संगीत महोत्सव और पंडित जसराज की यादें


ये फ़न ज़रा आगे की चीज़ है, इसे हमेशा आगे की मंज़िलों में पा सकते हैं। 
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फतेह मैदान से सीसीआरटी तक की यात्रा

(पंडित जसराज फिर अपने शहर आये हैं। अपने पिता और बड़े भाई की यादें ताज़ा करने और खूब सारे कलाकारों के साथ हैदराबाद के संगीतप्रेमियों को मंत्रमुग्ध करने के लिए । दो साल पहले इसी सीसीआरटी में पंडित मोतिराम पंडित मणिराम संगीत समारोह था और इसी दौरान यानी नवंबर 2014 में पंडितजी से हुई बातचीत की एक फाइल हाथ लगी है। आप के लिए पेश है।)

फ़तेह मैदान क्लब में बैठे-बैठे पिता की याद में कुछ करने की सोच साकार रूप लेगी और उसकी उम्र में चार दशक से अधिक जुडेंगे साल जुड़ेंगे शायद पंडित जसराज ने नहीं सोचा था, लेकिन आज पंडित मोतिराम पंडित मणिराम संगीत महोत्सव हैदराबाद की सांस्कृतिक रगों में खून बनकर दौड़ता है। यह बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं है कि लोग इस महोस्तव का इन्तेज़ार करते हैं। इस बार का इन्तेज़ार भी समाप्त हुआ। गुरुवार की दोपहर किशन राव साहब को फोन किया तो पता चला कि पंडितजी हैदराबाद आ चुके हैं और तीन बजे पर्यटक भवन में मुलाक़ात होगी। बस कुछ ही मिनट में मैं उस हॉल में हाजिर हुआ, जहाँ पंडितजी से मुलाक़ात तय थी। उनसे पहले उनकी पुत्री दुर्गा जसराज वहाँ उपस्थित थीं और पंडित रतन मोहन, अंकिता जोशी एवं पंडितजी के पारिवारिक सदस्यों के साथ तस्वीरें खींच रहीं थी। कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद पंडितजी भी पहुँच गये। उम्र की 84 बहारें गुज़ार चुके बुजुर्ग का ताज़गी से भरा हश्शास बश्शास चेहरा, मिलने वालों को आशिर्वाद की मुद्रा में उठे दोनों हाथ और `जय हो' की आवज़, देखने वाले और मिलने वाले भी यक़ीनन पुलकित हो जाते हैं।
कैसे हैं..? के जवाब में...इस उम्र में जितना अच्छा रह सकता हूँ...। कहते हुए उनके चहरे पर मुस्कुराहट फैल जाती है। हैदराबाद में पंडित मोतिराम पंडित मणिराम उत्सव के आयोजन में पंडितजी की कुछ स्मृतियों को समेटने के लिए मैं वहाँ पहुँचा हूँ। अपने उद्देश्य को उनके सामने रखते हुए पूछ बैठता हूँ। `महोत्सव के आयोजन की पिछली यादों के पन्ने पलटने की इच्छा है..।'`उत्सव उतना ही पुराना है, जितनी तुम्हारी उम्र। इसे अपनी उम्र के साथ जुड़ा हुआ समझलो।' यह कहते हुए पंडित जसराज यादों को टटोलने लगते हैं। बताते हैं कि 1973 में वो मोहन हेम्मडी के साथ फतेह मैदान में बैठकर काफी की चुस्कियाँ ले रहे थे कि विचार आया पिताजी की याद में हैदराबाद में कुछ करना चाहिए। उस समय बड़े बाई साहब (पंडित मणिराम) भी ज़िन्दा थे। ... क्यों न कल से ही शुरू कर दें . इस विचार साथ दूसरे ही दिन सोमाजीगुड़ा में डॉ. देशपाण्डेजी के घर पर आयोजन हुआ। उस आयोजन में पंडित जसराज के अलावा मालिनी राजुरकर ने गाया।
जब सिलसिला शुरू हुआ तो चल निकला हर साल किसी के घर पर अथवा किसी हॉल में संगीत समारोह का आयोजन होता, लोग जमा होते और संगीत की महफिल चल पड़ती। अब तक इसका नाम पंडित मोतिराम संगीत महोत्सव ही था। 1974 में बड़ा आयोजन हुआ, जिसमें पंडित भीमसेन जोशी, बिर्जू महाराज, किशन महाराज गंगू बाई हंगल और बहुत सारे कलाकार शामिल थे।
 हर साल की तरह 1978 में जब पंडित जी रेलवे स्टेशन पर उतरे तो पाया कि सारा शहर कर्फ्यू की ज़द में है। हालांकि मुंबई में कुछ दोस्तों ने बताया भी था कि हालात अच्छे नहीं हैं, मत जाओ,  फिर भी जो वादा अपने आप से किया गया है, उसे कैसे तोड़ें। पंडितजी उस घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं, `स्टेशन पर उतरने के बाद पुलिस की जीप में सुलतान बाज़ार में डॉ. फडके के घर पहुँचा। उनके पिताजी मेरे चाचाजी के शागिर्द थे। उन्हीं के घर पर कार्यक्रम हुआ। दस ग्यारह आदमी थे। वो भी कैसे आये थे अल्लाह को मालूम।'
