैंने इस पर शोध करना शुरू किया, तो उस समय किसी भी चिकित्सा पद्धति में आधे पृष्ठ से अधिक जानकारी नहीं मिली। मैंने उस्मानिया एवं गांधी मेडिकल कॉलेजों के पुस्तकालय छान मारे। पता चला कि दुनिया में 1 प्रतिशत और भारत में 3 प्रतिशत लोग इसके शिकार हैं। 30 प्रतिशत लोगों में यह बीमारी युवावस्था में आती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस शोध के दौरान ही मैं जान पाया कि इसका संबंध मनोविज्ञान से है। इसके उपचार के लिए रोगी की मन स्थिति में सुधार लाना अनिवार्य है। मैंने कई रोगियिों कि लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श की कक्षाएँ रखीं। शोध में रुचि को देखते हुए कुछ लोगों ने मेरे पास अमेरिकी चिकित्सा जरनल भेज्ो। मैंने यूनानी में पुरानी किताबों के पन्ने पलटे और बहुत सारे प्रयोगों के बाद इस नतीजे पर पहुँचा कि इसका उपचार हो सकता है। आज भारत सरकार के पास इस विषय पर 300 पृष्ठों का शोध दस्तावेज़ है। सरकार ने इसका मोनोग्राफ बनाया है। हम इसके उपचार में 80 प्रतिशत सफल हुए हैं। 

शहर में ऐसे कई चिकित्सक हैं, जो यूनानी और आयुर्वेदिक पद्धति से डॉक्टर की डिग्री रखते हैं, लेकिन प्रैक्टिस एलोपैथी की करते हैं, इसका क्या कारण है?
रेडीमेड मनी...दरअसल आसानी से रुपया कमाने की सोच के कारण कई डॉक्टर लोगों की जटिल समस्याओं का हल नहीं ढूँढ पाते। यूनानी में औषधियों का खज़ाना है। मैं ऐसे लोगों को सुझाव देना चाहूँगा कि वे सुपर स्पेशॉलिटी क्लीनिक शुरू कर सकते हैं, जहाँ कई असाध्य बीमारियों का उपचार यूनानी में संभव है। इस क्षेत्र में पहचान बनाने में कुछ समय ज़रूर लगता है, लेकिन बाद में पैसा और पहचान दोनों कदम चूमेंगे। 

आपने यूनानी में वैज्ञानिक शोध तथा क्लीनिकल ट्रायल के माहौल को बढ़ावा दिया, जिसमें प्राणियों व मानव दोनों का उपयोग किया गया। इस काम में क्या ऐसा था, जिसे आप चुनौतीपू्र्ण मानते हैं?
वर्ष 2008 मेरे लिए मील का पत्थर साबित हुआ। सीआरआईयूएम, हैदराबाद में अत्याधुनिक शोध सुविधा स्थापित करने के लिए भारत सरकार के केंद्रीय यूनानी चिकित्सा शोध परिषद (सीसीआरयूएम) तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की ओर से संयुक्त परियोजना मंज़ूर हुई। इसके अंतर्गत 5.22 करोड़ रुपए की लागत से विट्रो सेल कल्चर, मोल्युक्यूलर बायोलॉजी, औषधि मानकीकरण, अत्याधुनिक समीक्षात्मक उपकरण जैसी सुविधाओं को स्थापित किया जा सका। इस आधारभूत संरचना के कारण कई चुनौतियों का सामना आसानी से किया जा सका। जिसे हम बड़ी चुनौती स्वीकार कर सकते हैं, वह है औषधियों का वैज्ञानिक आधार। यदि हम यूएस एफडीए में अपना प्रस्ताव भेजना चाहते हैं, तो वहाँ पहला प्रश्न वैज्ञानिक आधार से संबंधित होता है। इसके द्वारा हम अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी को अपना सकते हैं। यह तरीके अपनाने की संभावनाएँ अनंत हैं, लेकिन इसके लिए खूब मेहनत भी करनी पड़ी। शोध के दौरान सुरक्षा और शोध के बाद औषधि का मानक उपयोग, इन दोनों मुद्दों पर जमकर काम किया गया और आज हैदराबाद की यूनानी शोध प्रयोगशाला देश की उत्तम प्रयोगशालाओं में से एक है।

