किताबों में नहीं है कबीर का असली रूप : विपुल रिखी

`कबीरा खड़ा बाज़ार में सबकी माँगे खैर, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर ...' कबीर वाणी गाते हुए विपुल रिखी सुनने वालों को एक अजब शहर की सैर कराते हैं। वे हाल ही में हैदराबाद आये थे। कुछ सार्वजनिक और कुछ निजी महफ़िलों में उन्होंने हिस्सा लिया। कबीर की लोकगायन परंपरा को विपुल ने पेश किया। विपुल 19 मई, 1977 में दिल्ली में जन्मे, यहीं पले-बढ़े और अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी की। यहाँ तक तो उनके पास कबीर उतने ही थे, जितना एक प्रथम भाषा या द्वितीय भाषा हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी के पास होते हैं। एक दिन लोकगायन परंपरा के गायक प्र¼ाद टिपाणिया को सुनकर विपुल काफी प्रभावित हुए और कबीर प्रॉजेक्ट का हिस्सा बन गये। लेखक के रूप में दिल्ली और पुडुचेरी में समय गुज़ारने के बाद वे 2012 से बेंगलुरू में रह रहे हैं। सप्ताह के साक्षात्कार में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं... 
कबीर प्रॉजेक्ट से कैसे जुड़ना हुआ?
दरअसल अंग्रेज़ी साहित्य में एमए करने के बाद मैंने लेखन और अनुवाद के क्षेत्र में काम करना शुरू किया। मैंने कुछ डाक्युमेंटरी भी बनाए। वर्ष 2008 की बात है, मैं उन दिनों मसूरी में था। एक किताब पर काम चल रहा था। वहाँ कबीर पर चार दिन के एक वर्कशॉप में भाग लेने का मौका मिला। इस मौके पर शबनम विरमानी और प्र¼ाद टिपाणिया भी आये थे। मैंने प्र¼ाद को सुना, तो सुनता ही रह गया। वो मारवा में कबीर को गो रहे थे। उन्हें सुनकर लगा कि यह कुछ और ही है। हालाँकि, कबीर को पहले पढ़ा और दूसरों से सुना भी था, लेकिन उस दिन समझ में आया कि कबीर में कुछ खास बात है। उस दिन के बाद कबीर प्रॉजेक्ट से जुड़े लोगों और लोकगायकों से मेरी दोस्ती हो गयी। मैंने उनके साथ गाँवों में जाना शुरू किया। इस तरह मैं प्रॉजेक्ट से जुड़ गया।
आप गाते भी हैं। संगीत पहले कभी सीखा था या फिर इस परियोजना के लिए ही गाने लगे?
संगीत में हमेशा रुचि रही। मेरे पिताजी भी गाते थे। यह अलग बात है कि मैंने कोई प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया, लेकिन गाने का शौक हमेशा से रहा। जब कबीर प्रॉजेक्ट से मैं जुड़ा और लोकगायकों को सुनने लगा, तो लगा कि मुझमें भी एक गायक मौजूद है। जब कबीर सत्संग होते हैं, तो जरूरी नहीं होता कि एक ही व्यक्ति गाये, बल्कि उपस्थित सभी लोग गाने लगते हैं। इसी माहौल में लेखन और अनुवाद के साथ-साथ मेरा रिश्ता गाने से भी बन गया। मैंने तंबूरा भी सीख लिया। दूसरे वाद्य यंत्रों में भी मेरी दिसचस्पी बढ़ती गयी।

