हम भी मुस्कुराए क्योंकि लखनऊ हो आये


घर से निकले तो कुछ दूर चलना, ज़रूरत पड़ने पर दौड़ना, रास्ता लंबा हो तो किसी सवारी पर सवार होना ज़रूरी है। कार, बस या रेल में सफर करना अथवा हवा में उड़कर किसी एक शहर से दूसरे शहर जाना अपनी अपनी ज़रूरतों और सहूलतों पर निर्भर होता है। हर दिन लाखों लोग सफर करते हैं। कुछ लोगों को तो अकसर सफर में ही रहना पड़ता है। अब उनकी वो जाने कि उन्हें कितना 'सफर' करना पड़ता है। इस सब के बावजूद जो कहीं जाने के लिए निकलता है, वह यात्रा उसके लिए ख़ास होती है। मेरे लिए भी यह यात्रा ख़ास थी। इसलिए कि एक लंबी रेल यात्रा के लिए बेगम के साथ निकला था और इसलिए भी कि हम लखनऊ जा रहे थे। उस शहर में जहाँ का मुस्कुराना काफी मशहूर है। सोचा कि हम भी वहाँ चलकर मुस्कुराते हैं। बाद में क़हक़हे लगाने की मुहमलत मिले या न मिले।
इमामबाड़े के पास एक सेल्फी
लखनऊ से साहित्यिक पत्रिका 'शब्दसत्ता' के संपादक सुशील सीतापुरी का दावतनामा मिला कि हिंदी और उर्दू की साहित्यिक पत्रकारिता पर एक संगोष्ठी में भाग लेने लखनऊ आना है। हालाँकि इसकी सूचना पहले ही शायर और आलोचक डॉ. रऊफ खैर दे चुके थे, लेकिन सुशील भाई से फोन पर हैदराबाद और लखनऊ की साझा संस्कृति पर काफी देर तक बातचीत के दौरान यह तय हो गया कि मैं लखनऊ जाऊँगा। हैदराबाद-लखनऊ में एक ख़ास बात यह है कि इन दोनों शहरों में न गंगा है न जमुना, लेकिन दोनों शहरों ने गंगा-जमुनी तहज़ीब को संभाले रखा है।
मेरे लिए इसमें दिलचस्पी इसलिए भी बढ़ी कि लखनऊ से मेरा एक अंजान रिश्ता काफी बरसों से रहा है। लगभग दस-बारह साल से। याद आता है कि एक महफिल में कुछ लोगों से बातचीत के दौरान एक महिला ने पूछा था... क्या आप लखनऊ से हैं। मैंने नहीं में जवाब देते हुए अपने बारे में जानाकारी दी थी और यह भी बताया था कि मैं कभी लखनऊ नहीं गया। बातचीत के लहजे से उन्होंने सोचा होगा कि मेरा संबंध लखनऊ या यूपी के किसी शहर से होगा। मेरे साथ यह अजीब मामला था। हैदराबाद से लगभग 200 किलोमीटर दूर जिस गाँव में पैदा हुआ, बचपन गुज़ारा वहाँ का लहजा भूल गया। हैदराबाद जिस शहर में 27 साल गुज़ार दिये'याँ के बाताँ' नहीं सीख सका। खैर 6 अक्तूबर की सुबह सिकंदराबाद-गोरखपुर एक्प्रेस हमें लखनऊ ले जा रही थी। पूरे 28 घंटों का सफर करना था। तेलंगाना और मध्यप्रदेश की सीमाओं से निकलकर आधीरात को यूपी में दाखिल हुए और दूसरे दिन सुबह लगभग 8 बजे ट्रेन कानपूर से कुछ किलोमीटर आगे गंगा पर खड़ी थी। बड़ी संख्या में चप्पू चलाते हुए छोटी-छोटी कश्तियों में कुछ लड़कें उस ओर लपक रहे थे, जहाँ लोग ट्रेन से नदी में सिक्के उछाल रहे थे। लोगों ने बताया कि उन्होंने लकड़ी को चुंबक बांध रखा है, ताकि सिक्के उसके साथ चिपक जाएं। कुछ लड़के अपने हाथों में गंगा का पानी भरी बोतलें यात्रियों को बेच रहे थे। 
