अनोखी शख्सियत अनिल कुमार वाजपेयी से एक मुलाक़ात


अनिल कुमार वाजपेयी ए.के. वाजपेयी के नाम से मशहूर हैं। इन दिनों ए.के. वाजपेयी तेलंगाना पुलिस के विशेष स्टोर `सुविधा' के सचिव हैं। उनके द्वारा लकड़ी का पुल पर स्थापित सौर ऊर्जा यूनिट का उद्घाटन हाल ही में पुलिस महानिदेशक अनुराग शर्मा द्वारा किया गया। सौर ऊर्जा यूनिट अब सरकार को बिजली देने के योग्य बन गयी है। ए.के. वाजपेयी दूसरी पीढ़ी के पुलिस अधिकारी हैं। पिता पंडित धरनीधर प्रसाद पुलिस की विशेष शाखा में एसीपी थे। उनका जन्म 23 दिसंबर, 1949 में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा लिटिल फ्लॉवर में हुई। अग्रवाल मल्टीपर्पस स्कूल से 12वीं तथा सरदार पटेल कॉलेज से डिग्री की शिक्षा पूरी करने के बाद वे पुलिस में भर्ती हुए और सब-इंस्पेक्टर से नॉन कैडर एसपी तक का सफर तय किया। ए.के. वाजपेयी ऐसे पुलिस अधिकारियों के बैच से आते हैं, जिन्होंने पुलिस परीक्षा हिन्दी में लिखी। इंटेलिजेंस विभाग में प्रशासनिक कार्यों में उनके योगदान को सराहा जाता है। आम तौर पर सेवानिवृत्ति के बाद बहुत कम किसी का नाम सुनने को मिलता है। ए.के. वाजपेयी सुविधा स्टोर को नई उपलब्धियों की ओर ले जाने के प्रति निरंतर कार्य कर रहे हैं। उनका उद्देश्य इसे ऑनलाइन करना है। अगर यह योजना सफल हो जाती है, तो यह देश का अपनी तरह का पहला पुलिस स्टोर होगा। सप्ताह का साक्षात्कार स्तंभ के लिए उनसे हुई बातचीत के अंश इस प्रकार हैं -

अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए?
मेरा बचपन बहुत सीधा-सादा रहा। माता-पिता का इकलौता लड़का हूँ। मुझसे पहले जितने बालक पैदा हुए, सबकी मृत्यु हो गयी, इसलिए जब मेरा जन्म हुआ, तो यह सुझाव दिया गया कि मुझे किसी और परिवार को गोद दे दिया जाए। पड़ोस में यादव परिवार रहता था। बल्लू सिंह के परिवार में पहले से 11 बच्चे थे। जनेऊ संस्कार होने तक मुझे उसी परिवार  के बच्चों के साथ सिले कपड़े पहनने पड़ते थे। मैं बरह्मण परिवार का था, पिता पुलिस में थे, फिर भी मैं घर के कपड़े नहीं पहन सकता था। यादव परिवार की ओर से जो भी कपड़े बनवाए जाते, वही पहनता। मुझे याद है, जब बड़ी बहन की शादी थी, तब पिताजी के एक मित्र ए. धनराज ने मेरे लिए सरसिल्क का जोधपुरी सूट सिलवाया था। उसी सूट पर मैंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का स्वागत किया था। उस दिन पिताजी के सहयोगी अधिकारियों के साथ बैठकर मैं एयरपोर्ट पहुँचा था। पिताजी को यह पता नहीं था। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के स्वागत की बात आयी, तो बच्चा होने के नाते मेरे हाथों गुलदस्ता दिलाया गया। दूसरे दिन उर्दू `मिलाप' में मेरी तस्वीर प्रकाशित हुई। यह 1961 की बात है। उस समय तक लिटिल फ्लॉवर स्कूल में यूनिफार्म नहीं शुरू हुआ था। 1963 में जनेऊ के बाद पहला यूनिफॉर्म पिताजी ने सिलवाया था। उसके बाद मैं अपने घर में रहने लगा। 

