.. उनका भी रोना रो लें
(गुज़रे
साल 2018 की डायरी से...)
एक मित्र ने अपने एक नये रिश्तेदार
की तारीफ करते हुए बताया कि हाल ही में जब उनकी नई बहू की परीक्षाएँ हुईं तो उन्होंने(श्वसुर
ने) अपने काम से छुट्टी ली और बहू को छोड़ने के लिए परीक्षा केंद्र तक गये। इतना
ही नहीं वे उसकी सारी परीक्षाओं के दिन परीक्षा केंद्र के बाहर डटे रहे। वे दर्शाना
चाहते थे कि उनके लिए बहू बेटी से कम नहीं है। हालाँकि मैंने यह पता करने की कोशिश
नहीं की कि क्या वे अपनी बेटी की परीक्षाओं में भी इतने समर्पित रूप से परीक्षा केंद्र
पर डटे रहे थे या फिर परीक्षा केंद्र पर छोड़ते हुए अपने काम पर निकल गये थे। यह भी
नहीं पूछा कि इन परीक्षाओं के दौरान उनके पुत्र महोदय अर्थात परीक्षार्थी के धर्म पति
भी ऐसा कर सकते थे, क्यों नहीं किया। खैर, उनकी
इस सहयोग धर्मिता को सलाम।
सिक्के का एक और पहलू भी था।
मुझे अपनी एक छात्रा याद आयी। वह अपने खानदान की पहली पोस्टग्रैज्वेट बनने जा रही थी।
बड़े ही श्रम से खुद काम करते हुए वह अपने कॉलेज की ट्युशन फी और परीक्षा शुल्क का
प्रबंध करती। उसके दिमाग़ में एक लक्ष्य था कि वह कम से कम पोस्टग्रैज्वेशन की शिक्षा
पूरी कर लें। उसे कभी कॉलेज या परीक्षा केंद्र पर कोई छोड़ने नहीं आया और न केंद्र
के बाहर किसी को उसका इंतेज़ार रहता था, लेकिन
निम्नमध्यवर्गीय परिवारों की अपनी अलग समस्या होती है। उसके पढ़ने लिखने से ज्यादा
उसे घर से विदा करने की सोच। अंतिम वर्ष की परीक्षाओं से पहले ही उसका विवाह हो गया।
प्रैक्टिकल्स के दौरान मैंने एक व्यक्ति को कक्षा से बाहर की बैंच पर बैठा पाया। मैंने
उस छात्रा से पूछा तो उसने बताया कि वे उसके श्वसुर हैं। उसकी आँखों में आँसू थे, अपनी
आज़ादी के छिन जाने के। वहाँ उसने वह भरोसा नहीं पाया, जो
उसके माता पिता ने उस पर किया था। समय का इंतेज़ार करने और हालात का मुक़ाबला करने
का सुझाव देने के अलावा अपनी उस छात्रा के लिए मेरे पास कोई सांत्वना नहीं थी।
इस बात पर सोचते हुए सुदर्शन
फ़ाक़िर याद आये। जगजीत और चित्रा की आवाज़ में उनकी एक ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई थी। इश्क
में ग़ैरते जज़्बात ने रोने न दिया.... इसी गज़ल का शेर है-
रोनेवालों से कहो उनका भी रोना
रो लें
जिनको मजबूरी-ए-हालात ने रोने
न दिया
हमारे आस पास की दुनिया में
ऐसे कई लोग हैं, जिनका
रोना हमें नहीं दिखता। क्योंकि न उनके होंट कंपकंपाते हैं और ना ही आँसू छलकते हैं,
रोना बस इस बात का कि उनपर भरोसा किया जाए।
बहुत ही संवेदनशील लेख है सर
ReplyDeleteधन्यवाद
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