हैदराबाद का अपना ब्रांड बनाना था उद्देश्य : एम ए मजीद

एम ए मजीद आज हैदराबादी हलीम और बेकरी उद्योग में हैदराबाद ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खास पहचान रखते हैं। शहर के पारंपारिक कपड़ा व्यापारी घराने में उनका जन्म हुआ। अनवारुल उलूम से उन्होंने डिग्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। मिठाई, बेकरी, होटल और हलीम में वे अपने परिवार के पहले उद्यमी हैं। वे एक सफल उद्यमी के रूप में जाने-जाते हैं, लेकिन यह सफलता उनके लिए आसान नहीं रही। पररंभिक कुछ वर्षों में ही उन्हें मिठाई और बेकरी के कारोबार में लाखों रुपये लगाने के बाद अचानक आार्थिक संकट से गुज़रना पड़ा। अपने हिस्से की सारी जायदाद बेचनी पड़ी। आार्थिक स्थिति काफी विकट हो गयी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और पिस्ता हाउस को फिर से खड़ा किया। आज हैदराबाद के एक खास ब्रांड के रूप में पिस्ता हाउस का नाम है। उनके इस कारोबार पर एक विद्यार्थी ने पीएचडी की उपाधि परप्त की है। इंडियन बज़िनेस स्कूल और ऐस्की सहित कई बड़ी संस्थाओं ने इस व्यापार पर अध्ययन करवाया है। सप्ताह के साक्षात्कार में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं :-
आप होटल और बेकरी उद्योग में परिवार के पहले कारोबारी हैं। इस कारोबार में कैसे कदम रखा?
पिता और बड़े भाई टेक्सटाइल व्यापार में थे, लेकिन मेरी उस व्यापार में अधिक दिलचस्पी नहीं थी। शिक्षा पूरी करने के बाद दोस्तों के साथ इधर-उधर घूम कर वत्त गुज़र रहा था। शहर की एक मिठाई की दुकान पर अपने दोस्तों के साथ मैं खड़ा था। बातों-बातों में मुझे एहसास हुआ कि शहर में कोई ब्रांडेड बेकरी और रेस्तराँ ऐसा नहीं है, जिसे हैदराबाद के नाम से पहचाना जाए। इसी ख़्याल से मैंने मिठाई की दुकान शुरू करने का निर्णय लिया। इसका एक और कारण भी था। टेक्सटाइल के व्यापार में उन दिनों मैंने देखा कि दीपावली, दशहरा और रमज़ान में व्यापार होता था, लेकिन शहर में उत्सवों के दौरान प्रदर्शनियाँ शुरू हो गयी थीं। इसलिए मेरी रुचि इसमें कम ही थी। मुझे लगा कि खान-पान के व्यापार में काफी संभावनाएँ हैं। यह 1990 की बात है। मैंने ठान लिया था कि मैं मिठाई और बेकरी के कारोबार में कदम रखूँगा। इसी साल जुलाई के महीने में मैंने 35 लाख रुपये कारोबार में लगाये। मैंने ऑटोमेटिक मशीनें मँगाई। मुझे याद है कि हैदराबाद में उन दिनों धूम थी कि बेकरी और मिठाई का एक नया बरंड आ गया है। 100 लोग काम करते थे। बड़ा चैलेंजिंग काम था। इसके लिए मैंने खुद भी बेकरी का पूरा काम सीखा। मिठाई बनाना सीखा। आईसक्रीम और नाश्ते बनाने सीखे।
क्या आपके परिवार के लोग इससे राज़ी थे?
