हिन्दी को बनाना चाहता हूँ फैशन : मनीष गुप्ता

इस संसार में हज़ारों लोगों ने लाखों करोड़ों लड़ाइयाँ लड़ी हैं। कहते हैं, ज्यादातर लड़ाइयाँ जर, जोरू और ज़मीन के लिए लड़ी गयीं। लगता है, यह बात कहने वालों ने एक और `ज़' छोड़ दिया था। यह है ज़बान का `ज'। पता नहीं इसके लिए कितने लोगों ने कितनी लड़ाइयाँ लड़ीं और क्या हासिल किया, लेकिन एक जंग मनीष गुप्ता भी लड़ रहे हैं। हालाँकि, उनकी यह जंग किसी भाषा के खिलाफ नहीं हैं और वो खुद भी इसे लड़ाई नहीं मानते, बल्कि उनका यह आंदोलन निज भाषा से अपनी ज़िंदगी खूबसूरत बनाने के लिए है। यह आंदोलन केवल दिमाग और जेब का नहीं, बल्कि दिल का भी है। मनीष गुप्ता दिल और दिमाग की संपत्ति अर्थात समझ को विकसित करने के लिए बोलने, सुनने और सुनाने की प्रवृत्ति को उत्साहित करने की ऐसी धाम यात्रा पर निकल पड़े हैं, जिसे निज भाषा के अलावा किसी और साधन या उपकरण से पूरा नहीं किया जा सकता है। फिल्मकार और चित्रकार मनीष गुप्ता कविता में डिजिटल क्रांति के प्रवर्तक माने जाते हैं। वे हिन्दी कविता और उर्दू स्टूडियो यू-ट्यूब चैनल के संस्थापक हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में वे पर्यटन प्रबंधन के अतिथि प्रोफेसर भी हैं। दस-पंद्रह वर्ष तक मनीष अमेरिका में रहे, लेकिन हिंदुस्तान ने उन्हें वापस बुला लिया। वे फैशन के समर्थक हैं और हिन्दी को फैशन बनाना चाहते हैं। मनीष गुप्ता इन दिनों अपनी हैदराबाद यात्रा पर हैं। उनसे उनके इस आंदोलन पर बड़ी दिलचस्प गुफ्तगू हुई।  उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं... 
हिन्दी, उर्दू या हिंदुस्तानी भाषा से आपकी पहली मुठभेड़ कब और किस तरह हुई? क्या केवल मातृभाषा होने के नाते इससे आपका लगाव रहा?
मेरा संबंध मध्य-प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले से है। पिताजी प्रोफेसर थे, तो पढ़ने-लिखने में मेरी रुचि शुरू से ही है। मैं छोटे शहर से था, इसलिए अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं आती थी, तो निश्चित रूप से दिल और दिमाग का कारोबार हिन्दी में ही चलता था। मैं भी पिताजी की तरह प्रोफेसर बनना चाहता था। विशेषकर शिमला यूनिवार्सिटी में काम करना चाहता था, जो बहुत खूबसूरत जगह है। बहुत ज्यादा रोमांस उस जगह के साथ जुड़ा हुआ था। बचपन से पिताजी ने मुझे बाल पॉकेट बुक्स उपलब्ध करवाए थे। छठी-सातवीं कक्षा में मैं था, तो पिताजी ने बड़े उपन्यास पढ़ने की इजाजत दे दी। एक दिन श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी भी मैंने पढ़ डाली। कविताएँ भी सामान्य पाठक की तरह ही पढ़ लिया करता था। इतना जरूर है कि यह बात उस समय सताती थी कि अंग्रेजी पढ़ने-बोलने वाला हिन्दी पढ़ने वाले से बड़ा कैसे हो गया? जहाँ तक उर्दू की बात है, तो मुझे नहीं लगता यह हिन्दी से अलग है, लेकिन शायरी और शायरी से प्रेम करने वाले दोस्तों की वजह से मैं इसके भी करीब आता गया। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस भाषा को कुछ लोग उनकी (मुसलमानों और पाकिस्तान की) भाषा मानते हैं, लेकिन मैंने देखा कि भारत के मुसलमान तो तेलुगु, तमिल, मलयाली, मराठी और गुजराती भी हैं। दूसरी ओर, अगर मुसलमान इसे अपनी भाषा बोलते हैं, तो अधिकतर मुसलमानों को यह आती ही नहीं है, लेकिन गौर करें, तो यह भारत की संस्कृति में रची-बसी खूबसूरत भाषा है। शायद यही बात है कि यह भी मेरी परियोजना से जुड़ गयी। उर्दू पाकिस्तान की भाषा इसलिए भी नहीं हो सकती कि वहाँ पंजाबी और सिंधी उर्दू से ज्यादा बोली जाती है।
आपको पहली बार कब लगा कि हिन्दी कविता को नया अवतार या नये आवरण में पेश करना होगा?
