बदल गये हैं व्यत्तित्व विकास के अर्थ - श्रुति मशरू

पारंपारिक परिवार में पली-बढ़ी लड़की के लिए अपनी दुनिया बनाना, बसाना और उसमें खुद को खड़े कर संभावनाओं की दुनिया के उस पार झाँकना आसान काम नहीं होता। वह भी आज से लगभग दो दशक पूर्व। सारे किन्तु-परंतु को पार करते हुए अपनी इच्छाओं के अनुरूप श्रुति मशरू ने न केवल घर की चारदीवारी से बाहर क़दम रखा, बल्कि अपने शौक़ को पहचाना, क्षमताओं को आँका और नयी दुनिया बसाने में जुट गयीं। आज वह शहर की जानी-मानी कॉर्पोरेट ट्रेनर्स में अपना स्थान रखती हैं। व्यत्तित्व विकास प्रशिक्षण के क्षेत्र में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ उनकी सेवाएँ परप्त करती हैं। श्रुति मशरू का जन्म जीरा, सिकंदराबाद के एक पारंपारिक गुजराती परिवार में हुआ। पिता का संबंध इलेक्ट्रॉनिक व्यापार से है। श्रुति ने बी.कॉम. की शिक्षा पूरी करने के बाद एयरटिकटिंग का कोर्स किया और ट्रैवेल एजेंसी से जुड गयीं। कुछ वर्ष बाद वह बीपीओ की दुनिया में आयीं। इसके बाद प्रबंधक स्तर की नौकरी छोड़कर व्यत्तित्व विकास के क्षेत्र में अपने कौशल को आज़माया और इसमें सफल रहीं। इस बीच उन्होंने मानव संसाधन के क्षेत्र में प्रबंधन की डिग्री भी परप्त की। आज श्रुति मशरू प्रशिक्षण प्रबंधन कंपनी एलडिन की निदेशक हैं। श्रुति मशरू की अपनी टीम है। 30 हज़ार से अधिक प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षित करने का रिकॉर्ड उनके नाम है। सप्ताह के साक्षात्कार के अंतर्गत उनसे बहुत से विषयों पर चर्चा हुई। इस दौरान उन्होंने गुरु और ट्रेनी के अंतर को भी रेखांकित किया। उनसे हुई बातचीत के अंश इस प्रकार हैं ः
यहाँ तक पहुँचना कितना आसान और कितना मुश्किल रहा?

आसान तो बस इतना कि मैं कुछ करना चाहती थी। मुश्किलों का सिलसिला इसमें बाधक हो सकता था। क़दम कुछ देर के लिए थम भी गये, लेकिन मुश्किलें उन इरादों को रोक नहीं पायीं। मेरे परिवार में बेटियाँ घर से बाहर जाकर काम करे, ऐसी पंरपरा नहीं थी। यह बात 25 साल पहले की है। लड़कियों के लिए समझा जाता था कि आगे जाकर तो उन्हें रोटी ही बनानी है, तो पढ़ने की क्या ज़रूरत है। रोटी के राउण्ड के लिए कंपास बॉक्स की थोड़े ही ज़रूरत पड़ती है। मैंने 1995 में एयरटिकटिंग का एक कोर्स किया। मैं परइवेट कंपनी में नौकरी करना चाहती थी, लेकिन इसकी इजाजत तभी मिल सकती थी, जब पिता के कारोबार में कुछ दिन बिताऊँ। पिताजी के शोरूम पर गयी, तो मुझे पहले दिन उन्होंने झाड़è लगाने के लिए कहा। मैंने अपने घर में भी यह काम कभी नहीं किया था। पिताजी ने कहा कि जो व्यत्ति अपनी दुकान में झाड़è नहीं लगा सकता, वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता। मैंने कुछ ही दिन में शोरूम के कामकाज को अच्छी तरह समझ लिया और पिताजी की अनुपस्थिति में कई काम संभाले। कुछ लोगों ने पिताजी को कहा भी कि यह छोटी लड़की अच्छा काम करने लगी है। इसके बाद पिताजी ने मुझे बाहर काम करने की अनुमति दी।
जब आपने पिता के शोरूम का काम समझ ही लिया था, तो फिर अलग से नौकरी क्यों?
