खत्म नहीं हो सकती किताब पढ़ने की संस्कृति : असग़र वजाहत

असग़र वजाहत हिन्दी के मशहूर लेखक हैं। उन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी और आलोचना के अलावा फिल्में भी लिखी हैं। वे 20 से अधिक पुस्तकों के रचनाकार हैं। 5 जुलाई, 1946 को उत्तर-प्रदेश के फतेहपुर में जन्मे असगर वजाहत ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और जामिया मिल्लिया में हिन्दी के प्रोफेसर रहे। `जिन लाहौर नई वेख्या, ते जन्म्या नई' जैसे मशहूर ज़माना रचना के नाटककार असगर वजाहत ने डाक्युमेंट्री फिल्में भी बनायी हैं। उन्होंने धारावाहिक भी लिखे हैं और चित्रकार के रूप में रंगों के साथ खेला है।  उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं...

बचपन से ही लिखने का शौक रहा या इत्तेफाकिया तौर पर आपने लेखन के क्षेत्र में कदम रखा?
आप कह सकते हैं कि इत्तेफाक रहा। मुझे पढ़ने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी, बल्कि फूल-पत्तों, पेड़-पौधों और पक्षियों में अधिक दिलचस्पी हुआ करती थी। मैं सोचता था कि फलाँ रंग की चिड़िया को कैसे पकड़ा जाए। मैं गुलाब के फूल को कागज़ पर रगड़ता और उसका लाल रंग देखकर खुश होता था। कमल के फूल कहाँ खिलते हैं, ये ढूंढ़ने निकल जाता था। बचपन में गोंद खाने का बहुत शौक़ था, इसलिए पेड़ों के झुंड की तलाश में मैं निकल पड़ता था। ऐसे में भला पढ़ाई कहाँ अच्छी होती। टीचर कहते, समझ गये, तो सबसे पहले मैं ही कहता था कि हाँ, समझ गया। वो समझते थे कि मैं पढ़ने में बहुत अच्छा हूँ। इसका नतीजा यह हुआ कि मैं कई बार परीक्षाओं में फेल हो गया। यहाँ तक कि डिग्री में भी मैं एक बार फेल हुआ। इसके बाद मैं सप्लिमेंटरी लिखकर पास हुआ। इतना ज़रूर था कि किसी ने अगर कोई वाक्या सुनाया, तो मैं बेचैन होता कि उसे दूसरों को किस तरह सुनाऊँ। एक अकेला कितने लोगों को बता पाता। अलीगढ़ में जैदी साहब एक रिसाला निकालते थे। उन्होंने कहा कि जो तुम सुनाते हो, वो लिखा करो। इस तरह शहरे तमन्ना में मेरी एक कहानी छप गयी। हॉस्टल में बात फैल गयी। लोगों ने तारीफ करनी शुरू कर दी। मैंने महसूस किया कि मेरी किसी बात पर कभी किसी ने तारीफ नहीं की, लेकिन इस कहानी के लिए लोगों ने मुझमें कुछ देखा था। मुझे लगा कि यही करूँ। हिन्दी विभाग के के.पी. सिंह साहब ने कहा कि इसी को मैं हिन्दी में लिखूँ। मैंने वैसा ही किया और फिर उन्होंने `वह बिक गयी' शीर्षक से यह कहानी हिन्दी पत्रिका में छपवा दी। पत्रिका वालों ने कहा कि और लिखो। यह 1962 की बात है और यह सिलसिला चल पड़ा।
उस समय अलीगढ़ का माहौल कैसा था?
अलीगढ़ उस वक्त पढ़ने-लिखने वालों के लिए उत्साहपूर्ण जगह थी। राही मासूम रज़ा, के.पी. सिंह, जावेद कमाल, आले अहमद सुरूर, इरफान हबीब जैसे बड़े लेखक वहाँ मौजूद थे। महफिलें होती थीं। कई दिलचस्प लोग मौजूद थे, जिनकी अपनी-अपनी कहानियाँ थीं। मजनू गोरखपुरी के बारे में मशहूर था कि वे जब घर से निकलते थे, तो दो-चार जगह अपने शेर सुनाकर एक-दो जाम के बाद ही घर लौटते थे और रिक्शे वाले से किराया पूछते थे। रिक्शेवाला हमेशा की तरह एक रुपया बताता था। वो बड़े भावुक हो उठते और कहते कि एक रुपये में कैसे घर चलाओगे, क्या खाओगे, बच्चों को क्या खिलाओगे और 10 रुपये का नोट उसे दे देते थे। रिक्शेवाले के लाख कहने पर भी वो उससे पैसे वापस नहीं लेते थे। उस समय उन्हें कोई मना भी नहीं सकता था। सुबह रिक्शावाला उनके घर जाता और बाकी पैसा लौटा देता। फिराक ने कहा है न कि आये थे हँसते खेलते मयख़ाने में फिराक, पी ली शराब हमने, तो संजीदा हो गये। 

