परिवार से टूटकर नहीं निखरते नेतृत्व के गुण: ममता बिनानी


ममता बिनानी इंस्टीटयूट ऑफ कंपनी सेक्रेट्रीज़ ऑफ इंडिया (आईसीएसआई) की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उनका नाम चार्चित महिला व्यवसायियों में आता है। आईसीएसआई के इतिहास में वह दूसरी राष्ट्रीय महिला अध्यक्ष हैं। कॉर्पोरेट एवं पेशेवर मुद्दों पर एक अच्छी वक्ता के रूप में उन्हें पहचाना जाता है। ममता बिनानी का जन्म कोलकाता के एक राजस्थानी परिवार में हुआ। उनके पिता कास्ट अकाउंटेंट हैं। कॉमर्स में डिग्री के बाद उन्होंने सीएस की परीक्षा लिखी, लेकिन परिणाम आने से पहले ही उनका विवाह हो गया। ससुराल में प्राथमिक रूप से उनके आगे पढ़ने की संभावनाएँ शून्य हो गयीं थीं, लेकिन जब परीक्षा परिणाम आया, तो उन्होंने महिला उम्मीदवारों में प्रथम स्थान परप्त किया। इससे उनके भविष्य में नयी रोशनी पैदा हुई। उन्होंने कंपनी सेक्रेट्री के पेशे में एक स्वतंत्र व्ययवसायी के रूप में कई बड़े उद्योगों को अपनी सेवाएँ प्रदान कीं। मुख्य प्रबंधक स्तर के अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में प्रशिक्षक के रूप में उनका नाम कई कंपनियों की सूची में शामिल है। वर्ष 2010 में उन्हें आईसीएसआई की पूर्व प्रांतीय काउंसिल का चेयरपर्सन चुना गया। यह पद प्राप्त करने वाली वह पहली महिला थीं। इसके अलावा पिछले दिनों जब भारत सरकार ने दिवालिया कंपनी मामलों के लिए अलग से बोर्ड का गठन किया गया, तो उसके लिए चयनित होने वाली पहली व्यवसायी बनने का श्रेय उन्हें मिला। हाल ही में आईसीएसआई के एक सम्मेलन के लिए वह हैदराबाद आयी थीं। सप्ताह का साक्षात्कार स्तंभ के लिए उनसे हुई बातचीत के अंश कुछ इस प्रकार है-
कंपनी सेक्रेट्री के बारे में आपने पहली बार कब सुना था?
1993 में इसके बारे में कुछ सुना था। मैंने यह कोर्स 1995 में ज्वाइन किया। शुरू में दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन जब पढ़ना शुरू किया, तो रुचि बढ़ती गयी। दरअसल प्रवेश परीक्षा का परिणाम आने से पहले ही मेरी शादी हो गयी। सास-ससुर ने कह दिया था कि पढ़ाई खत्म कर दो। मैंने भी कुछ नहीं कहा। जब परीक्षा परिणाम आया, तो पूरे देश में महिलाओं में मैं प्रथम स्थान पर आयी। तब सास-ससुर ने आगे बढ़कर कहा कि पढ़ाई जारी रखो। एक तरह से परीक्षा परिणामों ने ही भविष्य के दरवाज़े खोले। अगर परिणाम में मेरा अच्छा प्रदर्शन नहीं आता, तो शायद मैं अपनी पढ़ाई आगे जारी नहीं रख पाती।
आप शुरू से ही कोलकाता में रह रही हैं या फिर शादी के बाद वहाँ स्थानांतरित हुईं?
हमारा संबंध राजस्थान से है। हमारा परिवार विभाजन के समय लाहौर से कोलकता आया था। यहाँ भवानीपुर में रहने लगे और बाद में यहीं से मेरा विवाह हुआ। हम दो बहनें थीं। पापा कास्ट अकाउंटेंट थे। शालीनता और आचार-विचार के मामले में हम कभी ग़रीब नहीं रहे। पढ़ाई पर काफी ज़ोर दिया जाता था। मुझे भी पढ़ने का शौक था। अच्छी बात यह रही कि जब मेरी शादी हुई, तो मैं 40 लोगों के संयुक्त परिवार में गयी थी। अब भी हम 14 लोग साथ में रहते हैं। मैं परिवार में सबसे बड़ी बहू हूँ। हम तीन देवरानी-जठानी हैं। सब अपने हिसाब से रसोईघर में अपनी भागीदारी निभाती हैं। मैं इस बात में विश्वास करती हूँ कि जिम जाकर पसीना बहाने से अच्छा है घर का काम करूँ।
जब आपने आईसीएसआई के लिए क्वालिफाई किया, तो क्या आपने नौकरी की या फिर स्वतंत्र रूप से इस पेशे में काम शुरू किया?