मुझे पारंपारिक व्यापार में अधिक दिलचस्पी नहीं थी। मैंने ट्रैवेल इंडस्ट्री में एक कर्मचारी के रूप में शुरुआत की। जमकर मेहनत की और सुपरवाइज़र स्तर तक पहुँच गयी। कुछ कंपनियाँ भी बदलीं। कुछ बरस बाद मैंने देखा कि यह उद्योग सिमटने लगा है। एयर दक्कन शुरू हो गया था। ऑनलाइन टिकटिंग शुरू हो गयी थी। सारे बड़े एयरलाइनों ने अपने कॉल सेंटर स्थापित कर दिये थे। मुझे लगा कि इस उद्योग का चार्म कम होने लगा है। मैं बेंगलुरू में भी रही। यह 2005 के आस-पास की बात है। फिर मैंने बीपीओ में कदम रखा। यह पूरी तरह अलग दुनिया थी। बाहर हम भारतीय माहौल में रहते थे और बीपीओ में अमेरिकी कल्चर, वहाँ की कार्यशैली और चुनौतियाँ। यहाँ काम करते हुए मैं तेज़ी से आगे बढ़ी। मैंने यहाँ ट्रेनिंग वाली संस्कृति को भी देखा। इस दौरान अपने आपको समझने का भी मौका मिला। कुछ साल बाद हालात कुछ ऐसे बने कि मैं बेंगलुरू छोड़कर हैदराबाद चली आयी।
क्या यहीं पर आपने सोचा कि अपना कोई व्यवसाय शुरू किया जाए?
तत्काल ऐसा नहीं हुआ। उन दिनों मैं जिंदगी के ऐसे दौर से गुज़र रही थी, जहाँ अपने आपमें बिखराव का एहसास होने लगा था। हालाँकि मैंने यहाँ एक और नौकरी शुरू की थी, लेकिन आत्मसंतोष नहीं था। उन्हीं दिनों मैंने एक ट्रेनर के सेशन में भाग लिया। डॉ. स्नेह देसाई को सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मुझमें अपने भीतर के कौशल का विकास करना होगा। हालाँकि बीपीओ में काम करते हुए मैंने महसूस किया था कि लोगों से अच्छा रैपो बनाने के कौशल के कारण मैं प्रबंधक स्तर तक पहुँची हूँ। जो मुझमें परकृतिक रूप से मौजूद था, वह यहाँ प्रशिक्षण देकर सिखाया जाता था। मैंने सोचा कि इस सीखने-सिखाने वाले उद्योग में अच्छे अवसर हो सकते हैं। नयी दिशाओं को देखते हुए मैंने नौकरी छोड़ दी और कुछ सीखने का मन बनाया। मैंने पाया कि सॉफ्ट स्किल्स मेरी सबसे बड़ी ताकत हो सकती हैं। डॉ. स्नेह देसाई के सुझाव पर मैंने अपना नया कैरियर बनाने लिए एडवांस कोर्स किया। परेफेशनल ट्रेनर बनने के लिए अमेरिकन टेसॉल और ब्रिटिश काउंसिल से भी सार्टिफिकेशन किये। इसके अलावा कुछ स्पि्रच्वल कोर्सेस भी किये। इस दौरान मुझे एहसास हुआ कि काफी सारी चीज़ें टूटी-फूटी, बिखरी हुई हैं, मुझे उन्हें जोड़ना है। यहीं पर जिंदगी का नया उद्देश्य मिला।
जब आपने अपनी कंपनी शुरू की, तो आपके सामने किस तरह की चुनौतियाँ थीं?