क्या पहले से ही तय किया गया कि आप पुलिस में ही भर्ती होंगे?
नहीं, पिताजी मेरे पुलिस में जाने के खिलाफ थे। मैं एनसीसी में था। अग्रवाल स्कूल में रहते हुए बैंड टीम का लीडर रहा और 1973 में मैंने दिल्ली की गणतंत्र दिवस परेड में आंध्र-प्रदेश का नेतृत्व किया। पुलिस में जाने के बजाय मैंने दूसरी नौकरियों को प्राथमिकता दी। बी.के. खांडसरी की हैदराबाद बरंच में कुछ दिन तक अकाउंट देखे। मौलाअली में रिपब्लिक फोर्स में जूनियर असिस्टेंट के रूप में 2 साल काम किया। वहाँ मेरा मासिक वेतन 250 रुपये था। फिर प्रागा टूल्स में अकाउंटेंट नियुक्त हुआ और डेढ़ साल काम किया। 1978 में जब पुलिस में भर्तियाँ होने लगीं, तो मेरा भी चयन हुआ। हालाँकि पिताजी इसके खिलाफ थे। उन्होंने पुलिस में सम्मानजनक जीवन जिया था, लेकिन देख चुके थे कि रिश्वतखोरी और अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। वे चाहते थे कि मैं उनका नाम बदनाम न करूँ। इसलिए उन्होंने कहा कि यूनिफॉर्म में रहोगे तो बदनाम हो जाओगे। मेरे दादा पंडित लक्ष्मी नारायण निजाम के सर्फे खास (विशेष विभाग) में मुलाजिम थे। स्वतंत्रता आंदोलन में नौकरी छोड़ी और अपना घर बेचकर गांधीजी के चरखा आंदोलन में भाग लिया। धूलपेट के युवाओं में चरखे वितरित किये। जब वायसराय का हैदाराबाद आना हुआ, तो निजाम को डर था कि पंडित लक्ष्मी नारायण कुछ गड़बड़ करेंगे। उनके खिलाफ एहतियाती गिरफ्तारी का वारंट निकाला गया। उस पर अमल करने की जिम्मेदारी पिताजी को दी गयी। हैदराबाद के इतिहास में ऐसा भी हुआ कि बेटे ने अपने पिता को गिरफ्तार करने के आदेश पर अमलावरी करने में कोताही नहीं की। मेरे पुलिस में भर्ती होने के बाद पिताजी ने उच्च अधिकारियों से कहा था कि मुझे बिना यूनिफॉर्म की जिम्मेदारियाँ दी जाएँ। ट्रेनिंग के बाद कुछ दिन के लिए इबरहिमपट्टण में पोस्टिंग हुई। फिर इंटेलिजेंस में डेप्युटेशन पर भेज दिया गया। यहाँ मैंने सब-इंस्पेक्टर से डीएसपी (प्रशासनिक) के पद पर काम किया और सेवनिवृत्ति के बाद एसपी (नॉन-कैडर) की पदोन्नति दी गयी।

पिता के आदर्शों और अपनी प्रतिष्ठा के साथ पुलिस में काम करने में क्या कुछ दिक्कतें आयीं?
नहीं। इंटेलिजेंस में सामान्य पुलिसिंग से अलग काम होता है। वहाँ रिपोर्टिंग करनी होती है, जिसकी जिम्मेदारी दी जाती है। जो सुनते, वही लिखा जाता है। बाहर से आए मेहमान नेताओं की सुरक्षा का कार्यभार भी मुझे दिया जाता था। मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.जी. रामचंद्रन व कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्लाह के सुरक्षा अधिकारी की जिम्मेदारी संभाली। फारूक अब्दुल्लाह जब दौरा समाप्त कर वापस जाने लगे, तो उन्होंने मेरी जेब में 50 रुपये का एक नोट रख दिया। हम मेहमान की दी हुई चीजों से इनकार नहीं कर सकते थे। उनके जाने के बाद जब मैंने अपनी रिपोर्ट विभाग में दाखिल की, तो 50 रुपये के नोट का उल्लेख करते हुए उसे ट्रेज़री के हवाले कर दिया। बाद में वही 50 रुपये मुझे रिवॉर्ड के तौर पर दिये गये। तब से विभाग में नया चलन शुरू हुआ कि यदि कोई अतिथि सुरक्षा अधिकारी को कुछ नकद पुरस्कार देते हैं, तो वह रुपये विभाग द्वारा संबंधित अधिकारी को रिवॉर्ड के रूप में वापस दिये जाएँगे। 

आपने पुलिस अधिकारियों के बीच सांस्कृतिक गतिविधियों को भी प्रोत्साहित किया। यह सिलसिला कब शुरू हुआ?
मुझे जब इंटेलिजेंस पुलिस अधिकारी संघ का अध्यक्ष बनाया गया। दरअसल विभाग में 1987 से ही मुझे प्रशासनिक जिम्मेदारी दी गयी, तभी से मेरा काम था कि जूनियर और सीनियर अधिकारियों के बीच एक प्लेटफॉर्म तैयार करूँ। गणतंत्र दिवस कार्यक्रम के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था। अधिकारी संघ की ओर से हमने पहल करते हुए न केवल पुलिस अधिकारियों के बच्चों, बल्कि अधिकारियों के लिए भी विभिन्न प्रकार के खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने शुरू किए और सिलसिला चल निकला। 