लेखन के प्रारंभिक दिनों में किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
आम तौर पर यही फिक्र होती कि अच्छी से अच्छी कहानी कैसे लिखी जाए। पढ़ाई के बारे में तो घर वाले ही तय करते थे कि डॉक्टर बनना है, इंजीनियर बनना है या कुछ और। एक भाई इंजीनियर था, तो मुझे डॉक्टर बनना था। इसलिए मैंने साइंस ली थी, लेकिन दिलचस्पी नहीं थी। उर्दू शायरी में मेरी दिलचस्पी थी, इसलिए फैज़ और मजाज की दुनिया में जाता था। वो उम्र ही कुछ ऐसी थी। देखा जाए, तो अनुभव ही धीरे-धीरे वास्तविकता और कल्पना के बीच में पुल बनाते हैं। अपनी ही पुरानी चीज़ों से तुलना करते हुए हम हर दिन बेहतर हो सकते हैं और एक स्तर तक पहुँचने के लिए दस-पंद्रह साल लग ही जाते हैं।
आप अपने किरदार कहाँ से उठाते थे? क्या वो आम लेखन परंपरा की तरह ही थे या फिर आप उन्हें तलाश करने कहीं निकल जाया करते थे?
आस-पास की ज़िंदगी से बहुत सारे किरदार मिल जाते थे। यूँ अलीगढ़ में ऐसे किरदार भी थे, जो किरदार ढूँढ़ने निकल जाते थे। जाड़ों की रात में ओवरकट पहने, लेकिन मुझे लगता है, वो खुद एक किरदार जैसे थे। बहुत सारी घटनाएँ थीं, लोग थे, जो कभी-कभी 20-25 साल बाद याद आये और कहानियों का हिस्सा बन गये। मैंने एक कहानी लिखी थी, `मैं हिन्दू हूँ'। अलीगढ़ अपरकोर्ट में फसाद हुआ था और कर्फ्यू के दौरान पुलिस ने एक नीम पाग़ल को गिरफ्तार किया था। उससे कुछ भी पूछो, तो वह कहता था कि मैं हिंदू हूँ। नाम पूछो, तो कहता, मैं हिन्दू हूँ। कर्फ्यू में क्यों निकल आये, तो कहता कि मैं हिन्दू हूँ। पुलिस जब उसकी इस हालत को देखकर उसे पीटने लगी, तो किसी ने उसके परिवार को सूचना दी और परिजन आकर उसे घर ले गये। दरअसल फसाद से पहले किसी ने उसे डरा दिया था कि लोग उसे मार देंगे और बचने का एक ही विकल्प बताया था कि वह हिन्दू बन जाए। उसके दिमाग में यह बात बैठ गयी कि हिन्दू बनेगा, तो बच जाएगा और उसी दिन से उसके दिमाग़ में एक ही चीज थी, मैं हिन्दू हूँ। यह कहकर वह बहुत खुश हुआ करता था।