सबसे बड़ा चैलेंज तो यह था कि मैं लड़की थी। अपनी उम्र से कुछ छोटी दिखती थी। बालों में कोई तजुर्बा नहीं दिख रहा था। मैं बज़िनेस सूट पहनती थी, तो लोगों ने कहा कि यह पहनावा इंडिया में नहीं चलेगा। लोगों को कॉटन साड़ी, धूसर केश, चश्मा पहने हुए ट्रेनर की आदत है। कुछ ने कहा कि लोग आपसे सीखने नहीं आएँगे, क्योंकि लोग उनके पास सीखने आते हैं, जो अपने से कुछ अधिक मेच्योर दिखते हैं। मेरी ज़िद थी कि मैं अपने आपको बदलकर अपना काम नहीं करूँगी। जितना लोग नकारात्मक बोलते, मुझमें उतना ही अधिक जोश आता कि कुछ करके दिखाना है। यह आदत मुझमें शायद शुरू से थी। पिताजी बोलते थे कि बाहर काम नहीं करना है, तो ज़िद होती कि मुझे तो करना ही है। यहाँ भी उसी तरह की चुनौतियाँ थीं। मैं पहले से बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जुड़ी हुई थी, इसलिए वहाँ से बज़िनेस पाना आसान हो गया। एक समय ऐसा भी आया कि अपनी टीम भी बढ़ाई और मानक भी।
अपनी ज़िंदगी के कौनसे तजुर्बे थे, जो कौशल के साथ काम आये?
ज़िंदगी में संभलना हो या संवरना, एक अच्छे और सच्चे दोस्त की ज़रूरत आपको होती है। ट्रेनर को ऐसा ही दोस्त बनना होगा। समर्पण के उच्च मानक तय करने होते हैं। चाहे कितनी ही रात क्यों न हो, अपना आज का काम समाप्त करके ही सोना है। बड़ी संख्या में सीए के विद्यार्थियों ने मेरी कक्षाओं में भाग लिया है। इसमें जितना सम्मान मुझे मिला है, उससे मैं अभिभूत हूँ।
आपने बहुत खूब कहा कि प्रशिक्षण परप्त करने वालों से आपने सम्मान पाया है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में अर्थ की बढ़ती महत्ता के कारण पेशे का सम्मान और नैतिक मूल्यों का स्तर घटने की शिकायत समाज को है। आपका क्या विचार है?

पहले शिक्षक के लिए जो सम्मान था, उसमें कमी तो आयी है। इसका कारण है समाज का स्टूडेंट सेंट्रिक (छात्र केंद्रित) होना। शिक्षा उद्योग बदल गया है। पहले भारत में विद्यार्थी गुरु के पास जाते थे, चाहे वे राजकुमार ही क्यों न हों। वहाँ कभी किसी बाप ने यह नहीं कहा कि मेरा बेटा तो राजकुमार है, उसके साथ आपने ऐसा क्यों किया। आज बच्चों के लिए कंफर्ट और वातानुकूलित कमरों पर बात हो रही है। अब जो दूसरी व्यवस्था ट्रेनर के रूप में सामने आयी है, वह अलग है। यहाँ ट्रेनर दिये नहीं जाते, बल्कि इच्छुक व्यत्ति उनको अपने लिए चुनता है। अच्छे ट्रेनर की खोज की जाती है। जब आप ट्रेनिंग के लिए तैयार हैं, तब आप ट्रेनर तलाश करने निकल पड़ते हैं। जब आप जिंदगी में कहीं रुक जाते हैं, तब आपको कोई ऐसा चाहिए, जो नयी ज़िंदगी का ताला खोले। यहाँ केवल समस्या का समाधान नहीं, बल्कि व्यापार और उद्योग में एक गंतव्य स्थल के बाद नये गंतव्य स्थल की ओर चलने के लिए पूरी टीम को प्रशिक्षण देकर तैयार किया जाता है। कंपनी के लक्ष्य को कर्मचारियों का लक्ष्य बनाने में ट्रेनर की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जहाँ तक सम्मान की बात है, इसका अर्थ हरेक के लिए अलग है। कोई इसे धन के रूप में देखता है, तो कोई पावर में  और कोई ऐशो-आराम के दिखावे में, लेकन मेरा मानना है कि लोग किसी का भी सम्मान दिल से करें।
पर्सनालिटी डेवलपमेंट का जो पौधा आज से तीस-चालीस साल पहले आम जनजीवन में उगा था, वह भारत में कितना बड़ा हो गया है?