यूँ तो हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों में असंख्य लोग हैं, जिन्होंने कबीर को पढ़ा है और पढ़ाते भी हैं, लेकिन क्या आप महसूस करते हैं कि लोक गायन परंपरा के कबीर पढ़ने, पढ़ाये जाने वाले कबीर से अलग हैं?
जो किताबों वाला कबीर मुझे मिला, वो बड़ा मोरलिस्टिक टाइप का था। उसमें वो बात नहीं थी, जो मैंने लोक में पायी। लोक परंपराओं में बसा कबीर अलग है, जो चैलेंज करता है। लोक परंपराओं में अधिकतर दलित हैं। पंडितों और मुल्लाओं को उससे कोई काम नहीं है। इसलिए भी कि वह उनका खंडन कर रहा है। उन्हें कबीर से कोई लगाव नहीं है। कबीर के पास सीधे बात करने की क्षमता है। वह मुँह पर बात करते हैं। आपने अगर पाकिस्तान के फरीद अयाज़ को सुना होगा, तो वह साफ कहते हैं कि कबीर नंगी शमशीर है। उसने तो मंदिर को भी तोड़ा और मस्जिद को भी। किसी को नहीं बख़्शा। कबीर का यही रूप मशहूर है और यह रूप लिखित पाठ से गायब है। उनका कटाक्ष बहुत सशक्त है। कबीर ने राम-रहीम और जितने सारे नाम लिये हैं, वह तो उनके भीतर ही हैं। उसके प्रति जो भक्ति लोकगायन में मौजूद है, वह भी पाठ से गायब है। कबीर तो दिमाग को छोड़ने की बात करते हैं। उनके पास दिमाग को छोड़कर दिल से भक्ति का भाव अधिक है। यह भाव भी टेक्स्ट में नहीं पाया जा सकता।

क्या आपको लगता है कि कबीर पंथ का प्रभाव हाल के कुछ वर्षों में कम हुआ है और नयी पीढ़ी के पढ़े-लिखे लोगों ने कबीर के लोक रूप को नये ढंग से संरक्षित करना शुरू किया है?
मुझे कबीर पंथ की लोक संख्या के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, लेकिन आज भी काफी संख्या छत्तीसगढ़ में कबीर पंथी हैं। हो सकता है कि अब वे मतगणना में अपने आपको कबीर पंथी नहीं लिखाकर हिन्दी लिखाते होंगे, लेकिन इतना ज़रूर है कि कबीर को लोक गायन में प्रस्तुत करने वाले काफी ग्रुप हैं, जो पाकिस्तान में भी हैं। जब हम लाहौर गये थे, तो वहाँ एक कबीर मंडली हमें मिली थी। यह मंडली राजस्थान के उस इलाके से संबंध रखी थी, जो हिस्सा विभाजन के समय पाकिस्तान में चला गया और उसे अब चोलिस्तान कहते हैं। वहाँ की मंडलियों की शैली कुछ अलग है, क्योंकि उस पर राजस्थानी का प्रभाव है। यह बात सही है कि अब शहरी क्षेत्रों में कबीर में रुचि बढ़ती जा रही है। विशेषकर लोकगायकी के बारे में शहरी लोगों में सम्मान बढ़ा है। लोग जानना चाहते हैं कि वो क्या कहना चाहते हैं। संगीत एक ज़रिया है, जो टेक्स्ट से अलग प्रभाव रखता है। कबीर को गाने वाले कलाकार भी लोकप्रिय होते जा रहे हैं। इस तरह लोक परंपरा और पढ़े-लिखे शहरी कबीर प्रशंसकों के बीच मेल हो रहा है।

कबीर दर्शन को ध्यान में रखते हुए आप शहर और गाँव में क्या अंतर देखते हैं?
हालाँकि, दोनों में काफी अंतर है। लोक परंपरा के कबीर गायन में ग्रामीण और दलित अपनी समस्या का समाधान देखते हैं और शहरी अपने जीवन की समस्या ध्यान में रखते हुए इसे अलग नज़रिये से देखते हैं। गाँवों में जहाँ जाति प्रथा के मुद्दे हैं, वहीं शहरी जीवन में तनाव और बेचैनी के मुद्दे हैं। कबीर का एक रूप वर्तमान शहरी जीवन में महसूस की जा रही बेचैनी में काफी प्रासंगिक है। कबीर आइडेटिंटी पर हमला करते हैं। चाहे वह धर्मगुरु, नेता, अभिनेता, पत्रकार या कोई और हो। वह अपनी पहचान से बाहर निकल कर दूसरों से नहीं मिलना चाहता और उस रूप में रहते हुए भक्ति में दाखिल नहीं हो सकता। बहुत पहचान होने के बावजूद उसमें उसे चैन नहीं मिलता, जबकि कबीर का मन फकीरी और गरीबी में लग जाता है। सवाल यह है कि क्यों हम दूसरों से लड़कर, दूसरों को हराकर जीतने की होड़ में हैं। यहाँ कबीर उस पहचान पर चोट करते हुए हारने के लाभ बताते हैं, `कबीर तू हारा भला, जीतन दे संसार। हारा तो हरी मिलें, जीता जम के द्वार।।'