लखनऊ जंक्शन पर उतरे तो 11 बज चुके थे। प्लेटफार्म से लगभग एक किलोमीटर तक चलकर जब स्टेशन से बाहर निकले तो कई ऑटोचालक एक साथ लपके। उन सबसे बचते बचाते पार्किंग के पास पहुँचे, जहाँ डॉ फ़क्रे आलम आज़मी हमारे स्वागत के लिए खड़े थे। डॉ. आलम कई बरस तक हैदराबाद मे रहे हैं। शायर हैं, आलोचक हैं और खास कर फारसी और उर्दू के विद्वान हैं। लखनऊ की एक शाम उनकी शायरी में सजी रही, जिसमें डॉ. रऊफ खैर और कश्मीर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के प्रो. राशिद आज़ीज़ की ग़ज़लों के बीच होटल के उस छोटे से कमरे में ग़ज़लें सुनने और सराहे जाने का लंबा दौर चला।
गोमती नदी के पास
चारबाग़ से होटल शुभम अधिक दूर नहीं है। यहाँ पप्पु यादव और उनकी टीम शुद्ध शाखाहारी भोजन के साथ मेहमाननवाज़ी के लिए तैयार थी। यह जगह सुशील भाई के अनुसार इसलिए भी चुनी गयी थी कि यहाँ से लखनऊ शहर आसानी से अपनी पहुँच में होगा। हैदराबाद से मेरे साथ डॉ. रऊफ ख़ैर, पूणे से नज़ीर फतेहपुरी और उद्धव महाजन बिस्मिल, कश्मीर यूनिवर्सिटी से प्रो. राशिद अज़ीज़, कोलकता से डॉ. मुहम्मद ज़ाहिद संगोष्ठी के लिए आये थे। निशातगंज में कैफी आज़मी अकादमी पहुंचे तो वहाँ हिंदी उर्दू के कई विद्वान मौजूद थे। रामपुर रज़ा लायब्रेरी के निदेशक डॉ. हसन अब्बास, लमही के संपादक और प्रेमचंद के नाती विजय राय, विद्वान प्रदीप जैन, गुलबुन के संपादक ज़फर हाशमी के साथ-साथ फिल्मी गीतकार अहमद वसी मंच पर मौजूद थे। यह सारा आयोजन सुशील सीतापुरी ने संभाल रखा था। सुशील भाई काफी दिलचस्प आदमी हैं। लगभग 25 सालों से पत्रकारिता में हैं। कई फीचर एजेंसियों में काम कर चुके हैं। फिल्म और साहित्य में उनकी ख़ास रूची रही है। अब लखनऊ से शब्दसत्ता पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। उनकी ख़्वाहिश है कि देश भर में हिंदी और उर्दू में लिखने वाले साहित्यकार और पत्रिकाओं के संपादकों के बीच सौहार्द का एक महौल बने और इसकी शुरूआत उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादकों के नाम पुरस्कार की घोषणा से की है। इस संगोष्ठी का उद्देश्य तेलंगाना, महाराष्ट्र, बंगाल, कश्मीर और अन्य राज्यों में हिंदी उर्दू की साहित्यिक पत्रकारिता पर चर्चा करना रहा। श्रोताओं और वक्ताओं में ऐसे कई लोग थे, जो मिलाप से परिचित थे। हैदराबाद, दिल्ली और जालंधर कहीं न कहीं से वे मिलाप को जानते थे। मैंने मिलाप के साहित्यिक पृष्ठों के साथ-साथ कल्पना, संकल्य, दक्षिण समाचार, पूर्णकुंभ-श्रवंति सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन और उनकी समस्याओं पर अपने विचार रखे।
कैफी आज़मी अकादमी, लखनऊ में विजय राय और डॉ. हसन अब्बार के साथ
