ख़्वाब.. छोटो छोटे

 भारत रत्न अबुल फ़ाक़िर ज़ैनुल-आबेदीन अब्दुल कलाम कहते थे कि ख़्वाब देखेें, बड़े ख़्वाब। दुनिया को बदलने के ख़्वाब। वो बड़े आदमी थे। करनी और कथनी में अंतर नहीं रखते थे। उनके सपने बड़े थे और उन्होंने उसको साकार भी किया। वो चाहते थे कि देश के बच्चे भी बड़े ख़्वाब देखें। उनसे प्रेरित होकर बच्चों ने बड़े ख़्वाब देखे भी और कुछ बच्चे बड़े होकर उन्हें  पूरा करने में भी लगे हुए हैं, लेकिन हमारा क्या हमारे ख़्वाब तो बहुत छोटे छोटे हैं, वो भी पूरे नहीं होते।
यही कि आज का दिन अच्छा गुज़रे, किसी से लड़ाई झगड़ा न हो। न हमारी गाड़ी किसी से टकराए और न किसी और की गाड़ी हमारा नुक़सान करे। दुकान पर अच्छे ग्राहक आयें। धंधा अच्छा हो। ऑफिस में किसी से चख़पख़ न हो। हमसे जलने वालों के हाथ ऐसा कोई हथियार न लगें कि वह अपनी तिकड़मों को हवा दे सके। घर आते हुए जेब में इतने पैसे हों कि बीवी बच्चों और माँ बाप को खुश करने के लिए दुकान से कुछ मेवे ख़रीद सकें। हमारा ख़्वाब यह बिल्कुल नहीं है कि हम ही जीत जाएँ। बस हम हारना नहीं चाहते। चांद तारे तोड़ लाने और सारी दुनिया पर छा जाने का ख़्वाब भी हमारा नहीं है। बस इतना कि हम दुनिया में गुम न हो जाएँ।

शैलेंद्र का एक गीत मुकेश की आवाज़ में काफी मशहू हुआ था। 1956 में आयी राजकपूर की फिल्म जागते रहो  का यह गीत जिसने भी सुना होगा, कुछ देर के लिए ही साथ गुणगुनाए ज़रूर होंगे। ज़िंदगी ख़्वाब है,  ख़्वाब में सच है क्या और भला झूठ क्या.. सब सच है।  जिनके पास ख़्वाब नहीं हैं, भला वो ज़िंदगी भी क्या ज़िंदगी। कहते हैं, ख़्वाब ज़िंदगी को खूबसूरत बनाते हैं। ख़्यालों में रंग भरते हैं। छोटे छोटे ख़्वाब।
अभी कल ही एक सूचना पढ़ने को मिली। सूचना कहाँ वह तो सुझाव था। बोर्ड ऑफ इंटरमीडियट के अधिकारियों का कि माँ-बाप अपने अधूरे ख़्वाब बच्चों पर न लादें। हो सकता है यह सुझाव सही हो, लेकिन अजीब ज़रूर है। हो सकता है, यह नये ज़माने के हिसाब से सही भी हो, लेकिन भला वो माँ-बाप क्या करें, जिनके लिए उनके बच्चे सुनहरे ख़्वाब की मानिंद हों।
बोर्ड की अपनी चिंता है। स्कूलों कॉलेजों में लड़के लड़कियाँ शिक्षा के तनाव के बोझ से आत्महत्या कर रहे हैं। अपनी कीमती जान गंवाँ रहे हैं। हालात यहाँ तक एक दो दिन में तो नहीं पहुँचे हैं। काफी लंबे अरसे से ऐसा हो रहा है। शायद वह सब कुछ बड़े ख़्वाबों को पूरा करने की चाह में हो रहा है। कभी कभी तो यह सब अपने उन ख़्वाबों को पूरा करने के लिए होता है, जो अपने नहीं हैं, बल्कि उधार के हैं। किसी को देखकर पाले हुए हैं। ऐसे बहुत से ख़्वाब पूरे होकर भी पूरे नहीं होते, जो दूसरों को देख कर पाले जाते हैं। कभी यह घर की औरतों में  पड़ोसी के घर में आये टेलीविजन, फ्रिज, वाशिंग मशीन के रूप में पला करते थे और आज  नयी नसल के बच्चों में महंगे महंगे सेलफोन के रूप में पल रहे हैं।
कौन-से माँ बाप यह चाहेंगे कि उनका बच्चा दुनिया से पीछे रह जाए, लेकिन यह भी तो सही है कि वह उन ख़्वाबों को पूरा करने के लिए ज़िंदा रहे, खुश रहे। उसके दिल में उसकी सपनों की ज्योति जगी रहे। वो दिन शायद लद गये, जब बच्चे को गहरी नींद में देखकर माँ बाप जगाते नहीं थे, इसलिए भी कि शायद कोई ख़्वाब देख रहा हो। बच्चे के वक़्त पर न सोने पर भी उन्हें चिंता हुआ करती थी। आज दुनिया की चकाचौंध ने उन लम्हों को छीन लिया है। दौड़ धूप बढ़ गयी है। छोटे छोटे ख़्वाब इस धुंध में कहीं छुप गये हैं और बड़े ख़्वाबों, उधार ख़्वाबों का जाल फैलता जा रहा है। इस जाल को काटना हो तो ख़्वाब को तनावग्रस्त करने वाली इच्छा और ईर्श्या में बदलने से रोकना ज़रूरी है। छोटी छोटी उपलब्धियों पर खुश होना ज़रूरी है।

Comments

  1. बच्चों के विकास के मानदंड माँ बाप दुसरों की देखा देखी से तय करते हैं. हर माँ बाप की चाहत होती है कि उनका बच्चा सिर्फ डॉक्टर या इंजीनियर ही बने. जैसे दुनिया में दुसरे कोई जॉब्स नहीं है ना विषय. माँ बाप ज्यादा महत्वाकांक्षी होते हैं.

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    1. टिप्पणई बिल्कुल सही है राजेंद्र कुमार जी

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