सिर्फ शौक से काम नहीं चलता जुनून चाहिए : प्रशांत लाहोटी

प्रशांत लाहोटी हैदराबाद में कला एवं संस्कृति के संरक्षक के रूप में जाने जाते हैं। वे कलाकृति आर्ट गैलरी के निदेशक हैं और कृष्णाकृति फाउंडेशन के तहत विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियों के आयोजन में सक्रिय रहते हैं। उनका जन्म हैदराबाद के कलाप्रेमी लाहोटी परिवार में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा हैदराबाद पब्लिक स्कूल में हुई। इंजीनियरिंग एवं एमबीए करने के बाद वे व्यापार में जुट गये। प्रशांत लाहोटी आईटी उत्पादों की कंपनी `एक्सेस 2 फ्यूचर' के सीईओ भी हैं। कंपनी कई विख्यात बरंड के उत्पादों का व्यापार करती है। उन्होंने 2002 में कलाकृति आर्ट गैलरी की स्थापना की। बंजारा हिल्स, रोड नं. 10 पर एक ऐसे दौर में उन्होंने कलाकृति आर्ट गैलरी की स्थापना की, जब हैदराबाद में बहुत कम आर्ट गैलरियाँ थीं। यह घाटे का सौदा समझा जाता था। 2004 में वे कृष्णाकृति महोत्सव के साथ सामने आये। गैलरी ने अब तक जहाँ देश-विदेश के सैकड़ों कलाकारों की कृतियाँ प्रदर्शित की हैं, वहीं महोत्सव के दौरान देश-विदेश के कई लब्ध प्रतिष्ठित कलाकारों को हैदराबाद बुलाकर शहर की सांस्कृतिक रौनक में चार चाँद लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी सेवाओं के लिए फ्रांस सरकार ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ फ्रेंच नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया। खास बात यह है कि इन गतिविधियों में उनकी धर्म पत्नी रेखा लाहोटी और पुत्र सुप्रिया लाहोटी ने खुद को इस तरह जोड़ा कि पूरा परिवार कला एवं संस्कृति संरक्षण की प्रतिमूर्ति बन गया। प्रशांत लाहोटी देश और दुनिया में प्रमुख नक्शा संग्राहक के रूप में भी पहचाने जाते हैं। उनके पास 3,000 से अधिक दुर्लभ नक्शे हैं।

सप्ताह के साक्षात्कार में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं...

पहली बार आपको कब लगा कि कला के संग्रहण एवं संरक्षण का काम करना चाहिए?
बचपन में हर किसी को कुछ न कुछ शौक रहता है। मुझे भी टिकट जमा करने का शौक था। जैसा अक्सर लोगों के साथ होता है, मेरे साथ भी हुआ। समय के साथ-साथ शौक धुंधला होता गया और मैं अपने बज़िनेस में व्यस्त हो गया। जब शौक पलटकर आया, तो इसका एहसास काफी मज़बूत था। फिर उसे छोड़ने का सवाल ही नहीं था। 

कलाकृति आर्ट गैलरी और फिर कृष्णाकृति महोत्सव को क्या इसी शौक का विस्तार समझा जाए?
दरअसल कलाकृति आर्ट गैलरी की शुरुआत 2002 में हो गयी थी। उन दिनों पिताजी जीवित थे। उन्हें भी कला एवं संस्कृति में काफी रुचि थी। वे शास्त्रीय संगीत बड़े शौक से सुनते थे। मैं इस क्षेत्र में कुछ करने की सोच रहा था कि उन्हीं दिनों पिताजी चल बसे। उनकी स्मृति में कुछ करने का विचार आया, तो सबसे पहले यही सोचा कि कला के क्षेत्र में युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की जाए और एक कार्यशाला का आयोजन किया जाए। उन दिनों एक संगीतकार मित्र से मेरी बात हुई। वे भी कलाकृति के कार्यक्रम में आने के लिए तैयार हो गये। इस तरह 2004 में कृष्णाकृति महोत्सव का पहली बार आयोजन हुआ। अब यह उत्सव राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी खास पहचान बना चुकी है। 

नक्शे जमा करने का शौक शुरू से ही रहा या फिर यह किसी से प्रेरित है?
ईडनबर्ग में एक बार ट्रेन के आने में देरी थी, जहाँ मैंने एक स्टोर देखा। स्टोर पर दुर्लभ नक्शे बेचे जा रहे थे। वहाँ से मैं नक्शे खरीद नहीं सका। वापस आकर मैंने भारत के 13 नक्शे खरीदे। इसके बाद से नक्शों के संग्रहण का सिलसिला शुरू हो गया। मुझे अपने संग्रहण को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 4 प्रदर्शनियों में प्रस्तुत करने का मौका मिला। कई बार नक्शे जिस हालत में मिलते हैं, उनका रख-रखाव काफी महत्वपूर्ण होता है और महँगा भी। कोलकाता का एक बड़ा-सा नक्शा मेरे हाथ लगा। जितने में मैंने उसे खरीदा था, उसके संरक्षण में उससे दस गुणा अधिक खर्च हो गया। मेरे संग्रहण में 1482 का एक नक्शा है, जो वास्को-डि-गामा के भारत आगमन से 16 साल पहले का है। कई नक्शे ऐसे हैं, जो ठीक से सर्वेक्षण के साथ नहीं किये गये। इसके बावजूद वे दुर्लभ हैं और उनका महत्व अधिक है। नक्शे केवल दुर्लभ चीज़ें ही नहीं हैं, बल्कि उससे हमें आवश्यक सूचनाएँ मिलती हैं और वे हमें अपने साथ पुराने जमाने में ले जाते हैं। कई सारे नक्शे बड़ी दिलचस्प जानाकरी देते हैं। भारत के कई पुराने नक्शे हैं, जिनमें शामिल कई शहर और ऐतिहासिक स्थल अभी हमारे देश का हिस्सा नहीं हैं।