1988 में बड़े भाई चले गये। 1989 में उत्सव के नया नामकरण हुआ। अब उनकी स्मृतियाँ भी उत्सव के साथ थीं। इस वर्ष 9 दिन का उत्सव हुआ, क्योंकि पंडित मोतिरामजी का शताब्दि उत्सव भी था। 30 नवंबर स शुरू होकर 8 दिसम्बर तक चला। पंडित रवि शंकर, पंडित भीमसेन जोशी, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन, पंडित बालमुरली कृष्णा, वसंत कुमारी सहित दक्षिण-उत्तर, पूरब-पश्चिम के कई कलाकारों ने इसमें भाग लिया।
उत्सव जैसे-जैसे लोकप्रिय होता गया, उसके आयोजन स्थल भी बदलते गये। चाहे वह वह किसी का घर हो या बड़ी चावडी का अखाड़ा, रवींद्र भारती हो कि भारतीय विद्या भवन, सत्यसाई निगमागमम हो कि नज़िाम कॉलेज मैदान। यह संगीत महोत्सव सीफेल (अब इफ्लू) में माह लक़ा बाई चंदा के कुएँ से लेकर पुराने शहर के ऐतिहासिक महल चौमहल्ला तक पहुँचा। यहाँ पर पंडित जसराज को वो सम्मान भी मिला, जो उनके पिता लेते-लेते रह गये थे। अंतिम नज़िाम उस्मान अली ख़ान जिस दिन पंडित मोतिरामजी को शाही कलाकार का सम्मान देने वाले थे, उसी दिन उनका निधन हुआ था, तब पंडित जसराज केवल 4 वर्ष के थे। चौमहल्ला ने अब जाकर जसारज का सम्मान किया। वक़्त फिर अपनी चाल चल गया। दो वर्ष पूर्व जब शहर के हालात कुछ बिगड़े तो पुलिस ने सुझाव दिया कि सम्मेलन चौमहल्ला में करना ठीक नहीं होगा। नये शहर में नयी जगह तलाश की गयी। समकालीन हैदराबाद का नया चेहरा साइबराबाद था और वहाँ एक बहुत अच्छी जगह मिली, सीसीआरटी। यहाँ पर लोगों को अच्छा लगा। हालांकि कुछ लोग चौमहल्ला में ही इस आयोजन को सुविधाजनक मानते हैं। दोनोंं की बात रखी गयी और पिछले वर्ष चौमहल्ला से इस वर्ष यह उत्सव फिर सीसीआरटी पहुँच गया।
तीन दिन के इस उत्सव की कई सारी विशेषताएँ हैं, जहाँ पंडितजी के अपने शागिर्दों की परीक्षा होती है, वहीं दूसरे परिवारों के संगीतज्ञ भी अपने रिश्ते निभाते हैं। गायन, वादन, नृत्य, शास्त्रीय, सूफी, ग़ज़ल सभी विधाओं को कहीं न कहीं जगह मिल ही जाती है। उत्सव के दौरान पंडितजी अपने पिता की समाधि पर भी हो आते हैं। आखिर इन 42 वर्षों में पंडितजी ने तो हैदराबादी संगीत प्रेमियों को बहुतकुछ दिया, लेकिन उन्हें हैदराबाद से क्या मिला?
प्रश्न के बाद जवाब के लिए इन्तेज़ार करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे तपाक से कहते हैं,`सब कुछ यहीं तो मिला। इसी शहर की मिट्टी ने मुझे मिटा कर बनाया है। पिताजी की समाधि पर जाता हूँ तो रो रो के दुआ करता हूँ। चार साल का छोड़ गये थे, लेकिन सब कुछ दिला दिया। हैदराबाद मेरे लिए दुआ और आदर दोनों का स्थान रखता है। चाहे वह गंडीपेट का पानी हो या फिर बरसों का परसो। यस सब मेरी रगों में है। इस महोत्सव के लिए मैंने अपनी तरफ से जो कुछ हो सकता था किया है, किसी से चंदा वसूलने की कभी कोशिश नहीं की। कभी आसानी से हो जाता है कभी मुश्किल होती है, लेकिन वक़्त गुज़र जाता है। मैं हैदराबाद और अपने को अलग-अलग नहीं देखता। लुटता भी यहीं हूँ और संवरता भी यहीं हूँ।'
फिर क्या बात है कि आपके शाागिर्दों की सूची में हैदराबादी नाम दिखाई नहीं देते? सवाल के जवाब में पंडितजी कुछ सोचते ज़रूर हैं, लेकिन जवाब में किसी तरह की कंजूसी नहीं हैं। कहने हैं,`कुछ लोग आये और चले गये। उनकी मजबूरियाँ रही होंगी। यूँ इस काम में सब्र की ज़रूरत होती है, जो मैंने उनमें नहीं पाया। मुझे ऐसा लगता है, हैदराबादी को कुछ बनना है तो पहले उसे यहाँ से निकलना होगा। जब बाहर निकलेगा तो दुनिया देखेगा और फिर शायद समझ में आये कि सब्र और रियाज़ ही उसकी ज़िन्दगी बना सकते हैं। संगीत ज़रा आगे की चीज़ है, आप उसे हमेशा आगे की म़ंज़िल में पा सकते हैं। अपने को उससे आगे ले जाने की भावना समाप्त कर देती है। मेरा यही मानना है कि नज़रें सीमित न रखें।'







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