मैं जब अमेरिका से भारत लौटा, तो कई सारे काम किये, लेकिन मज़ा नहीं आ रहा था। फिल्में भी बनाईं, टीवी सिरियल बनाए। इससे पैसे भी मिले। मैं घूमता रहता था। इस दौरान दो किताबें- कामायनी और उर्वशी पढ़ने का मौका मिला। इन्हें पढ़ने के बाद अपने पढ़े-लिखे होने, फिल्मकार होने, अमेरिका में जाकर काम करने जैसी कई उपलब्धियों का नशा उतर गया। इन दोनों किताबों में जो भाषा, दर्शन था, उसे देखकर लगा कि भारत में जयशंकर प्रसाद और दिनकर की मूर्तियाँ क्यों नहीं लगायी गयीं? जन मानस में या आम हिन्दी पाठक में इनके बारे में क्यों नहीं चर्चा होती है? शेक्सपीयर की बातें भारत में बहुत होती हैं, लेकिन प्रसाद, दिनकर और पंत के बारे में लोग चर्चा नहीं करते हैं। मेरे भीतर के फिल्मकार और साहित्य के रसिक को यह लगा कि मुझे इस दिशा में कुछ करना चाहिए और यहीं से मैंने कैमरा उठाकर कविताओं के वीडियो बनाना शुरू किया।
क्या आपको लगता है कि हिन्दी कविता या उर्दू शायरी से जुड़कर लोग हाय-बाय वाली संस्कृति को छोड़ देंगे या कोई बड़ी कायापलट होगी?
मैं नहीं कहता कि कायापलट होगी या नहीं, लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि लोग चर्चा ज़रूर करेंगे और इसके संकेत सामने आने लगे हैं। मैं जानता हूँ कि भारत में काफी डरे हुए लोग रहते हैं। वे खुलकर नहीं जीते हैं। यहाँ जिंदगी के साथ कोई प्रयोग नहीं होता है, जबकि हमारी प्राचीन संस्कृति काफी मुक्त थी। आज हम बंधे हुए लोग हैं। हमारे सपने बंधे हुए हैं। लोगों को व@रियर प्लान तो पता है, लेकिन सपन्ाा नहीं। ऐसा समाज जहाँ खुलकर सपने नहीं देखे जाते, वह कैसा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। आखिर सपना देखने और सोच को विकसित करने के लिए भी तो अपनी भाषा की ज़रूरत है, जो भावी पीढ़ी के पास नहीं है। अपनी भाषा का गर्व उनके पास नहीं है। देश को माँ कहते हैं, उससे प्रेम का दावा करते हैं, लेकिन यहाँ रहने और यहाँ की भाषा बोलने पर उन्हें गर्व नहीं होता है। ऐसा प्रेम को तो खोखला ही कहा जा सकता है। दुनिया में यदि हर छठा व्यक्ति भारतीय है, तो हर छठा प्रॉडक्ट भारतीय होना चाहिए, लेकिन यह 600वाँ भी नहीं है। हमने अमेरिका में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ खड़ी करने में अपनी भूमिका निभाई, लेकिन न अपना कोई सर्च इंजन बनाया और न ही कोई सोशल मीडिया। सारे सर्च इंजन और सोशल मीडिया अमेरिका के हैं। हालत यह है कि चीन ने अपना सर्च इंजन बना लिया और आज अमेरिका के विश्वविद्यालयों में जहाँ अंग्रेज़ी के बाद दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी अपना स्थान बना सकती थी, वहाँ चीन की मंदारीन पढ़ाई जा रही है। जहाँ तक बदलाव की बात है, तो हमारा उद्देश्य हिन्दी और अपनी दूसरी भाषाओं और उनके साहित्य के प्रति लोगों में सम्मान और लगाव का भाव पैदा करना है। कविता और शायरी को लेकर यूट्यूब चैनल परियोजना के तीन साल बाद अब बड़ी संख्या में लोग सामने आ रहे हैं। यह शुरुआत है और अच्छे संकेत मिल रहे हैं।
जब आप इस परियोजना को अपने लिए कोई पिलिग्रिमेज कहे, तो इसके पीछे क्या  भाव होते हैं?
