कोई ओढ़ के सोता है थकन, कोई उतार कर आराम फरमता है

देखना मेरी ऐनक से



हाल ही में एक रिपोर्ट पढ़ी थी कि दुनिया में थकान बढ़ती जा रही है। लोगों को आगे बढ़ना है, बड़ा बनना है, इतना बड़ा कि उनके आस-पास कोई उनकी बराबरी का न रहे। इतने बड़े होने के बाद पता नहीं फिर वो किस के साथ हँस बोल लेंगे। ख़ैर!आगे बढ़ने के लिए लोग जी तोड़, बल्कि जिस्मतोड़ कर ख़ूब काम कर रहे हैं। दिन रात का फर्क भी उनके लिए कोई मायने नहीं रहा है। काम के साथ उनकी थकान बढ़ती जा रही है। कभी-कभी इस थकान से उन्हें नींद भी नहीं आ रही, जिसके चलते उन्हें गोलियाँ खानी पड़ रही हैं। याद आया कि कॉलेज के दिनों में एक शेर सुना था।-

फुटपाथ पे सो जाते हैं अख़बार बिछाकर 
मज़दूर कभी नींद की गोली नही खाते

बात मज़दूरों की थी। वो तो सो जाते होंगे। जब थकन बढ़ जाती होगी अख़बार बिछाकर तो सोते होंगे या फिर काम की थकान में यह भी भूल जाते होंगे कि कुछ बिछा है या नहीं। डाक्टरों की मानें तो थकान बहुत काम करने के कारण होती है या फिर किसी बीमारी के कारण। तनाव बढ़ना और शारीरिक ऊर्जा कम होना भी डाक्टर की निगाह में थकान के कारण हो सकते हैं।  
'थकान' शायरों के लिए भी बड़ा दिलचस्प विषय रहा है। शायरों को लगा होगा कि यह शब्द थोड़ा-सा भारी है। इसे हलका करने लिए उन्होंने इसमें से '' की एक मात्रा को कम करके 'थकन' बना दिया। शायर जो हैं, वो तो ग़मों के बोझ से भी थक जाते हैं और यही थकन उनकी शायरी में नयी ऊर्जा पैदा करती है। ग़मों का बोझ, उदास आँखें, मील का पत्थर, थके हुए सूरज का समंदर के उस पार जाकर सो जाना, जैसी बहुत सारी कल्पनाएँ उन्होंने की हैं।
मज़दूर जब थक जाता है तो थकाना ओढ़कर सो जाता है। कभी-कभी वो इसकी शिद्दत को कम करने के लिए दो घूंट नशे का भी सहारा लेता है। उसे सोने के लिए आरामदायक बिस्तर की तलाश भी नहीं होती। खुरदरे फर्श पर भी उसे मज़े की नींद आ जाती है। दूसरी ओर आराम के साधनों के साथ जीने वाले व्यक्ति के लिए थकान ओढ़ने की नहीं बल्कि उतारने की चीज़ होती है। वह नशा भी थकन की शिद्दत को दबाने के लिए नहीं, बल्कि उतारने के लिए करता है। काम से घऱ पहुँचते ही वह थकान को टांगने की फिराक में रहता है। उसे टुकड़ों में बांट कर कम करता है। थकान का कुछ हिस्सा कपड़ों में बंधकर खूंटी पर टंग जाता है तो कुछ हिस्सा बाथरूम में बह जाता है। घर में कपड़े बदलकर वह कुछ हल्का महसूस करता है। बची कुची थकान वह बिस्तर के हवाले कर देता है। पता नहीं बिस्तर का बदन रोज़-रोज़ आदमी की थकान के बोझ को उठाते हुए कितना टूटता होगा। कुछ पढ़े लिखे लोग अपनी थकान को डायरी में रखकर बंद कर देते हैं। जो कभी कोई दूसरा पढ़ ले तो उसके सिर पर सवार हो जाती है।

समय के साथ भाषा ही नहीं, व्यवहार भी बदलते हैं, बल्कि संस्कृति और विचार भी। कभी जब मर्दों ने अपना समाज बना रखा था, तो समझा जाता था कि मर्द जब थक हार कर घर पहुँचेगा, तो एस एक सुंदर सी नार का चेहरा और उसकी आँखों में मुहब्बत, होंटों पर मुस्कुराहट देखकर दुनिया के ग़म भूल जाएगा, उसकी ज़ुल्फों के पेचो-ख़म में अपनी सारी थकन भूल जाएगा। ऐसा विचार रखने वाले उस समाज ने औरत के बारे में शायद सोचा ही नहीं होगा कि जब वह काम पर जाएगी तो लौटकर घर आने के बाद उसकी थकन को कम करने का क्या सामान होगा। आजकी श्रमजीवी महिला के लिए भी समाज को ऐसा कोई विचार बनाना होगा।

ज़िंदगी के इस सफर में जब तक पाँव रुकते नहीं, ज़हन ठहरता नहीं, चाहे जितनी सख़्तियाँ आएँ, थकान का एहसास अधिक नहीं होता, लेकिन जैसे ही कहीं रुकना होता है तो हाथ, पाँव ही नहीं, आँखें और लब भी थके होने का एहसास दिलाते हैं।

(हिंदी मिलाप के मज़ा में प्रकाशित कॉलम की क्लिप)

Comments

  1. बहुत ही साफगोई के साथ लेखक ने आज के समय की सच्चाई बयान की है।

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  2. रहने दे आसमां अपनी जमीन की तलाश कर
    गमों के ढेर में थोड़ी खुशी की तलाश कर
    क्यों भाग रहा है शमशान ही तो जान है
    कुछ चैन हो जिसमें उस जिंदगी की तलाश कर

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    1. सुषमा जी,अग्रवाल साहब शुक्रिया

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  3. जिंदगी की सच्चाईयों को बयान करता हुआ आलेख। सलीम साहब को ढेरों बधाइयां।

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    1. नाज़ साहब हौसला अफ़ज़ाई का शुक्रिया

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