हिंदी उर्दू की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पत्रकारिता के इतिहास और समसामयिक समस्याओं की पड़ताल के लिए यह मंच काफी दिलचस्प था। एक हिंदी भाषी प्रदेश की राजधानी में अहिंदी प्रदेशों से वहाँ की हिंदी-उर्दू पत्रकारिता पर चर्चा हो रही थी। संगोष्ठी में चर्चा के दौरान एक बात खुलकर सामने आयी कि साहित्यिक पत्रिकाओं के अधिकतर संपादक वन मैन आर्मी की तरह होते हैं। संपादन एवं प्रकाशन से लेकर पते लिखकर डाक कार्यालय तक पहुँचा आने का कार्य भी वहीं करते हैं और अधिकतर मामलों में अपने कार्यालय को साफ सूथरा रखने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं को निभानी पड़ती है, लेकिन समाज को स्वच्छ और स्वस्थ बनाये रखने की शुभकामनाओं के साथ यह काम निरंतर चलता रहता है।
नज़ीर फतेहपुरी खुद भी एक पत्रिका के संपादक हैं। उनकी बातों में एक संपादक के दर्द को महसूस किया जा सकता था। राशिद आज़र ने पंच पत्रिकाओं की भूमिका को रेखांकित किया। विजय राय ने इस संगोष्ठी की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि उर्दू के साहित्य को हिंदी में और हिंदी के साहित्य को उर्दू में पेश कर उस पर चर्चा कर दोनों भाषा भाषियों को करीब किया जा सकता है। खासकर पत्रिकाओं के संपादकों पर उन्होंने ज़ोर दिया कि देश में कहीं भी यदि कोई तेजस्वी प्रतिभा लेखन में उभर रही है तो उसे आगे बढ़ने का मौका दिया जाना चाहिए, ताकि साहित्य को अच्छे क़लमकार मिल सकें। प्रदीप जैन का मानना था कि साहित्यिक पत्रकारिता पर बात करने के लिए शोध की आवश्यक्ता है। डॉ. हसन अब्बास खुद भी एक पत्रिका निकालते हैं, उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन के साथ-साथ संरक्षण पर भी ज़ोर दिया ताकि यह वर्तमान समाज को तो लाभान्वित करे ही, साथ ही आने वाली नसलों के लिए भी यह लाभदायक हो। पत्रकार की भूमिका पर उन्होंने एक खूबसूरत शेर में अपनी बात रखी-
हम सियाही के हैं दुश्मन और न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आईना दिखाना है, दिखा देते हैं
संगोष्ठी के आयोजन को सफल बनाने के लिए सुशील भाई के संगीतकार भतीजे विजय और उनकी टीम के सदस्यों ने काफी मेहनत की थी।
 दानिश महल में दोस्त वसीउल्लाह हुसैनी के साथ
लखनऊ यक़ीनन बहुत खूबसूरत शहर है। 7,8,9 और 10 अक्तूबर को किस्तों में इस शहर की सड़कों, महलों-मुहल्लों, बाग़-बगीचों और बाज़ारों के दीदार हुए। ओला और उबर ने हालाँकि यहाँ भी क़दम रखा है, लेकिन 7 सीटर ऑटोरिक्षा और बैट्री रिक्षा के बावजूद यहाँ बड़ी संख्या में साइकिल रिक्षा अपनी सेवाएं दे रहे हैं। लगता है कि पहले आप पहले आप की तहज़ीब के साये में रहते हुए भी यहाँ के 7 सीटर दूसरे शहरों की संस्कृति सीख गये हैं और 9 से 10 लोगों को ऑटोरिक्षा में बिठाना नियमों का पालन करना समझते हैं। एक सीट पर बैठे तीन लोग यह भलि भांति समझते हैं कि चौथे के लिए वहाँ जगह बनाई जानी है और रास्ते में सवार होने वाला चौथा मुसाफिर भी उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हुए जगह बना ही लेता है।
