दूरस्थ शिक्षा में अपार संभावनाएं और अवसर- प्रो. शकीला ख़ानम

प्रो. शकीला खानम डॉ. बी. आर अंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालय के दूरस्थ शिक्षा ब्यूरो की निदेशक हैं। साथ ही वह भाषा विभाग की डीन भी हैं। उनका जन्म आंध्र-प्रदेश के गुडिवाडा में हुआ। उनकी माँ हैदराबाद से थीं और उर्दू की अध्यापिका थीं। यहीं पर उन्होंने बी.कॉम की शिक्षा पूरी की। हैदराबाद यूनिवर्सिटी से हिंदी में एमए और पीएचडी करने के बाद उन्होंने हिंदी अधिकारी और अध्यापक के रूप में भी विभिन्न संस्थानों में काम किया। 1993 में विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति हुई। तुर्की के अंकारा विश्वविद्यालय में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय संपर्क परिषद की चेयर पर काम करते हुए दो वर्षों तक तुर्की के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ा चुकी हैं। मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में भी एक वर्ष तक प्रतिनियुक्ति पर हिंदी विभाग की अध्यक्ष रह चुकी हैं। सप्ताह के साक्षात्कर के लिए उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं-

विश्वविद्यालय ने आपको डेब का निदेशक बनाया है। इस नये पद पर आपकी क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं?
पहले दूरस्थ शिक्षा परिषद हुआ करती थी। यही अब डिस्टेन्स एजुकेशन ब्यूरो कहलाता है। यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अंतर्गत काम करता है। यूजीसी के मामले देखना और कैंपस विकास गतिविधियों को बढ़ाना इस पद के प्रमुख कार्य हैं। अभी मेरी पहली प्राथमिकता यूजीसी की उन निधियों को कैंपस में लाने का प्रयास करना है, जो लगभग 4 साल से लंबित हैं। लगभग 112 करोड़ की राशि है। इससे विश्वविद्यालय में कई प्रमुख विकासात्मक गतिविधियों को आगे बढ़ाया जा सकता है। विश्वविद्यालय में शैक्षणिक सलाहकार की सेवाओं में विस्तार और कुछ विभागों में रिक्त पदों पर सलाहकारों की नियुक्तियाँ भी करनी हैं। कॉमन वेल्थ ऑफ इलेक्ट्रानिक मीडिया फॉर एशियन कंट्रीज़ और कॉमन वेल्थ ऑफ लर्निंग से मिलने वाली निधियों से परियोजनाओं पर अमलावरी कराने का कार्य भी डेब देखता है।
डीन के रूप में विश्वविद्यालय में आपको किस तरह के काम करने का मौक़ा मिला?
यूँ तो बहुत सारे काम किये, लेकिन कुछ का उल्लेख़ मैं ज़रूर करना चाहूँगी। 2010 में उर्दू विभाग ने एमए शुरू किया था, लेकिन उसकी कई पाठ्य-पुस्तकें प्रकाशित नहीं हो पायी  थीं। विशेषकर भाषा-विज्ञान, दक्कन अध्ययन और शिक्षा अध्ययन पर किताबें लिखवाई गयीं। यह काफी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। विश्वविद्यालय में हिंदी के विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी है। उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आधारभूत संरचना का विकास किया जा रहा है। इधर विश्वविद्यालय में इसी साल से सीबीसीएस पद्धति शुरू हो गयी है। इसके लिए भी पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने का काम काफी महत्वपूर्ण था और भाषा से जुड़े हुए विभागों की प्रथम वर्ष की लगभग सभी किताबें तैयार हो गयी हैं। कुछ और किताबें लिखवाई जा रही हैं।
अब तक विश्वविद्यालय से कितने विद्यार्थियों ने हिंदी में एमए की शिक्षा पूरी की है?
अब तक लगभग 6000 विद्यार्थियों ने दूरस्थ पद्धति से एमए की शिक्षा पूरी की है। खास बात यह है कि दोनों राज्यों से विश्वविद्यालय में हिंदी में एमए करने के लिए विद्यार्थियों में काफी रुचि देखी गयी है।
आमतौर पर लोगों में दूरस्थ शिक्षा पद्धति की उपयोगिता को लेकर शंकाएँ बनी रहती हैं। इन शंकाओं को आप कैसे दूर करना चाहेंगी?
हिंदी मिलाप की क्लिप

