मन की बात




कला का जन्म कल्पनाशीलता के धरातल पर ज़रूर होता है, लेकिन वह कोरी कल्पना नहीं होती। उसमें अनुभवों का आधार बड़ा मज़बूत होता है। कला या कलाकार कभी आदर्श प्रस्तुत करने का दावा नहीं करता। चाहे वह नृत्य हो संगीत, चित्र हें मूरतें गढ़ी जाएँ अभिनय हो या फिर  किसी और तरह की कला, वहाँ किताबीपन का बहुत अधिक प्रभाव नहीं होता, बल्कि किताबी बातें भी वास्तविकता के तराज़ू में तुलने लगती हैं। ठीक है कि उसके ख़्याल काफी दूर तक दौड़ लगाते हैं, लेकिन उन ख़्यालों के पाँव बेनिशाँ वापिस नहीं लौटते। यही वज्ह है कि कालाकार की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। उसे केवल ख्यालों की पगडंड़ियों पर चलते हुए इस बात क़ा ख़्याल ज़रूर रखना होता है कि वहाँ से ख़ाली हाथ न लौटे।
वह मन की बात को अभिव्यक्त करता है,  लेकिन उसकी बातों को मनगढ़त नहीं कहा जा सकता। उसके उस गढ़ने में ही कला छुपी हुई होती है। दूसरों के मन तक पहुँचने का फन उसके उस गढ़ने में रहेगा तभी वह कलाकार कहलाएगा। दर असल दूसरे के मन तक पहुँचने के लिए यह ज़रूरी है जगबीती और आप बीती में एक सामंजस्य बना रहे। तभी कलात्मक संप्रेषण बोल, भाषा और रंग तक सीमित न होकर वह श्रोता और दर्शक भीतर घुल जाता है। वह उसे अपना लगने लगता है।
कला और कलात्मक रूची के बारे में चाहे जितनी बातें की जाएँ उनमें सबसे प्रमुख मुद्दा यही चाहे जो विधा अपनायी जाए, उसमें अपनी बात करने का ढंग हो। वह ढंग जो उसकी अपनी पहचान भी हो और देखने वाले की नज़र और सुनने वाले के श्रव्य के आकर्षण को छूने की शक्ति भी। निश्चित रूप से यह एक दो दिन, एक दो महीने अथवा एक दो वर्षों में नहीं आती, बल्कि कई बरस लग जाते हैं और एक ही जिन्दगी में एसके लिए कई जीवन जीने पड़ सकते हैं।  

Comments

Popular posts from this blog

बीता नहीं था कल

सोंधी मिट्टी को महकाते 'बिखरे फूल'

कहानी फिर कहानी है