क्या घर मुझसे प्रेम करता है...


देखना मेरी ऐनक से....
मैं अकसर सोचता हूँ कि मैं घर क्यों जाता हूँ, मुझे घर क्यों जाना चाहिए? घर में क्या है, जो मुझे बुलाता है, आकर्षित करता है? ऑफिस का काम पूरा करने के बाद ऐसा क्या है जो मुझे सीधे घर की ओर खींचता है, बेचैन करता है कि मुझे कहीं और जाने के बारे में न सोचकर जल्द से जल्द घर की ओर जाना चाहिए। फिर मैं सोचता हूँ कि बहुत सारे लोग हैं, जो घर जाकर भी घर नहीं जाते, घर के पास की किसी पान की दुकान या चाय खाने पर बैठकर गप्पे मारते हैं, चबूतरे पर बैठकर रात का काफी सारा हिस्सा घर के बाहर ही बिताते हैं, तो फिर घर क्यों जाना चाहिए। जब शहर की पुलिस ने चबूतरा अभियान शुरू किया था, तब भी मैं सोचता रहा कि क्यों लोगों को घर अपने अंदर नहीं समाता, क्यों नहीं वह अपने भीतर रहने वालों को इतना प्यार करता कि एक बार जब थके हारे लौट आयें तो फिर से बाहर जाने के बारे में न सोचें।  उसमें रहने और उसका प्यार पाने के लिए बेचैनी बढ़ती रहे और अदमी दफ्तर से घर की दूरी के लंबे लंबे रास्ते तय करता, ट्राफिक के अंतहीन समंदरों में तैरता, मैदानों में दौड़ता और पहाड़ों और वादियों को चीरता हुआ अपने घर पहुँचे। आखिर घर है क्या, गेट, दालान, पार्किंग, दरवाज़े, खिड़कियाँ, बाथरूम, किचन, बेडरूम, नल वग़ैराह, वग़ैराह... या फिर घर में रहने वाले लोग।

बच्चे आखिरकार देर रात तक चबूतरों पर क्यों बैठते हैं? क्यों वे अपने घर के भीतर नहीं रहते। कई महिलाओं को यह शिकायत होती है कि उनके युवा पति जब काम से घर लौटते हैं तो पास की होटल और पान के डब्बे पर देर रात तक अपना समय बिताते हैं। यही उनकी सोशल सर्फिंग है और यही उनका फेसबुक भी और नये दौर के युवा घर में अपने कमरों में घुसकर भी इंटरनेट सर्फिंग और घर से बाहर की दुनिया से चैटिंग में जुट जाते हैं। अब टेलीवीजन भी उन्हें अपने से अधिक देर तक बांधे नहीं रखता। आखिर ईँट, पत्थर, सीमेंट, कंकरीट, स्टील और लकड़ी के दर व दीवारों का मकान ही घर है क्या?  घर बनाने वाले लोग, उसमें रहने बसने वाले लोग, उसे खुश्बूदार और मनोरंजनक बनाने वाले लोग घर नहीं हैं क्या? जिस तरह के. जी. से प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाला बच्चा स्कूल छूटने की घंटी का इंतेजार करते हुए अपनी माँ से जल्द से जल्द मिलने और उससे अपनी कक्षा में हुई सारी बातें बताने के लिए बेचैन रहता है, क्या उसी तरह माँ, भाई, बहन, पिता, पत्नी, पति और बच्चे, अपने हमदम, हमराज़, हमजोली, एक ही छत के नीचे साँस लेने वाले लोग आपस में दूसरे प्राणियों से बतियाते हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं और काम से घर आने की ओर लालयित होने का सबब हैं, शायद नहीं... हमारे शहरीपन ने हम से एक एक कर के यह सब खूबियाँ छीन लीं हैं और हमारे हाथ में एकाकी होते चले जाने के साधन थमा दिये हैं। अब दादा, दादी, नाना नानी, चाचा चाची, बुआ, मासी जैसे रिश्ते भी घर के भीतर नहीं रहे, जो कभी घर का आकर्षण हुआ करते थे।
मैं फिर सोचता हूँ, बल्कि देखता हूँ, उन परिंदों को जो शाम होते ही अपने घोंसलों की ओर लौटते हैं, उन्होंने अपने लिए कोई चबूतरा नहीं बनाया है, और न ही कोई पान का डब्बा, होटल या मैखाना बना रखा है, जिसको वे घोंसलों पर प्राथमिकता दे सकें। इसलिए भी कि वो इन्सान नहीं हैं।   
(देखना मेरी ऐनक से... शीर्षक से एक कॉलम हिंदी मिलाप के रविवारीय विशेषांक मिलााप मज़ा में शरू हुआ है। ब्लॉग के पाठकों के लिए यहाँ उसकी प्रति प्रस्तुत है।)
                               ....  एफ एम सलीम

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