मुझसे बहुत प्रेम करती थीं महादेवी वर्मा- जसराज

संगीत मार्तंड पंडित जसराज आज भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दिग्गज संगीतज्ञ माने जाते हैं। जब अपने दौर के बड़े संगीतकारों में वे युवा थे, संगीत की दुनिया में उभरते सितारे थे, संगीत रसिकों को अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर रहे थे, तभी हिन्दी साहित्य की समरज्ञी मानी जाने वाली महादेवी वर्मा से उनकी मुलकात हुई। महादेवी वर्मा उन्हें अपना अनुज मानती थीं। पंडितजी जब भी इलाहबाद जाते, उनसे मिलना नहीं भूलते। एक दौर ऐसा भी था, जब महादेवी वर्मा ने लोगों से मिलना-जुलना बंद कर दिया था। इसके बावजूद जब उनके अनुज (पंडित जसराज) उनसे मिलने जाते थे, तो वह ज़रूर मिलती थीं। आज पंडित जसराज 86 वर्ष के हो चुके हैं। आज भी उन्हें महादेवी वर्मा से हुई मुलाक़ातें याद हैं। वे कहते हैं, `महादेवी वर्माजी मुझे बहुत प्रेम करती थीं और मुझे अपना अनुज मानती थीं।'
पंडित जसराज ने 2 दिसंबर को हैदराबाद मे विशेष बातचीत के दौरान अपनी बहुत सारी यादों को ताज़ा किया। वर्ष 1960 की एक घटना का उल्लेख करते हुए संगीत मार्तंड ने कहा कि ग्वालियर के तानसेन महोत्सव में उन्हें पहली बार बुलाया गया। वहाँ निसार खान साहब और कृष्ण राव पंडित जैसे बड़े कलाकार मौजूद थे। उन्हें राग जौनपुरी गाने को कहा गया और उन्होंने वही गाया। गायन समाप्त होने के बाद वे जयदेव सिंह से मिले, जो उन दिनों रेडियो चीफ प्रोडयूसर हुआ करते थे। उन्होंने कहा, `बेटा आपने बहुत अच्छा गाया, लेकिन धैवत देसी लगाया।' यह सुनकर निसार खान साहब ने कहा कि बच्चा इतना खूबसूरत गाया और आप ऐसे कह रहे हैं। आपने रहीमखानी मल्हार पर तो कुछ नहीं कहा। यह सुनकर जयदेव सिंह चुप हो गये। रहीम खान साहब भी वहीं गा रहे थे। उन्होंने मियाँ की मल्हार की प्रस्तुति दी थी। कृष्ण राव पंडित ने भी पंडितजी की पीठ थपथपायी।
आम तौर पर लोग जवानी में काफी गर्म खून के होते हैं और क्या पंडितजी के साथ भी ऐसा कभी कुछ हुआ, क्या उनकी किसी के साथ मुठभेड़ हुई? इस प्रश्न के उत्तर में पंडितजी ने कहा, `मुठभेड़ के लिए स्वभाव भी वैसा होना चाहिए। मेरे लिए अच्छी बात यह थी कि उस समय के हम उम्र और बड़े कलाकार मुझसे बहुत प्यार करते थे। खास तौर पर दिल्ली के निसार अहमद खान साहब का जिक्र करना चाहूँगा, जो बहुत अच्छा गाते थे। हाफज़ि अहमद खान साहब और गुलाम मुस्तफा खान साहब भी बहुत अच्छा गाते थे। एक बार मुठभेड़ हुई थी, हालाँकि इसको मुठभेड़ कहना उचित नहीं होगा। गुलामअली खान साहब के बेटे मुनव्वर अली खान और उनके भाई फैयाज़ अहमद खान साहब भी अच्छा गाते थे। ये दोनों गुलाम मुस्तफा साहब और दो और लोगों के साथ गेट पर खड़े थे और मैं कार्यक्रम के लिए जा रहा था। मैं झुककर उन्हें आदाब कर आगे बढ़ गया। जैसे ही मैं आगे बढ़ा, उन्होंने टिप्पणी की कि अरे मियाँ झुक झुक