अब यह इतना बड़ा हो गया है कि इसकी अपनी शाखाएँ हो गयी हैं। 20 साल पहले इसका अर्थ था। उस समय अगर कोई शार्मिली लड़की होती थी, तो उसके लिए पर्सनालिटी डेवलपमेंट की क्लास का सुझाव दिया जाता था, ताकि वह थोड़ी बोल्ड दिखे। साड़ी पहनना, खाना पकाना जान सके। बोलना, नृत्य करना, मेहमाननवाज़ी करना, अपने आपको बेहतर बनाना उन्हें सिखाया जाता था, लेकिन आज यह सब दिखावा ही समझा जाता है। आज व्यत्तित्व विकास का अर्थ बदल गया है। आज अपने भीतर के कौशल को खोजना, उसे उजागर करना, संवारना, निखारना, विकसित करना है। जो अंदर से तनावग्रस्त होते हैं, बिखर जाते हैं, उन्हें वापस जोड़ने का काम पर्सनालिटी डेवलपमेंट में किया जाता है। पहले इसे इंटेलिजेंस कोशंट (आई क्यू-बुद्धिलब्धिता) तक ही सीमित समझा जाता था, लेकिन आज इसका ई क्यू (भावनात्मक बुद्धि) और एस क्यू (आध्यात्मिक बुद्धि) तक विस्तार हो गया है। अगर इन तीनों में से एक भी नहीं है, तो समझिए कि उस व्यत्तित्व में खामी है।
देखा यह गया है कि कई लोग ग़लती से किसी ऐसे पेशे या नौकरी में आते हैं, जहाँ अर्थ की ज़रूरतें तो पूरी होती हैं, लेकिन आत्मसंतोष नहीं मिलता। उन्हें आप क्या सुझाव देती हैं?
अर्थ भी एक संतोष का कारण है। यदि इसके अलावा उसके जीवन में कोई और संतोषजनक ज़रिया नहीं है, तो उसे जीवन में कोई न कोई ऐसा शौक पालना चाहिए, जिससे उन्हें अपने काम के लिए उत्साह और ऊर्जा मिले। आप्ाकी समस्याओं को सुलझाने के लिए लोग नहीं आएँगे, बल्कि आपको खुद उन्हें सुलझाने के लिए अच्छे दोस्त या ट्रेनी की तलाश करनी पड़ेगी। हम एक कार्यक्रम चलाते हैं `अवेकनिंग ऑफ इन्फाइनाइट'। हर व्यत्ति के पास अलादीन की तरह एक जिन होता है, लेकिन हमें उससे माँगने का तरीका आना चाहिए। तभी हमें जो चाहिए वह मिल सकता है। मेहनत को भी एक अच्छी रणनीति की आवश्यकता होती है। कई बार प्रशिक्षण के दौरान हम देखते हैं कि कोई व्यत्ति जिस काम के लिए रखा गया है, वह उसके लिए कुशल नहीं है, तो उसका कार्य क्षेत्र बदलने का सुझाव कंपनी को दिया जाता है।
ट्रेनर के रूप में अपना भविष्य बनाने वालों को आप क्या टिप्स देना चाहेंगी?
सबसे पहले तो यह कि सीमित विकल्पों के साथ काम न करें। लड़कियों के लिए कहना चाहूँगी कि वे सीमाओं से परे अपने कौशल को आज़माएँ। सीमा चाहे समय की हो या परंपराओं की। `शो मस्ट गो ऑन' की तर्ज पर काम करना पड़ेगा। यह समझ लेना चाहिए कि सबसे बड़ी खुशी देकर मिलती है। आपको लोगों की जिंदगी बदलनी है, उसके लिए अपने को बदलना पड़ेगा।


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