बिल्कुल नहीं। पारंपरिक कपड़ा व्यापारी परिवार होने के कारण खाने-खिलाने के इस धंधे में मेरा प्रवेश किसी को पसंद नहीं आया। घर के लोगों का मानना था कि बिना तजुर्बे के अनजान कारोबार में कदम रखना हिमाकत है। बहुत-सी नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बावजूद मैंने अपना हौसला कम होने नहीं दिया। कुछ ही दिन में यह कारोबार फलने-फूलने लगा।
कहा जाता है कि व्यापार के पररंभिक वर्षों में ही आप काफी बड़े आार्थिक संकट से गुज़रे। इस बारे में बताइए।
वह हादसा मैं कभी नहीं भूल सकता। अचानक ऐसा हादसा किसी के भी सपनों को चकनाचूर कर सकता है। आज मैं सोचता हूँ, तो लगता है कि वो दिन बड़े ही कठिन थे। मैंने कड़ी मेहनत की थी। बाज़ार में भरोसा बढ़ने लगा था, लेकिन अचानक एक घटना ने सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। कुछ लोगों की साजिश से फूड पॉयज्निंग की घटना हुई। हालाँकि, यह घटना इतनी बड़ी नहीं थी, लेकिन एक अखबार की गलत रिपोा\टग के कारण सारा कारोबार चौपट हो गया। जिन लोगों ने पैकिंग, डेकोरेशन और दूसरे कामों में अपना पैसा लगाया था, वे सब आ बैठे और अपना रुपया माँगने लगे। मेरे हिस्से में पिता से विरासत में आये 7 मकान थे। बैंक का ऋण भी बढ़ रहा था। देनदारों की माँग भी बढ़ रही थी। मैंने सारे मकान बेच दिये। हालात बहुत खराब होते गये, जहाँ 1 लाख का रोज़ाना का बिजनेस था, वह चार-पाँच हज़ार पर आ गया था। कपड़े की दुकान में मेरा जो भी हिस्सा था, वो मैं पहले ही लेकर हट गया था। मेहनत से बसाई हुई दुनिया किसी दूसरे की ग़लती के कारण उजड़ने के कगार पर पहुँच गयी। मेरे हिस्से में जो कुछ जायदाद थी, सब बिक गयी।
वह कौन-सी बातें थीं, जो संकट में भी आपको हिम्मत देती थीं?
हालात बहुत कठिन थे। मेरे पास दो रास्ते थे। या तो सुसाइड करूँ या शहर छोड़कर भाग जाऊँ। मैं खुदकुशी कर नहीं सकता था और शहर छोड़कर जाना मुझे मंजूर नहीं था। इसलिए पूरी निडरता से जमे रहना ही एक मात्र विकल्प था। मैंने सबसे पहले जिनका क़र्ज लिया था, उसे लौटाना शुरू किया। जितनी भी आय होती थी। रोज़ाना कुछ न कुछ लोगों का कर्ज लौटाता था। घर में पत्नी और बच्चों ने एक-दूसरे से वादा किया था कि जब तक पूरा क़र्ज अदा नहीं होगा, हम नये कपड़े नहीं पहनेंगे। मैंने एक वादा अपने आपसे भी किया था। ये कि जहाँ पैसे गिरे हैं, मैं वहीं से पैसे उठाऊँगा, क्योंकि न मैंने कोई जुआ खेला था और न कोई ग़लत काम किये थे। मुझे उस स्थिति से उबरने के लिए आठ से दस साल लगे।
अक्सर देखा गया है कि ऐसे हालात में पराये तो पराये, अपने भी साथ छोड़ जाते हैं। आपके अनुभव कैसे रहे?
मैं बता चुका हूँ कि जब मैंने यह नया कारोबार शुरू किया था, तो पूरा खानदान नाराज़ था कि अंजान कारोबार में दाखिल हो रहा हूँ। जब यह हादसा हुआ, तो लोगों ने ताने मारना शुरू किया। दोस्त और अपने सब बेगाने हो गये। लोगों को यह डर था कि कहीं मैं मुसीबत में उनसे पैसे माँगने न चला आऊँ। साथ ही यह गुस्सा भी था कि उनके मना करने के बावजूद मैंने नया कारोबार शुरू किया था। दोस्तों ने साथ छोड़ दिया। एक दिन पहाड़ की तरह बीता। उस दिन मैं पिस्ता हाउस बंद करके वापस घर गया। मेरी जेब में 10 रुपये थे। किराए के मकान में रहता था। बेटी को तेज़ बुखार था। मैं और मेरी पत्नी रोते रहे कि ऐसा समय आ गया है। अगर मैं अस्पताल भी जाता तो कम से कम 100 रुपये चाहिए थे, इसलिए बेटी को क्रोसिन की गोली खिला कर ठंडे पानी की पट्टियाँ लगाते हुए हम पति-पत्नी ने रात गुज़ारी। मुझे अपने आप पर भरोसा था। उम्मीद का एक रास्ता हमेशा खुला रहता है। मैं उसी रास्ते पर चल पड़ा। उजड़े नशेमन को फिर से बसाने के लिए जब सफ़र शुरू हुआ, तो मैंने वापस पलटकर नहीं देखा।
हलीम तो हैदराबाद में काफी ज़माने से है, लेकिन किसी ने इस कारोबार को विस्तार नहीं दिया। आपको इसका ख्याल कैसे आया?