आप स्पेशल बरंच और इंटेलिजेंस पुलिस में क्या परिवर्तन महसूस करते हैं?
परिवर्तन तो आते रहते हैं। मूल्यों का क्षय होना अच्छा नहीं है। दिन-प्रतिदिन पेशे के मूल्य कम होते जा रहे हैं। मुझे याद है, पहले इंटेलिजेंस पुलिस अधिकारियों को लोग कम जानते थे। अधिकारी अपना परिचय भी नहीं देते थे। बाद में कुछ लोगों की नासमझी के कारण इंटेलिजेंस अधिकारियों की पहचान को गुप्त रखने की परंपरा कम होने लगी। अब तो अधिकारी खुद बताते हैं कि वे इंटेलिजेंस विभाग में कार्यरत हैं। टेक्नोलॉजी का तो बहुत विकास हुआ, लेकिन चरित्र का कमज़ोर होना टेक्नोलॉजी के प्रभाव को कम करता है।  

`सुविधा' से कैसे जुड़ना हुआ?
पुलिस अधिकारियों की को-ऑपरेटिव सोसाइटी की ओर से जब `सुविधा' की शुरुआत की गयी, तब को-ऑपरेटिव्स सोसाइटीज से एक प्रबंधक साबेर अली को यहाँ नियुक्त किया गया। उन्हीं के कहने पर मैं इसकी समिति के चुनाव में खड़ा हो गया और सचिव चुना गया। 1998 से लेकर अब तक इसी पद पर काम कर रहा हूँ। पहले यह डीजीपी मुख्यालय के भीतर कार्यरत था, जहाँ सुरक्षा के चलते बड़ी संख्या में पुलिस परिवार के लोग सामान खरीदने नहीं आ सकते थे। इसलिए बाद में इसे मुख्यालय के बाहर स्थानांतरित कर दिया गया। तत्कालिन पुलिस महानिदेशक एच.जे. दोरा ने यह जगह आवंटित की। `सुविधा' ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। एक समय इसकी मासिक आमदनी 30 हज़ार के आस-पास थी। बाद में इसकी हालत और खस्ता हो गयी और आमदनी 10 हज़ार भी नहीं रह गयी। जब इसे नयी जगह स्थानांतरित किया गया, तो इसकी आमदनी बढ़ने लगी, लोग दूर-दूर से आकर सामान खरीदने लगे। अब तो पुलिस विभाग भी अपना सामान 90 प्रतिशत अग्रिम राशि देकर खरीदता है। `सुविधा' की ओर से हर साल 16 लाख रुपये पुलिस कल्याण निधि में दिये जाते हैं। 

सौर ऊर्जा की इस नयी यूनिट से किस तरह का लाभ हो रहा है?
यह 35 किलोवॉट की यूनिट है। दिन के समय यह हमारी जरूरतों को पूरा करने के अलावा अतिरिक्त बिजली पैदा करती है। अतिरिक्त बिजली ऊर्जा विभाग को दी जाती है। व्यस्त समय में यही बिजली हमारे काम आती है। इसकी स्थापना से हम बिजली का बिल भरने से बच रहे हैं। 

भविष्य में `सुविधा' को लेकर क्या योजनाएँ हैं?
`सुविधा' की कुछ और शाखाएँ खोलने की योजना है, इसके लिए प्रस्ताव भी आए हैं। दूसरी ऑनलाइन सामान की बिक्री की योजना है। इस पर काम चल रहा है। सुविधा मेरा ब्रेन चाइल्ड है। मेरी ख्वाहिश है कि यह पौधा फले-फूले और इससे लोगों को फायदा हो।
युवा पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगे?
मेहनत ही सफलता की कुंजी है। अपने से जितनी मेहनत हो सकती है, करें। फल की चिंता छोड़ दें। अपने आपको हासिल करना ही सबसे बड़ी कामयाबी होती है।

Comments

  1. Its wonderful experience to have a discussion with Saleem. People asked me that you have missed many a things in turn my reply was what ever Mr Saleem asked me i gave reply.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

बीता नहीं था कल

सोंधी मिट्टी को महकाते 'बिखरे फूल'

कहानी फिर कहानी है