वो कौन-सी बातें थीं, जो आपको लिखने के लिए उकसाती थीं?
झूठ, फरेब, मक्कारी, अन्याय, भेदभाव, असहिष्णुता जैसे विषय किसी भी संवेदनशील लेखन के लिए प्रेरित करते हैं। लेखक उनका पर्दाफाश करता है।
वो कौन-सी बातें थीं, जिनके बारे में एक लेखक के रूप में आपको लगता है कि नहीं लिखना चाहिए?
यह मुद्दा तो साहित्य में चर्चा का विषय रहा है। हमारे दौरान भी साहित्य के लिए साहित्य अथवा जिंदगी के लिए साहित्य पर चर्चा होती थी। दरअसल जिंदगी में कई ऐसी चीज़ें होती हैं, जो बहुत ही निजी होती हैं। उससे समाज का कोई संबंध नहीं होता है। वो चीज़ें, जिनसे समाज का, जिंदगी का गहरा संबंध है, उसे लेखन का हिस्सा बनाना चाहिए।
कोई घटना, जिसने एक लेखक के रूप में आपको सुकून पहुँचाया हो?
जब अपने किसी पाठक से अच्छी प्रतिक्रिया मिलती है, तो बहुत खुशी होती है। आलोचक तो बहुत लिखते रहते हैं। उनके अपने मानक होते हैं, लेकिन पाठक तक पहुँचने और उसे प्रभावित करने से ज्यादा खुशी और नहीं हो सकती।
कभी किसी बात पर बहुत दु:ख हुआ हो?
दुःख हालात पर होता है। विशेषकर देश में इन दिनों ऐसे हालात हैं कि इन्सान को इंसानियत से नहीं, बल्कि उसके मज़हब से पहचाना जा रहा है। यह इंसानियत के लिए सबसे बड़ा़ खतरा है। एक बार मैं अपने मित्र के साथ एक बाबा के पास गया और उनके पूछने पर मैंने बताया कि बाबा देश में लोग बहुत परेशान हैं, उनकी परेशानी दूर करें। मैंने जनमानस की कई सारी समस्याएँ उनके सामने रखीं। आखिर में उन्होंने तंग आकर कहा कि अपनी कोई निजी समस्या हो, तो बताओ। मैंने कहा कि मेरी निजी कोई समस्या नहीं है। इसके बाद उनके शिष्य ने कहा कि अब बाबा से मिलने का मेरा समय समाप्त हो गया है।
क्या आपको लगता है कि तकनीकी के दौर में छपी किताबों के सामने संकट गहरा गया है?
किताबें पढ़ने की संस्कृति सदियों पुरानी है। छपे हुए लफ्ज़ों की अपनी अलग अहमियत है। उनमें अपना आकर्षण है। इसको अचानक कोई खत्म नहीं कर सकता। हाँ, इसकी शेयरिंग हो सकती है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से कुछ देर तक कुछ सूचना तो प्राप्त की जा सकती है, लेकिन किताब लेकर पढ़ने का अपना अलग मज़ा है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से पढ़ी कोई उपन्यास उस तरह स्मृतियों का हिस्सा नहीं बन सकती, जिस तरह किताब के रूप में वह पढ़ने वाले के हाथों और दिल का हिस्सा बनती है।
युवा लेखकों के लिए कोई संदेश?
खूब पढ़ें। बगैर पढ़े कोई अच्छा लेखक नहीं बन सकता। आज भी लगता है कि काश मैं और ज्यादा पढ़ लिया होता। पढ़ने से नज़र और नज़रिया दोनों विकसित होते हैं। साथ ही लिखने में निरंतरता रखें। आस-पास की ज़िंदगी पर नज़र रखें, ताकि लेखन जीवंत हो।




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