दूरस्थ शिक्षा को अकसर लोग दूसरे दर्जे की शिक्षा मानते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। इन सभी पाठ्यक्रमों को यूजीसी की मान्यता प्राप्त है। यह मान्यता भी ग़लत है कि यहाँ एवरेज स्तर के विद्यार्थी आते हैं। दरअसल दूरस्थ शिक्षा पद्धति नियमित पद्धति से छूट गये विद्यार्थियों की शैक्षणिक ज़रूरतों को पूरा करती है। यहाँ सफलता की कहानियाँ अनगिनत हैं। मैं हिंदी की ही अगर बात करूँ तो बता दूँ कि दूरस्थ पद्धति से एमए करने के बाद कई विद्यार्थियों ने नियमित रूप से एम.फिल और पीएचडी की उपाधियाँ प्राप्त की हैं। वे जेआरएफ और नेट में भी योग्य करार दिये गये हैं। कई विद्यार्थी इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा पूरी कर सहायक प्रोफेसर भी बने हैं। विश्वविद्यालय चाहे जो हो, पढ़ने वालों में व्यक्तिगत निष्ठा होना अनिवार्य है। कुछ लोगों में यह ग़लतफ़हमी है कि दूरस्थ शिक्षा में उज्ज्वल भविष्य नहीं है। हमारे पास एमए के लिए आने वाले विद्यार्थियों में अधिकतर हिंदी शिक्षक होते हैं। एमए करने से उन्हें पदोन्नति का लाभ मिलता है। हिंदी में एमए करने वालों में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या भी कम नहीं है, जो दूसरे विषयों में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित करके हिंदी की ओर आते हैं। आज इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। एक से अधिक विषयों में प्रमाणित रूप से अध्ययन के अवसर हैं।
माँ उर्दू की टीचर थीं तो आपका रुख़ हिंदी की ओर कैसे हुआ?
घर में तो उर्दू का माहौल था, लेकिन घर से बाहर और कॉलेज में उर्दू नहीं थी, इसलिए मैंने हिंदी विषय लिया था, हालाँकि वहाँ लगता था कि हिंदी भी तेलुगु में ही पढ़ायी जा रही है। बी.कॉम के बाद मैंने तीन विश्वविद्यालयों, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय और पद्मावती महिला विश्वविद्याल के चार पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश परीक्षा लिखी। एम.कॉम, एमबीए, बीएड और एमसीजे, इन चारों पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षा में मैं उत्तीर्ण हो गयी थी। मेरे भाई विज्ञान के छात्र हैं। वे इन दिनों केमिस्ट्री के प्रोफेसर हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं हिंदी में एमए करूँ। उन्हें लगता था कि कॉमर्स से अधिक संभावनाएँ हिंदी में है। हालाँकि मैंने इससे पहले हिंदी बहुत कम पढ़ी थी। यहाँ आने के बाद शुरू के 6 महीने काफी कठिन थे। बीच में यह छोड़कर दूसरा विषय लेने का विचार भी आया, लेकिन धीरे-धीरे विषय की समझ बढ़ती गयी। शोध के क्षेत्र में भी मुझे दिलचस्प विषय मिले। तेलुगु जानने के कारण मुझे काव्यानुवाद की समस्याओं पर `विश्वंभरा और कामायनी का तुलनात्मक अध्ययन' विषय मिला था। इसी तरह पीएचडी में हिंदी और तेलुगु साहित्य में आलोचना के सिद्धांतों के विकास पर शोधकार्य किया था।
शिक्षा पूरी करने के बाद आपने कई विभागों में काम किया।
मेरी पहली नियुक्ति केंद्रीय यूनानी चिकित्सा शोध संस्थान में हिंदी सहायक अनुवादक के रूप में हुई थी। उसी दौरान मैंने स्टाफ सेलेक्शन कमेटी की परीक्षा भी लिखी थी। हिंदी अध्यापक के लिए उसमें मेरी नियुक्ति हैदराबाद में ही हुई। आईडीबीआई और सिडबी की परीक्षाएँ भी मैंने लिखी थीं। दोनों में हिंदी अधिकारी के रूप में मुझे नियुक्ति-पत्र मिल गया था, लेकिन विवाह होने के कारण मैं हैदराबाद छोड़कर जाने के  पक्ष में नहीं थी। कॉलेज सर्विस कमीशन की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद राजमंड्री में नियुक्ति दी गयी, लेकिन वहाँ भी मैं नहीं जा सकी। उसी दौरान डॉ. बी. आर. अंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालय में नियुक्तियाँ हो रही थी, मैंने आवेदन किया और मेरी नियुक्ति हो गयी।
क्या आपने पहले कभी सोचा था कि आप निदेशक पद तक पहुँचेंगी?
मुझे बचपन से ही कुछ बनने की इच्छा थी। क्या, ऐसा निश्चित नहीं था। लेकिन अम्मी बताती हैं कि मैं जब 6-7 साल की थी, अम्मी जब शिक्षकों का वेतन लाने के लिए म्युनिसिपल कार्यालय जातीं तो मुझे साथ लेकर जातीं। वहाँ एक मैनेजर बैठी रहती थी, प्रभावती। मैं अम्मी से कहती थी कि मुझे उनके जैसा बनना है। अम्मी ने हम सभी बहनों को शिक्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह कहती थीं कि जब वरपक्ष के लोग लड़की देखने आएँगे तो मैं कहूँगी कि हमारे पास लक्ष्मी नहीं सरस्वती है। एक शिक्षिका की बेटी होने पर मुझे गर्व है। जहाँ तक निदेशक बनने की बात है, मुझे तीन-चार साल पहले ही यह पदोन्नति मिलनी थी, लेकिन खुद इसके लिए कभी प्रयास नहीं किये, इसलिए देर हो गयी। खैर, अब इसकी ज़िम्मेदारियों को प्राथमिकता देनी है।

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