एक सामान्य लेखक से कबीर प्रॉजेक्ट से जुड़ने में आपको क्या मुश्किल और चुनौतीपूर्ण लगा?
वैसे चुनौतीपूर्ण कुछ नहीं था। दिल्ली में मैं रहता था, तो हिन्दी समझता था, लेकिन कबीर को समझने वाली हिन्दी समझने में थोड़ी मुश्किल ़हुई। धीरे-धीरे सीखने की प्रक्रिया जारी है। कई शब्द ऐसे होते हैं, जो सामान्य हिन्दी से बिल्कुल अलग होते हैं। कुछ को समझने के लिए उस परिवेश को समझने का प्रयास करना पड़ता है। कुछ बहुत तकनीकी तरह के शब्द है, जो योग और अन्य विषयों से संबंधित हैं। कुछ उलटबासियाँ हैं, जिसे समझना कभी-कभी मुश्किल होता है। हाँ, असल चुनौती भीतर की है। अगर आप गाओ कुछ और रहो कुछ, तो फिर कुछ पल्ले नहीं पड़ता। इसमें विरोधाभास खटकने लगता है। हम कबीर वाणी गा रहे हैं, तो खुद को भी बदलना पड़ेगा, जो चुनौतीपूर्ण है।

क्या आपको लगा कि आप पहचान के संकट से गुज़र रहे हैं?
हाँ, मैं लेखक था। चाहता था कि मेरा नाम हो, मेरी किताबें छपें और छप भी रही थीं, लेकिन जैसे ही मैं कबीर प्रॉजेक्ट से जुड़ा, मैं गायक बन गया। मुझे नहीं पता था कि मुझे गाना भी आता है, लेकिन अब मुझे लगता है कि खुद-ब-खुद ही जो हो रहा है, उससे खुशी महसूस हो रही है। पहचान चाहे जो हो, साधना जारी रहनी चाहिए।

कबीर को संत, भक्त और समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है। आप उनके कौन-से रूप को अधिक पसंद करते हैं?
मुझे नहीं लगता कि कबीर समाज सुधारक थे। इतना ज़रूर है कि वो सत्य बोलते थे। उन्होंने आईना ज़रूर दिखाया, लेकिन किसी को यह नहीं कहा कि तुम ऐसा मत करो, तुम वैसा मत करो। यह कहा जा सकता है कि समाज सुधार के लिए कबीर का प्रयोग हुआ है। मुझे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता में भी उनकी रुचि नहीं थी। वो देख रहे थे कि हिन्दू-मुस्लिम राम और रहीम को लेकर लड़ रहे हैं। इसीलिए उन्होंने दोनों का खंडन किया। रूढ़िवाद दोनों में है और दोनों पर उन्होंने व्यंग्य किया है। वे दरअसल ऑब्ज़र्वर थे। उनके राम-रहीम भी बाहरी तत्व नहीं थे, बल्कि वे भीतर के तत्व थे। वो भक्त हैं और भीतर के सच पर उन्होंने ज़ोर दिया। 

कबीर प्रॉजेक्ट का काम कहाँ तक पहुँचा है?
हमारी छोटी-सी टीम है। शबनम विरमानी ने यह काम शुरू किया। उन्होंने चार डाक्युमेंटरी फिल्में बनायीं। कुछ लोक गायकों की संगीत की सीडी भी बनायी गयी है। पिछले तीन-चार साल से अजब शहर नाम से काम चल रहा है। उसमें लोक परंपरा पर काफी सारा डाक्युमेंटेशन हमने किया है। संपादन का काम जारी है। स्मृति चंचानी डज़िाइन का काम देखती हैं। सैम पॉल भी हमारे साथ हैं। ज़रूरत के मुताबिक, समय-समय पर लोग इससे जुड़ते जाते हैं।

कबीर को पढ़ने वालों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
बहुत सारे सवाल हैं। अपने बारे में कि मैं कौन हूँ, क्या हूँ, क्या करना चाहता हूँ? इन सभी सवालों के जवाब अपने भीतर तलाशना चाहिए। खुद को जानने के लिए कबीर बहुत सहायक हो सकते हैं।

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