छत्तीस को तिरसठ बनाना ....

नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी ऑग़ोश में सिर हो ये ज़रूरी तो नहीं

ख़ामोश जौनपुरी ने जब शेर कहा था, हो सकता है कि वे बहुत दुःखी हों, मायूस हों, महबूब के मिलने की उम्मीद खो चुके हों। दर्द से कराह रहे हों। पता नहीं रात के किसी पहर नींद का ग़लबा उन पर हुआ हो और सो गये हों। उन्हें नींद की पड़ी हो, लेकिन दर्द का क्या, वो कैसे कम होगा। हो सकता है, नींद से कुछ कम हो, लेकिन उनकी(महबूब की, हमदर्द की, हमसफर की चाहे कोई हो जो दर्द बांटने वाला हो उसकी) आग़ोश में सिर होता तो शायद दर्द का एहसास यूँही कम हो जाता और नींद बोनस के रूप में मिल जाती।

पिछले स्तंभ में मैंने एक दुर्घटना का ज़िक्र किया था। उसके बाद बहुत सारे अनुभव हुए। अनुभव चाहे मीठे हो, खट्टे हों, कडुवे या तीखे। एक लेखक के लिए उन अनुभवों की याद में अलग ही मिठास छुपी होती है। कहते हैं गुपत मार(अंदरूनी ख़राशें) कुछ देर बाद दर्द देने लगती है। इन खराशों ने दर्द के शिकार एक बिस्तर पर पड़े दो लोगों का आजीब हाल बना रखा है। एक के बाएँ और दूसरे के दाएँ बाज़ू में दर्द है। दर्द से बचने के लिए वैकल्पिक बाज़ू का उपयोग करना पड़ेगा। अगर ऐसा करते हैं तो दो लोग आपस में एक दूसरे की ओर पीठ करके सोएँगे। इस छत्तीस के आँकड़े से भला दर्द को किस तरह बाँटा जा सकेगा। छत्तीस बने रहेंगे तो दर्द को अकेले-अकेले ही भुगतना पड़ेगा। या फिर तिरसठ बनने का प्रयास करना पड़ेगा। (३६- ६३)

मिलाप मज़ा की क्लिप
हम भारतीयों में कुछ आदतें बड़ी अजीब हैं, हम अपने उपयोग में लायी जाने वाली बस्तुओं से भी बड़ा लगाव रखते हैं, चाहे पानी पीने का ग्लास हो, बैठने की कुर्सी हो या फिर ओढ़ने बिछाने की चीज़ें। मैंने महसूस किया है कि सोने की जगह का भी यही हाल है। हम ट्रेन में रिज़र्वेशन की बर्थ और होटल में किराए के बिस्तर पर तो किसी तरह एडजेस्ट कर लेते हैं, लेकिन घर में सोने के लिए अपनी ही जगह चाहिए और इस अपनी ही जगह के चक्कर में हम छत्तीस से तिरसठ नहीं बन पाते। इसके दो विकल्प थे, या तो हम दर्द को हल्के हल्के दबा कर या फिर अपनी जगह बदलकर। एक के बाद दोनों विकल्प आज़माए, दर्द कुछ कम महसूस किया और नींद ने भी शायद वक़्त की नज़ाकत को समझ लिया। चाहे बीमार का हाल बाद में ही क्यों न अच्छा हो, लेकिन उनके देखे से मूँह पर रौनक़ ही चली आये।

शायद ज़िंदगी भी ऐसी है। किसी को क़रीब करना हो या किसी के क़रीब जाना हो तो छत्तीस से तिरसठ बनने के लिए बहुत सारी कुरबानियाँ देनी पड़ती हैं। अपने मैं को कम करना, आदतें बदलना, दूसरे के पहलु को समझना ... तभी तो दर्द कम होगा और खुशी बढ़ेगी। जान और बदन की तरह एक हों या न हों सुगंध और सुमन की तरह तो हो ही सकते हैं।



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