यूनानी चिकित्सा पद्धति भारत में कितनी प्रभावित है और इसके विकास के लिए क्या किया जा रहा है?
हैदराबाद में इसको बहुत प्रोत्साहन प्राप्त है। केंद्र और राज्य सरकारें इसके विकास के लिए कार्य कर रही हैं। यहाँ यूनानी डिस्पेंसरियाँ भी हैं। सिविल और राज्य स्तर के अस्पताल हैं। केंद्र सरकार का संस्थान है। वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति में यूनानी तरीका काफी कारगर साबित हो सकता है। असंक्रामक बीमारियों के उपचार में यह पद्धति काफी लाभदायक सिद्ध हो रही है। इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए प्रभावी प्रयास होने चाहिए। विटिलिगो मेडिसिन के लिए एक ड्रग डोज़र यूएस एफडीए की मज़ूरी के लिए भेजा गया है।

आपने अपने शौक और मेहनत से यूनानी चिकित्सा के तौर-तरीकों में क्या इजाफा किया?
मैं शुरू से शोध के क्षेत्र में रुचि लेता आया हूँ। सबसे पहले शोध के लिए एक प्लेटफार्म विकसित करने की ज़रूरत थी, जिसमें कामयाबी मिली। कई स्तरों पर समन्वय एवं सहयोग के साथ दवाइयों का विकास किया गया है। विशेषकर दवाइयों के प्राचीन स्वरूप में परिवर्तन लाते हुए उसे टैबलेट के रूप में परिवर्तित करने का काम हुआ है। गुणवत्ता नियंत्रण के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं और सबसे अच्छी बात यह रही है कि यूएसएफडी से शोध की मंज़ूरी के प्रयास द्वारा यूनानी पद्धति को वैश्विक पहचान दिलाने की कोशिश हुई है। 

क्या यूनानी और एलोपैथी पद्धति के संयुक्त मिश्रण से कुछ लाभदायक उपचार तलाशा गया है?
दोनों की पहचान और प्रकृति अलग है। हाँ, एलोपैथी की तर्ज पर यूनानी में गुणवत्ता के विकास के लिए कुछ काम ज़रूर हुआ है। फार्मूलों की री-डज़िाइनिंग और सबूत आधारित चिकित्सा पद्धति को प्रोत्साहन देने की प्रेरणा एलोपैथी से ली गयी है।

आम तौर पर यह माना जाता है कि यूनानी के बारे में अधिकतर जानकारी फारसी और उर्दू में है। नई पीढ़ी को उर्दू न आने के कारण वे उसमें अधिक रुचि नहीं ले पा रहे हैं। इस बारे में क्या कहेंगे?
यह सही है, लेकिन इस समस्या को हल करने हमने पुराने दस्तावेज़ों का अनुवाद शुरू किया है। इसके लिए बनाई गयी समिति ने फारसी और उर्दू दस्तावेज़ों का अंग्रेज़ी, रूसी, जापानी और अन्य भाषाओं में अनुवाद करना शुरू किया है। पारंपारिक ज्ञान के डिजिटलाइजेशन का काम शुरू हो चुका है। 

यूनानी उपचार पद्धति के भविष्य और इसकी संभावनाओं के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
यहाँ अपार संभावनाएँ हैं। गुर्दे के उपचार के क्षेत्र में हाल ही में बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं। मधुमेह, हाइपर टेंशन और हेपटाइटिस के क्षेत्र में अच्छे शोध हुए हैं। सुपर स्पेशॉलिटी के क्षेत्र में काफी अच्छा काम किया जा सकता है। डायलिसिस करवाने वाले मरीज़ों का उपचार भी आशाजनक रहा है।

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