बिल्कुल, जब मैं विष्णु खरे से मिला था और उनकी बातें सुनी थीं। इससे मेरी सारी अकड़ समाप्त हो गयी थी। जिंदगी, मौत और दर्शन के बारे में इतना अच्छा सोचने वाले हिन्दी साहित्यकार को मैं पहली बार सुन रहा था। मैं हिन्दी और उर्दू के नाम पर बस कुछ नाम जानता था, लेकिन कुछ दिन तक विष्णु खरे के साथ रहा, तो समझ  में आया कि यह किसी धाम से कम नहीं और मुझे मेरी मंज़िल मिल गयी थी। यहीं से मैंने हिन्दी साहित्यकारों के बारे में पता करना शुरू किया। उनके साथ मिलकर काम करने में आनंद आने लगा।
आपने कहा है कि हिन्दी को माँ न बनाकर दोस्त या महबूबा बनाएँ। इसे लेकर लोगों से किसी प्रकार का विरोध नहीं झेलना नहीं पड़ा।
विरोध तो लोग हर बात पर करते हैं। हालाँकि इस बात पर नहीं हुआ। हम माँ को सम्मान तो देते हैं, लेकिन भाषा को उस सम्मान से कुछ और अधिक चाहिए। जिस तरह हम अपने दोस्त और महबूबा को लिए फिरते हैं, उसे जितना प्यार करते हैं, जिस तरह प्रेमिका की गोद में सिर रखकर आनंद पाते हैं, वही रिश्ता हमारा हिन्दी के साथ होना चाहिए। हिन्दी को उस हीरो या हिरोइन का दर्जा दिया जाना चाहिए, जिसकी तस्वीर हम जेब में लिये घूमते हैं।
हिन्दी में आपको डिजिटल क्रांति का प्रवर्तक माना जाता है। आप कैसा महसूस करते हैं?
मैं प्रवर्तक नहीं हूँ। मुझसे पहले दूरदर्शन ने काफी कुछ काम किया है। गालिब, मीर, पंत, प्रसाद सहित अन्य कवियों, शायरों की श्रृंखलाएँ दूरदर्शन ने चलायी हैं, लेकिन गुणवत्ता की कमी थी। उन कमियों को दूर करने का काम हमारे प्रॉजेक्ट में किया जा रहा है और लोगों की सराहना भी मिल रही है।
जब साहित्य की एडवर्टाइजिंग एजेंसी या कविता की मार्केटिंग जैसे शब्दों का उपयोग आप करते हैं, तो इसका क्या तात्पर्य होता है?
मैं कहता हूँ कि हम लोग साहित्यकार नहीं हैं, बल्कि साहित्य की मार्केटिंग कर रहे हैं। उसके विज्ञापनदाता हैं, जो सही भी है। हमें बस साहित्यकार और पाठक या श्रोता की बीच की दूरी को कम करना है। साहित्य के असली स्वाद को लोगों के सामने प्रस्तुत करना है। जिंदगी को खूबसूरत बनाने, असली जिंदगी जीने और जिंदगी को जानने का इससे अच्छा तरीका नहीं है। हम अंग्रेज़ी पढ़कर ज़िंदगी को उस तरह से नहीं समझ सकते, जिस तरह अपनी भाषा के साहित्य को पढ़कर समझ में आता है।
आपने कहा था कि जब आप हिन्दी प्रेम को लेकर कुछ लोगों के पास गये, तो उनकी आँखों में आँसू थे। इस बारे में कुछ बताइए?