रमज़ान के आते ही हलीम हैदराबाद में हर जगह बनती थी, लेकिन कोई पापुलर बरंड नहीं था। शहर में लोग इसे जानते थे, लेकिन हैदराबाद की डिश के तौर पर दूसरे शहरों या देशों में इसकी लोकप्रियता नहीं थी। मुझे लगा कि स्वाद असली हो, तो खाने वालों की कमी नहीं है। यह एक-दो दिन का काम नहीं है। बरंड बनाने में आठ-दस साल लग गये। मेरा उद्देश्य था कि हैदराबाद में मेरा अपना बरंड हो। आज यह बरंड अमेरिका सहित कई देशों में पहुँच गया है। दरअसल खान-पान के व्यापार में विस्तार सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण काम है। विस्तार के साथ असली स्वाद को बनाए रखना आसान नहीं होता है। एक जगह हो, तो उस पर पूरा ध्यान रखा जा सकता है, लेकिन विस्तार में वही स्वाद बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। प्रशिक्षण पर काफी ध्यान देना पड़ता है। पिस्ता हाउस ने जब 1997 में हलीम लांच की, तो पहले पोस्टल डिपार्टमेंट का सहयोग लिया गया। गति ट्रांसपोर्ट ने हमारी हलीम को देशभर में पहुँचाया। तत्कालीन संचार मंत्री प्रमोद महाजन ने इस कार्य में मदद की। सारे लोग सोचकर परेशान थे कि हलीम डाक से कैसे जाएगी?, लेकिन उन्होंने इसे संभव कर दिखाया।
रमजान के दौरान कारोबार में काफी लोगों को रोज़गार भी मिलता होगा?
रमज़ान के आते ही न केवल भारत, बल्कि जहाँ भी लोग हैदराबादी हलीम के बारे में जानते हैं, हलीम खाने की ख़्वाहिश ज़रूर रखते हैं। रमज़ान में हैदराबाद में ही पिस्ता हाउस के 400 आउटलेट खोले जाते हैं और 5,000 से अधिक लोगों को पिस्ता हाउस से रोज़गार मिलता है। मैंने हलीम की विशेष बिक्री के लिए प्रतिभावान और ज़रूरतमंद विद्याार्थियों को परथमिकता देनी शुरू की, ताकि वे रमज़ान के दौरान हलीम बेचकर अपनी शिक्षा का खर्च निकाल सकें।
आपने इस कारोबार को हैदराबाद के बाहर भी विस्तार दिया। इस बारे में कुछ बताइए।
हैदराबाद, बेंगलुरू, विजयवाड़ा सहित अमेरिका में भी पिस्ता हाउस की शाखाएँ हैं। यूएई में बिस्कुट फैक्टरी स्थापित की गयी है। अमेरिका में हम अपनी बिस्कुट फैक्टरी स्थापित करने की योजना पर काम कर रहे हैं। कनाडा एवं ऑस्ट्रेलिया में भी कारोबार को विस्तार दिया जा रहा है। उस्मानिया बिस्कुट, पिस्ता बिस्कुट एवं फ्रूट बिस्कुट दुनियाभर में पसंद किये जाते हैं। हैदराबाद में हमने 100 वेराइटी के कुकीज़ बनाए, जिनमें चार प्रकार के शुगर फ्री बिस्कुट की माँग बढ़ने लगी।
भावी योजनाओं के बारे में कुछ?
अभी बहुत मंजिलें तय करनी हैं। इंसान जितना भी काम करे, उसे कम ही महसूस होता है। मेरी ख़्वाहिश है कि सारी दुनिया में हिंदुस्तान का नाम हो और बिस्कुट और हलीम खाकर लोग हमें याद करें। जिस प्रकार मुंबई के लिए अल्फांसो आम, बनारस के लिए बनारसी साड़ी और दार्जलिंग के लिए वहाँ की चाय है, उसी तरह हैदराबाद की पहचान के लिए पिस्ता हाउस की  हलीम है।


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