ऑल इंडिया स्तर पर प्रथम स्थान परप्त किया था, ऐसे में मुझे बहुत सारे ऑफर थे। मैं चाहती थी कि अपना ही कुछ करूँ। फिर स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस शुरू की। शुरुआत में कुछ तकलीफ रही।
किस तरह की तकलीफ?
शुरुआत में काम नहीं मिलता था। उन्हीं को काम मिलता था, जिनके पास पहले से काम है। लोग उन्हीं को प्राथमिकता देते थे, पहले से जिनका नाम है। तीन साल के संघर्ष के बाद प्रोत्साहन मिलता गया और काम बढ़ता गया।
उस संघर्ष के दौर की कुछ घटनाएँ?
उस समय बहुत कम फीस पर काम करना पड़ा। दो-तीन घटनाएँ तो ऐसी हैं कि जिस कंपनी के पास गये, वहाँ संबंधित अधिकारी से मिलने के लिए घंटों इंतज़ार करना पड़ता था। बातचीत के बाद भी सिर्फ आश्वासन ही मिला। काम नहीं मिलता। कई बार ऐसा भी विचार आता कि क्या अपना काम शुरू करके ग़लती तो नहीं की, लेकिन यह भाव अधिक देर तक टिक नहीं पाता। एक सब्र था कि अगर अपना काम शुरू किया है, तो समय तो लगेगा ही। यह अनुभव मेरे बहुत काम आया। इसके अलावा मैंने कभी भी ग़लत कामों में हाथ नहीं डाला। ऐसा नहीं किया कि जो भी काम मिला ले लो। अपने नाम और प्रतिष्ठा को कभी बट्टा लगने नहीं दिया। अपने आपको सुधारने की कोशिश की। हमेशा लगा कि मुझे भीड़ से अलग खड़े होना चाहिए। बोलना सीखूँ, समाचार-पत्र पढूँ, अपने आपको अपडेट रखूँ। शुरू में जब संगोष्ठियों में बोलने का मौका नहीं मिलता था, तो फ्लोर से प्रश्न पूछती थी। उसके लिए तैयारी करके जाती। बाद में मुझे खुद सीएस की क्लासेस लेने का मौक मिला। इससे काफी सुधार हुआ।
आपको अपने पहले क्लाइंट से कितनी आय हुई थी?
मुझे याद है कि हज़ार रुपये मिले थे। मैंने उन दिनों एक लक्ष्य के साथ काम किया कि हर दिन कम से कम हज़ार रुपये का काम हो। यदि एक दिन वह लक्ष्य पूरा नहीं होता, तो दूसरे दिन पहले दिन और दूसरे दिन दोनों लक्ष्य सामने होते। यह लक्ष्य पूरा हो भी जाता। महिला होने के कारण हमारे सामने रोजी-रोटी की समस्या नहीं थी, फिर भी मुझे लगता है कि टार्गेट सेट नहीं करते, तो हम उतनी मेहनत नहीं कर पाते, जितनी करनी चाहिए।
कभी आपने सोचा था कि एक एक व्यवयासायी संस्था की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेंगी। यह सफर कितना मुश्किल रहा?
सपना तो लेकर चल रही थी। पाँच-छह सालों से यह सोच रही थी। पहले ईस्टर्न जोन की अध्यक्ष बनी। फिर चार साल इससे अलग रही, क्योंकि विरोध काफी रहा। काउंसिल मेंबर के रूप में भी संस्थान में प्रवेश नहीं करने दिया गया। सबको लगने लगा था कि यह महिला राष्ट्रीय काउंसिल में प्रवेश की कोशिश में है। मैं आज उनको धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने मुझे रोकने की कोशिश की। चार साल बाहर रहकर मैंने अपने काम पर दुगुने, तिगुने नहीं, बल्कि चौगुनी ऊर्जा के साथ काम किया। अपने वोेटरों पर खूब मेहनत की। जब वोटिंग के बाद मुझे सेंट्रल काउंसिल में प्रवेश मिला, तो मुझे राष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक वोट परप्त हुए थे। मैंने 50 सालों के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये थे।
आपको देखकर लगता नहीं कि आप इतनी ताकतवर हैं?
