भाषा और संस्कृति का दौर लौट आएगा : प्रो.बी.एस. सत्यनारायण

प्रो.बी.एस. सत्यनारायण हीरो ग्रुप के बीएमएल मुंजाल विश्वविद्यालय, गुड़गाँव के कुलपति हैं। वे बहुत ही दिलचस्प इंसान हैं। उन्होंने बचपन के आठ-दस साल लगभग जंगलों में गुज़ारे हैं। कन्नड़ के साथ-साथ हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी, मलयाली, तमिल, तेलुगु और बांगला भाषाओं का अच्छा ज्ञान रखते हैं। उनके पिता हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी में कर्मचारी थे। उन्हें पिता के साथ ही, जहाँ नयी परियोजना पर काम शुरू हो, जाना पड़ता था। उनका जन्म राजस्थान के कोटा जिले में हुआ, लेकिन बाद में केरल और अन्य राज्यों में उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। सत्यनारायण देश के प्रमुख भौतिक वैज्ञानिकों में स्थान रखते हैं। उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय, यूके से वैक्यूम नैनो इलेक्ट्रॉनिक्स में डॉक्टरेट की है। वे राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं। एक दर्जन से अधिक बड़े पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। कोल्ड कैथोड लैम्प आधारित विश्व का पहला रूम टेंप्रेचर ग्रोन नैनोकार्बन बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। देश की पहली इंटीग्रेटेड अमोर्फस सिलिकन सोलार सेल पैनल टेक्नोलॉजी का विकास करने वाली टीम का हिस्सा होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है। उन्होंने शिक्षक के रूप में अपना व@रियर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से आरंभ किया, लेकिन बाद में नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी और हार्ट्रान परियोजना से जुड़ने के बाद वे कैंब्रिज चले गये। छह वर्षों तक जापान में काम करने के बाद वे भारत लौट आये। उन्होंने आर. वी. इंजीनियरिंग कॉलेज, बेंगलुरू के प्राचार्य के रूप में भी काम किया। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं...
इस क्षेत्र में योजनाबद्ध तरीके से आये थे या फिर हालात और जीवन जहाँ ले गया चलते रहे?
योजनाबद्ध कुछ भी नहीं था। बचपन के ज्यादातर दिन जंगलों में गुजरे। पिताजी बिजली निर्माण परियोजनाओं के निर्माण कार्य से जुड़े थे। उनका काम बस्तियों से काफी दूर हुआ करता था। मेरा जन्म तो कोटा में हुआ, लेकिन कुछ दिन बाद केरल के इडकी में उनका स्थानांतरण हुआ। यहाँ पूरी तरह जंगल था। घर से कुछ दूरी पर ही हाथी मिल जाते थे। हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन में ही काम करने वाली एक महिला ने वहाँ स्कूल खोल रखा था। वहीं मैंने पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा पूरी की। फिर हॉस्टल चला गया। इस तरह तमिलनाडु के तिरपुर तिर्ची और कोयंबतूर में आगे की शिक्षा जारी रही। फिर तो जिंदगी जहाँ ले जाती रही, चला गया। इंजीनियरिंग तो बचपन में ही सीखी थी। लोगों को बिजली की परियोजनाएँ बनाते देखा था। हालाँकि, मैं चाहता था कि इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करूँ, लेकिन 90 प्रतिशत अंक प्राप्त करने के बावजूद इसमें प्रवेश नहीं मिल सका। मैंने भौतिक शास्त्र पढ़ने के विकल्प को चुना।