के तो यहाँ तक पहुँच गये। इस पर मैं पलटा और दिल की तरफ इशारा करके उनसे कहा, `खान साहब अंदर भी तो कुछ होगा।' मुझे याद आता है कि मैं अपने ध्यान मेेंं था, कुछ गाने की तैयारी कर रहा था। इसीलिए इतना सा जवाब दे दिया। उनमें से एक ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा कि जाने दो पंडितजी को। अगर  मैं अपने ध्यान में न रहता, तो मुठभेड़ कर बैठता और कह देता कि आप भी झुक जाइए, पहुँच जाएँगे।'
किसी भी कवि, कहानीकार, उपन्यासकार अथवा चित्रकार के पास अपनी कला को निखारने के लिए एक इमेज व एक आदर्श होता है, जबकि संगीत और शायरी के लिए सौंदर्य और रूमानियत काफी महत्वपूर्ण है। क्या पंडित जसराज के लिए ऐसा कुछ रहा? इस विषय पर बड़ी ही खूबसूरती से अपने विचार रखते हुए पंडितजी ने कहा कि खूबसूरती का पैमाना समय के साथ बदलता रहता है। उसमें नये-नये भाव शामिल होते रहते हैं। पंडितजी बताते हैं कि दोस्ती उन लोगों से अधिक होती है, जो बार-बार मिलते हैं और मिलते रहते हैं। जो कभी-कभी मिलते हैं, उनके साथ तो बस जान-पहचान होती है। जहाँ तक किसी को सामने रखकर गाने की बात है, तो जिस ज़माने में जो जम जाए, वही ठीक है। असल में ज़िंदगी चलने का नाम है। यहाँ कुछ रुकता नहीं है। जब रुक जाए, तो समझिए कि वह मौत है।
पंडित जसराज मानते हैं कि नये कलाकारों को इस स्तर तक पहुँचने के लिए प्रोत्साहन अनिवार्य है, चाहे वह किसी लेखक का हो। जब वह एक मुक़ाम तक पहुँच जाता है, तो फिर अपनी जगह खुद बनाने का दायित्व उस पर आ जाता है। बातों बातों में आधुनिक मीरा के रूप में मशहूर लेखिका एवं हिन्दी की छायावादी कविता की प्रमुख स्तंभ महादेवी वर्मा का जिक्र हुआ। पंडितजी ने बताया कि इलाहाबाद के एक कार्यक्रम में महादेवी वर्मा ने उनका गाना सुना और बहुत देर तक सुनती रहीं। जब वह उठकर जा रही थीं, तो पंडित जसराज ने सूरदास की रचना गानी शुरू की थी, `उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस। सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस...।' यह सुनकर वह वापस आयीं और बैठकर पूरी रचना सुनीं। बाद में एक बार फिर वो इलाहाबाद गये और कार्यक्रम के स्थानीय कमिश्नर से महादेवी वर्मा को बुलाने को कहा, तो कहा गया कि वे नहीं आयेंगी, क्योंकि अधिकारियों को बंदर सेना कहती हैं। पंडित जसराज बताते हैं, `अधिकारी की बात सुनकर वे खुद उनसे मिलने गये, तो वह राजी हो गयीं और एक घंटा पहले आनंद भवन में पहुँच गयीं। एक और बार जब वे उनसे मिलने इलाहाबाद गये, तो उन्होंने किसी से भी मिलने से इनकार कर दिया था। इसी बीच मैं उनसे मिलने पहुँचा और उनके भाई से अपना परिचय पंडित जसराज के रूप में दिया, तो महादेवी वर्मा ने मिलने से इनकार कर दिया। इसके बाद मैंने कहवाया कि उनसे कहिए अनुज आया है, तो वे मिलने के लिए राज़ी हो गयीं।

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