हर शहर में रिक्षावाले पर्यटक को भलि भांति समझते हैं, बल्कि कुछ देर के लिए वे गाइड भी बन जाते हैं। भला लखनऊ के रिक्शावाले उससे पीछे क्यों रहें। यह शहर अपनी नज़ाकत के लिए काफी मशहूर हैं। उसी नज़ाकत से रिक्शावाला शहर में नयी-सी नज़र आने वाली सवारी से कहेगा'बाबूजी आपको एक चिकन के कपड़ों के शोरूम के पास कुछ देर के लिए रोकूँगा। वहाँ आप चाहे कोई ख़रीददारी मत कीजिए, कपड़े उलट-पलट कर आ जाइए। मुझे इसके लिए दस रुपये मिलेंगे।'.. हैरत हुई कि यहाँ तो हैदराबादियों से ज्यादा आरामपरस्ती है, ग्राहक चाहे आधा-एक घंटा भी बैठ जाए, लेकिन बिना काम किये 10 रुपये की चाह में रिक्षावाला सेक्युरिटी गार्ड के साथ गप लगाए बैठा रहेगा।
इमामबाड़े की एक तस्वीर
गोमती नदी के किनारे बसा लखनऊ नवाब आसिफुद्दौला के ज़माने से ही आकर्षण का केंद्र रहा है। हुसैनगंज से क़ैसरगंज, छोटा इमामबाड़ा, बड़ा इमामबाड़ा, पिक्चर गैलरी, अमीनाबाद, हज़रतगंज, सामाजिक परिवर्तन स्थल, डॉ. अंबेडकर पार्क, जनेश्वर मिश्र पार्क जैसे विभिन्न क्षेत्रों से गुज़रते हुए लखनऊ में सत्तासीन रहे सभी शासकों को इस बात के लिए बधाई देने का मन करता है कि वहाँ पार्कों पर कब्जे नहीं हुए हैं, बल्कि थोड़ी-थोड़ी दूर बड़े खूबसूरत हरे भरे पेड़ों से ग्रीन-लखनऊ की शान बढ़ाते अनगिनत पार्क गर्मी से छूटते पसीने में भी एक अजीब से ठंडक का एहसास दिलाते हैं।
सुबहे लखनऊ के दीदार करने के लिए एक सुबह मैं और डॉ. रऊफ खैर अलस्सुबह 5 बजे ही अपने कमरे से बाहर थे। कुछ देर के इंतेज़ार के बाद एक बस में सवार हुए। बस का हुलिया सिटी बस की तरह देखकर हमने तय किया कि बस के आखरी स्टॉप तक चलेंगे, लेकिन पता चला कि बस बारहबंकी जा रही है तो इरादा तर्क कर दिया और कंडक्टर के सुझाव पर ही सिकंदरबाग़ उतरे। यह लखनऊ का बेहतरीन बोटानिकल गार्डन है, जहाँ सुबह होते ही वाकर्स बड़ी संख्या में पैदल, दुपहिया वाहनों और कारों में अकेले, जोड़ी के साथ और बच्चों के साथ पहुँच जाते हैं। जॉगिंग, लाफिंग और हरी घाँस पर नंगे पैर चलने का आनंद उठाते रहते हैं। प्रवेश द्वार के पास दादी-नानी की उम्र की कुछ महिलाएँ बैठी एक दूसरे का सुख-दुःख शेयर कर रही थीं। हो सकता है कि वे बहुओ और दामादों को साथ-साथ नाती-पोतों की सफतलाओं का जिक्र भी कर कर रही हों।
लखनऊ की इमारतों ने पुरानी यादों को बचा रखा है। चाहे परीखाना हो, रेसीडेन्सी हो या छोटे छोटे पैलेसनुमा मकान, हेरिटेज के साथ अधिक हाथापाई नहीं हुई है। ईमामबाड़ों की अपनी कहानियाँ हैं, जो कुछ तो गाइडों की गढ़ी हुई हैं और कुछ तो परंपरागत रूप से दंतकथाओं के रूप में अब तक लोगों को मूंह ज़बानी याद हैं। बड़े ईमामबाड़े की भूल भुलय्यों में चहलकदमी करते हुए अपने मित्र के साथ घूमने आयी इल्मा हुसैन बताने लगती हैं कि इन्हीं दीवारों ने हिंदी और ऊर्दू को एक मुहावरा दिया है, दीवारों के भी कान होते हैं। इल्मा ने लगे हाथ अपनी शादी की दावत भी हमें दे डाली। दर असल उसका हमारे साथ आना हमारे लिए इत्तेफाक़ था, लेकिन उसकी अपनी मजबूरी थी। भूल भुलय्यों वाले ऐतिहासिक कुएँ में जाने के लिए जब वह अपने मित्र के साथ वहाँ पहुँची तो सेक्युरिटी गार्ड ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी और कहा कि गाइड के साथ जाएँ। उन्हें इससे बेहतर लगा कि किसी अंकल आंटी के साथ हो लें। 