पब्लिक लाइफ में हूँ, तो मेंटेन करना पड़ता है। मेरी असली ताकत मेरे पति हैं। 22 वर्ष हो गये हैं मेरी शादी को। उन्होेंने ही मुझे हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हर कदम पर मेरा साथ दिया।
जीवन में कोई चुनौतीपूर्ण लम्हा?
वैसे तो जीवन में बहुत से चुनौतीपूर्ण लम्हे आए, लेकिन इनसे मुझे कभी डर नहीं लगा। कभी ऐसा नहीं लगा कि रिजेक्शन हो रहा है। नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से भी मुझे ताकत मिलती रही। मुझे किसी भी चीज़ से घबराहट नहीं होती। जब मुझे कोई कहता है कि तुम यह काम नहीं कर पाओगी, उस समय वह काम करने में मुझे अधिक आनंद आता। मुझे लोगों ने सेंट्रल काउंसिल में आने से रोकने की काफी कोशिश की। मेरे खिलाफ लोगों ने चिट्ठियाँ भी लिखीं। कुछ ने मुझे उनका जवाब देने का सुझाव दिया, लेकिन मैंने किसी का जवाब नहीं दिया। लोग अगर मेरे बारे में बात कर रहे हैं, तो मुझे लगता है कि मैं काम कर रही हूँ। मैं हर चीज़ में सकारात्मकता ढूँढती हूँ, यही मेरी ताकत है। माँ-बाप ने यह सीख दी थी कि काम में मन लगाओ, बेकार की बातों पर ध्यान न दो।
आपको नहीं लगता कि आपके आईसीएसआई की अध्यक्ष बनने से पीढ़ी की लड़कियों, जो सीएस बनना चाहती हैं, को हौसला मिलता है?
हाँ ज़रूर हुआ। मैं भी हर माह की 18 तारीख को अपने स्टूडेंट और सदस्यों के लिए एक कार्यक्रम चलाती हूँ, जहाँ पाँच से छह हज़ार लोगों जुड़ते हैं। कोई भी व्यक्ति वेब में उससे कनेक्ट हो सकता है। लोगों को बताती हूँ कि मैं घरेलू औरत हूँ, खाना भी बना लेती हूँ, कपड़े भी धो लेती हूँ। इससे युवतियों को यह समझने में आसानी होती है कि घरेलू काम करते हुए पेशेवर का जीवन जिया जा सकता है।
आपके अनुसार लड़कियों में नेतृत्व के गुण किस तरह उभारे जा सकते हैं?
आज की पीढ़ी में एक कमज़ोरी दिखाई देती है कि वह जल्दी ही हार मान लेती है। शादी हो गयी तो काम छोड़ा, बच्चे हो गये तो काम छोड़ा। रविवार को फिल्म देखनी है, इसलिए काम नहीं किया। इस तरह की संस्कृति से नेतृत्व के गुणों को बढ़ावा नहीं मिलता। नई फिल्म देखने के बजाय मैं कहूँगी कि आज यदि कानून में कोई नया संशोधन हुआ है, तो उसे पढ़ना चाहिए। जीवन में यदि कुछ करना है, तो कुछ कुर्बानियाँ ज़रूर देनी पड़ती हैं। साथ ही आज के माहौल में लड़कियाँ दोस्ती के चक्कर में परिवार से टूटती जा रही हैं। आपके गुणों को उत्साहित करने, व्यक्तित्व को निखारने में जिस तरह परिवार सहायक हो सकता है, वह दोस्त नहीं कर सकते। दोस्ती चाहे जितनी अच्छी हो, ईर्ष्या का भाव वहाँ कुछ न कुछ रहता ही है। इसलिए मैं युवा पीढ़ी से कहना चाहूँगी कि वे अपने परिवार से जुड़कर उन्नति करें।

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