किन-किन क्षेत्रों में काम करने का मौका मिला?
शुरुआत तो नेशनल फिजिकल लेबारेटरी नयी दिल्ली से हुई, लेकिन उसके बाद हार्ट्रान यूएनडीपी (अंबाला) परियोजना में काम करने का अवसर मिला। मैं मणिपाल विश्वविद्यालय में नवोन्मेष केंद्र स्थापित करने के लिए बनायी गयी टीम का हिस्सा भी रहा। उसके बाद कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय चला आया। यहाँ इलेक्ट्रॉनिक एवं विज्ञान विभाग में काम करने के दौरान मुझे कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी करने हेतु कॉमन वेल्थ छात्रवृत्ति मिली। इसके लिए मुझे यहाँ जो पीएचडी का शोधग्रंथ दाखिल किया गया था, उससे वंचित होना पड़ा। कैंब्रिज में पीएचडी के दौरान ही जापान के एक व्यक्ति से मेरा संपर्क हुआ। उन्होंने मुझे सिस्टेक इंडस्ट्री अकादमिक कोलॉबरेटिव रिसर्च सेंटर, केयूटी कोची जापान में काम करने का आमंत्रण दिया, जहाँ 6 वर्षों तक काम करने के बाद मैं भारत चला आया। यहाँ पर अमेरिकी दूतावास, नई दिल्ली के पर्यावरण विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी कार्यालय में मैंने काम किया। अब बीएमएल मुंजाल विश्वविद्यालय में अलग जिम्मेदारी निभा रहा हूँ।
इस विश्वविद्यालय से जुड़ने का अवसर कैसे मिला?
मैं बेंगलुरू के आर. वी. इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राचार्य था। इस कॉलेज में 50 लाख रुपये के कार्य होते थे। मैंने कोशिश की कि सरकार और उद्योग के बीच साझा काम को आगे बढ़ाकर विद्यार्थियों को नवोन्मेष से जोड़ा जाए। इस तरह बात 100 करोड़ रुपये तक पहुँच गयी। शोध संस्था के रूप में अमेरिका में प्रतिनिधित्व के लिए भारत सरकार ने इसे चुना था। हीरो समूह के पदाधिकारी मुझे जानते थे। उन्होंने नये विश्वविद्यालय को संभालने का प्रस्ताव रखा और मैं यहाँ चला आया।
किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
दरअसल काम के दो तरीके हैं या तो पैसे के लिए काम करो या काम के लिए काम करो। मेरा सिद्धांत काम के लिए काम करना रहा। विज्ञान के क्षेत्र में यूँ तो हर काम चुनौतीपूर्ण रहता है। यही चुनौतियाँ अवसर भी प्रदान करती हैं। हार्ट्रान परियोजना से मैं जुड़ा, तो वहाँ उस समय वार्षिक आय 50 हज़ार रुपये थी। मेरे साथ कृष्णमूर्ति नामक अन्य वैज्ञानिक थे। डिफेंस और स्पेस के लिए टेक्नोलॉजी का काम हो रहा था। इसकी वार्षिक आय को 5 लाख रुपये तक ले जाने का काम हुआ। इसका लाभ भी हुआ। एक वर्ष में 6 इंक्रीमेंट मिले। कुरुक्षेत्र में काम करने के दौरान मैंने पाया कि यहाँ उस समय पदोन्नति के लिए 8 साल लगेंगे। इतने दिन में तो कैंब्रिज में पढ़ाई हो जाएगी। हालाँकि, इसके लिए 14 साल से किया गया पीएचडी का काम, जो डिग्री मिलने के करीब था, छोड़कर जाना पड़ा। कैंब्रिज में फिर से शोध शुरू हुआ, लेकिन काफी कुछ सीखने का मौका मिला।
आप बता रहे थे कि बीएमयू मुंजाल विश्वविद्यालय में बिना अंतिम परीक्षा लिखे भी छात्र पास हो सकते हैं?
हाँ, यह तरीका आज कल कई विश्वविद्यालयों में अपनाया जा रहा है। इसका मूल उद्देश्य विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए पढ़ने से बचाकर उनमें सीखने की प्रवृत्ति को जगाना है। साल भर विद्यार्थियों की गतिविधियों के आधार पर उन्हें अंक मिलते रहते हैं। अंतिम परीक्षा से पहले उन्हें 60 अंक मिल जाते हैं। इसके बाद केवल अंक बढ़ाने के लिए परीक्षा लिखनी होती है। अगर विद्यार्थी परीक्षा न भी लिखें, तो भी वे उत्तीर्ण होंगे। दरअसल कई बार देखा गया है कि विद्यार्थी परीक्षा से कुछ दिन पहले खूब पढ़ते हैं और फिर परीक्षा के बाद उन्हें कुछ याद नहीं रहता है। इस प्रवृत्ति से न विद्यार्थी को लाभ होता है और न ही उस शिक्षा व्यवस्था से समाज को किसी तरह का लाभ होता है।
क्या बात है कि उन्नत देशों में जिस तरह भाषा और कला संस्कृति की शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है, भारत में नहीं दिया जा रहा है?
कला, भाषा संस्कृति के बिना सही उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह सब पेट भरने के बाद की चीज़ें हैं। भारत अभी काफी युवा लोकतंत्र है। पहले यहाँ आर्थिक रूप से मज़बूत होने की ज़रूरत है। हालाँकि समानांतर कला एवं संस्कृति की ओर भी ध्यान दिया जाने लगा है। यह बात सही है कि उस पर फोकस नहीं है। पैसे के लिए जो हाथ लगे, उसकी तरफ झुकाव ज्यादा है। हालाँकि पॉप का उदाहरण लिया जा सकता है। संपन्न पंजाबी संगीत को छोड़कर कुछ लोग पॉप की ओर गये, जिसमें उन्हें पैसा दिखाई दे रहा था। मुझे उम्मीद है कि पेट भरेगा, तो लोग कला, संस्कृति और अपनी भाषा की तलाश में लौट आएँगे। उन्हें वापस आना होगा।
क्या जीवन में सफलता केवल पैसे और वेतन से नापी जाती है?
नहीं, लेकिन फिर भी मैं कहूँगा कि पेट भरा हो, तो अच्छा सोचा जा सकता है। यह तसल्ली जरूरी है कि जिंदगी आसानी से कट जाएगी। अपनी काबिलियत पर भरोसा वेतन और रुपये से होता है। लगता है कि हाँ, अब मैं जी सकता हूँ और आसानी से जिंदगी कट जाएगी, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि पैसा कामयाबी नहीं है। ज़रूरत से अधिक पैसा योग्यता न हो, तो किसी काम का नहीं है।
क्या काम हैं, जो अभी तक आपने नहीं किये हैं, जो अधूरे हैं और उन्हें पूरा करना चाहते हैं?
जैसा कि मैंने बताया कि मैं जंगलों में रहा हूँ। रामकृष्ण मिशन स्कूल में प्रारंभिक कक्षाओं में पढ़ने के दौरान नंगे पैर ही मैं चला करता था। फिर जीवन में ऐसे ही कामों से जुड़ता रहा, जिनका संबंध लोगों के लाभ से है। मैंने बड़ी परियोजनाएँ से हज़ारों लोगों को प्रभावित किया। मेरी चाह है कि स्थिर, समावेशी, टेक्नोलॉजी के साथ नवोन्मेष हो और अधिक से अधिक लोगों के लिए हो। मेरी इच्छा निरंतर ऐसे काम करने की है।
युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे?
अपने पर भरोसा करो। ईमानदारी, एकाग्रता और मूल्यों के साथ जो भी करो, अच्छा करो। जो भी मिलना है, वह मिलकर रहेगा। सिफारिश से नौकरी तो मिल सकती है, संतोष नहीं। अवसरों का लाभ उठाते हुए साथी काम करने वालों से मिलकर काम करें। इससे ही कामयाबी हासिल की जा सकती है। सह-कर्मियों से नुकसान पहुँचाने की भावना से बचें।

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