स्थानीय दैनिक आग के पत्रकार वसीउल्ला हुसैनी और ख्यातिप्राप्त व्यंग्यकार पंकज प्रसून के साथ अमीनाबाद की मशहूर किताबों की दुकान दानिश महल में बैठक,  साहित्यकारों, पत्रकारों और चित्रकारों से मिलना और शाम के धुंधले होते सायों के बीच प्रकाश की कुल्फी का आनंद लेना लखनऊ में गुज़ारे हुए सुबह शाम की स्मृतियों में ताज़ा रहेगा।
पूर्व आईएएस अधिकारी राकेश गर्ग और उनकी धर्मपत्नी आभा गर्ग के साथ गौतमपल्ली के उनके मकान पर चाय की चुस्कियों के साथ कई सारे मुद्दों पर बातचीत की। खास कर राकेश गर्ग ने कांग्रेस, भाजपा और बसपा के शासनकाल में बदलते, संवरते, विकसित होते लखनऊ की जो तस्वीरें पेश कीं वह बड़ी दिलचस्प थीं। उर्दू अकादमी के पूर्व अधीक्षक हुसैन क़िदवाई, कहानीकार डॉ. ओबैदुल्लाह चौधरी और शायर नदीम राई के साथ कुल्हड की चाय का लुत्फ भी लखनऊ में गुज़ारे हुए खूबसूरत पल थे।
सफर में सबकुछ सुखकर नहीं होता, कुछ चीज़ें अनचाहे ही उसका हिस्सा बन जाती हैं। रेल के डिब्बे में वेटिंग और जनरल के जुर्मानेदार टिकट के साथ आरक्षित यात्रियों के आराम में शेरिंग चाहने वाले लोग और हर दो-पाँच मिनट में चॉय, बिस्कुट, समोसा, चटनी के साथ-साथ खैनी और गुटखा बेचने वाली आवाज़ें अपनी ठेकेदार उपस्थिति दर्ज कराकर आपका मज़ा किरकिरा करती हैं। इस सबके बावजूद लौटते हुए मध्यप्रदेश के बैतुल जिले से गुज़रने का आनंद भुलाया नहीं जा सकता। ट्रेन की खिड़की से हरे भरे पहड़ों और दूर वादियों से गुज़ते झरनों की पानी की लकीरों को देखना यादगार रहा। 11 अक्तूबर की रात 10 बजे अपने काचीगुड़ा स्टेशन के प्लेट फार्म पर उतरते हुए अपने शहर की ज़मीन पर क़दम रखते हुए मैंने महसूस किया कि इस यात्रा ने बहुत कुछ दिया था। कुछ नये दोस्त, नयी यादें और नई किताबें, जिन्हें अभी पढ़ना है।
हिंंदी मिलाप, हैदराबाद में प्रकाशित सफरनामे की क्लिप



Comments

  1. Excllent story these type of researched news need to the society.

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  2. शुक्रिया जैन कमल साहब आपसे मिलकर बहुत दिन हुए

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  3. शानदार सुन्दर वर्णन।
    " संकल्य " पत्रिका कहाँ से प्राप्त हो सकती है तथा हिंदी अकादेमी हैदराबाद का पता सूचित करने की कृपा करें।

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    1. माफी चाहता हूँ, देख नहीं पाया... संकल्य के संपादक डॉ. गोरखनाथजी से संपर्क कर सकते हैं... 9032117105

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