हिन्दी कविता और उर्दू शायरी को लेकर मैं बहुत सारे प्रयोगों से गुज़रा, जिसमें अधिकतर मायूसी ही हाथ लगी। ऐसा करने से क्या होगा?, यह करके किसको क्या फायदा होगा? आदि सवाल थे, लेकिन जब आखिरकार काम शुरू हुआ और लोग इसे देखने लगे, तो उत्साल बढ़ने लगा। कई लोग थे, जिनकी आँखों में अपनी भाषा को उचित स्थान न मिलने का दु:ख था और लोग यह जानकर दु:खी थे कि हम सब बोलचाल की अंग्रेज़ी के साथ उधार के सपने लिए घूम रहे हैं। फिर एक-एक करके कई मशहूर अभिनेता और अभिनेत्रियाँ इस परियोजना से जुड़ने लगे। उन्हें हमारा काम पसंद आया। उन्हें लगा कि यह पैरालल सिनेमा के जैसा ही कुछ अलग काम है। जब भवानी प्रसाद मिश्र की कविता `सन्नाटा' सौरव शुक्ला ने पढ़ी, तो लगा कि यह कविता वही ऐसा पढ़ सकते थे, क्योंकि वे उस कविता के साथ रहे हैं, उन्होंने उस कविता को जिया है। मानव कौल, ज़ीशान अय्यूब, स्वरा भास्कर, पियुष मिश्रा, मनोज वाजपेई,  स्वानंद किरकिरे, रामगोपाल बजाज जैसे कई बड़े कलाकार इस परियोजना से जुड़े। अब तक 350 से अधिक वीडियो बनाए गये हैं। काम ज्ाारी है। अब सोशल मूवमेंट के रूप में कई राज्यों में `क से कविता' जैसी संस्था की शाखाएँ हैं। लोगों को अब हिन्दी कविता कूल लगने लगी है। मैं यही कूल भाव लोगों में पैदा करना चाहता था। मेरा उद्देश्य है कि लोग हिन्दी कविता और उर्दू शायरी को फैशन मानें, ताकि साहित्य उन्हें उनके जिंदगी जीने का सुख दे।
इस काम में किस तरह की चुनौतियाँ हैं?
हमारे परियोजना के सामने यूँ तो बहुत सारी चुनौतियाँ रहीं। जब हमने कविता और शायरी के वीडियो बनाने की सोची, तो देखा कि उससे पहले लोगों ने गुलज़ार और हरिवंश राय बच्चन को कविताएँ पढ़ते देखा था, लेकिन उन वीडियो में उतनी गुणवत्ता नहीं थी। जहाँ तक वीडियो की बात है, कविता दूसरों के लिए नहीं, अपने लिए पढ़ी जानी चाहिए। जब वीडियो बनने लगे, तो क्यों का सवाल सबसे बड़ी चुनौती थी। इस क्यों के जवाब में कई सारे शहरों की मैंने खाक छानी। हमें तलाश थी उन कविताओं की जो अपनी बात करती हों, अपने देश, संस्कृति, जिंदगी, गंगा, जमुना की बात करती हों। ऐसी कविताएँ नहीं, जो आयातित या अंग्रेजी से प्रभावित यूरोप और अमेरिकी प्रतीकों की बात करती हों। इन चुनौतियों के हल एक-एक करके सामने आ रहे हैं।
क्या आपको लगता है कि हिन्दी का पाठक वर्ग अंग्रेजी की तुलना में कम गंभीर है?
नहीं ऐसा नहीं है, समस्या दूसरी है। यहाँ लेखक, कवि, प्रकाशक और पाठक के बीच दूरियाँ बहुत हैं। 60 करोड़ लोग हैं, लेकिन किसी भी किताब की हज़ार-दो हज़ार से अधिक प्रतियाँ नहीं छपती हैं। किसी के एक हज़ार के तीन संस्करण छप जाते हैं, तो वह सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब हो गयी, जबकि अंग्रेज़ी की लाखों किताबें बिक जाती हैं। दरअसल लोगों को पता चले कि हिन्दी में अंग्रेज़ी से अच्छा साहित्य उपलब्ध है और वह पढ़ने में उनके अपने जीवन बात करता है, तो वे ज़रूर खरीदेंगे और इसके लिए माहौल बनाने का काम भी हो रहा है।


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