 जब आपने इसकी शुरुआत की थी, तो हैदराबाद में इसका कोई खास माहौल नहीं था।
बिल्कुल यही कारण था कि दोस्तों ने मुझे इससे रोकने की कोशिश भी की, लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया, कुछ न कुछ सीखता गया। यह सीखने की प्रक्रिया मुझे कला के और करीब ले आयी। जब आप कुछ सीखने लगते हैं, जो आपके दिल के नज़दीक है, तो उससे मिलने वाली खुशी का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। 


क्या आप अपनी इन गतिविधियों को और विस्तार देने का इरादा रखते हैं?
जैसा कि आप देखते हैं कि हर साल कृष्णाकृति महोत्सव का विस्तार हो रहा है। यह बड़ा होता जा रहा है। फ्रांस और जर्मनी के सांस्कृतिक दूतावास भी इससे जुड़ गये हैं। इसके बावजूद इसका आयोजन कोई प्रोफेशनल टीम नहीं करती। मैं, परिवार और मित्र मिलकर कलाकारों और कलाप्रेमियों के सहयोग से आयोजन में जुट जाते हैं। देखा जाए, तो करने से पहले लगता है कि इतना बड़ा आयोजन कैसे होगा, लेकिन काम शुरू होता है, तो ऊर्जा और उत्साह में वृद्धि होती जाती है। ऐसा कई बार हुआ कि इस साल का उत्सव संपन्न हुआ और तभी से अगले साल के उत्सव की तैयारियों पर विचार शुरू हो जाता है।

क्या कभी ऐसा हुआ कि आपको कोई मनचाहा नक्शा हासिल करने में कामयाबी न मिली हो?
ऐसा कई बार होता है, बल्कि इससे उसे हासिल करने के प्रति दिलचस्पी बढ़ जाती है। अब भी मैं एक नक्शे की तलाश में हूँ। यह एक परिवार की वंश परंपरा का काफी पुराना नक्शा है। एक और घटना याद आ रही है। एक नक्शे की नीलामी की नोटिस आयी, लेकिन मैं उस समय आवेदन नहीं कर सका। जब पता चला कि वह नक्शा अपनी असली कीमत के आधे में बिका है, तो अफसोस हुआ, लेकिन मैं उसकी ताक में रहा। मुझे लगता है कि मन में जिसे पाने की इच्छा होती है, वह आपके पास जरूर आता है। लंबे अरसे के बाद इटली के एक व्यक्ति ने मुझसे संपर्क किया कि क्या मैं वह नक्शा खरीदने में दिलचस्पी रखता हूँ। मैंने उसके द्वारा खरीदी गयी कीमत से 20 गुणा अधिक कीमत में वह नक्शा खरीद लिया।

क्या बात है कि कला संग्रहण एवं संरक्षण के क्षेत्र में लोग आते तो बड़ी संख्या में हैं, लेकिन लंबे अर्से तक टिक नहीं पाते?
यह सही है। यहाँ केवल शौक से काम नहीं चलता। शौक के साथ-साथ जुनून भी चाहिए। हर चीज़ की सही जानकारी होनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि चीज़ों को परखना आना चाहिए। जहाँ तक कलाकृतियों के संग्रहण और प्रदर्शन की बात है, तो यह एक निरंतर प्रक्रिया है। कुछ लोग शौक पूरा करने के लिए आते हैं, लेकिन जब लगता है कि यहाँ उनके लिए घाटे का सौदा है, तो फिर रुख मोड़ लेते हैं। हैदराबाद में ऐसा बहुत हुआ। 2005-06 के दौरान अचानक गैलरियों की बाढ़-सी आ गयी। कई गैलरियाँ खुलीं, लेकिन स्थिरता न होने के कारण उन्हें बंद करना पड़ा। यह ऐसा शौक है, जो बिना जुनून के अधूरा है।

यह क्षेत्र कीमती लेन-देन से जुड़ा है। कई लोग कलाकृतियों की पहचान न कर पाने के कारण आर्थिक संकट का शिकार होते होंगे?
इस क्षेत्र में कला पारखी होना अनिवार्य है। जैसे सामान्य शिक्षा की एक प्रक्रिया होती है कि प्रथम कक्षा से शुरू करते हैं, उसी तरह कला की समझ के लिए शिक्षा की एक प्रक्रिया है। समझ न होने के कारण लोग सामान्य पेंटिंग महँगे दामों पर खरीद लेते हैं। सच समझ आने तक काफी रुपया खर्च हो चुका होता है। दरअसल जहाँ भी आप काम करते हैं, वहाँ आपको कलाप्रेमियों के बीच कला शिक्षा और समझ को बढ़ावा देना ज़रूरी है, ताकि कला से आपका रिश्ता स्थिर हो। इसमें सतत मेहनत और समय का इंतजार करना ज़रूरी है। यह जान लेना होगा कि एम.एफ. हुसैन अपने दौर में अकेले चित्रकार नहीं थे। उनके साथ सैकड़ों चित्रकार थे, लेकिन उन सब को लंबा संघर्ष करना पड़ा। हैदराबाद को ही ले लीजिए। आज लक्ष्मा गौड़ को कौन नहीं जानता, लेकिन यहाँ तक पहुँचने के लिए उन्हें कला के क्षेत्र में सतत प्रयासरत होना पड़ा।

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