एक तहज़ीब का सफ़र

राजकुमारी इंदिरा धनराजगीर की यादों में बसा हैदराबाद
राज़कुमारी इंदिरा धनराजगीर हैदराबाद के एक मशहूर जागीरदार और अदबनवाज राजा धनराजगीर की बेटी हैं . ये घराना उन बहुत कम ख़ानदानों में से एक था, जो हैदराबाद की निज़ाम हुकूमत और यहां के नवाबों को क़र्ज़ दिया करता था। हैदराबाद में जामबाग़ पैलेस अदबी-ओ-सक़ाफ़्ती सरगर्मियों का मर्कज़ समझा जाता था। इसी माहौल में राजकुमारी ने होश सँभाला। अपने वालिद के साथ रहते हुए शाही दरबार और नवाबों, जागीर दारों के ख़ानदानों से उनके अच्छे ताल्लुक़ात रहे। हैदराबाद से इंडो - एंगलियन  शायरा के तौर पर भी उन्होंने दुनिया भर में अपनी ख़ास शनाख़्त बनाई। उस्मानिया यूनीवर्सिटी की सैनेट रुक्न रही हैं। ऑल इंडिया विमेंस कान्फ़्रेंस के साथ इन का गहरा ताल्लुक़ रहा, आंध्रा- प्रदेश शाख़ की सदर रहीं। आंध्रा-प्रदेश हिन्दी अकेडमी के सदर के ओहदे पर रहते हुए तेलूगू की अदबी तख़लीक़ात के हिन्दी में तर्जुमा करवाने में उनकी अहम किरदार रहा है। एफ़.एम. सलीम के साथ बातचीत पर मबनी कुछ यादें यहाँ पेश हैं।

मम्मा बताती हैं कि मैं तीन साल तक बात नहीं कर पाई। वो ड़र गई कि मैं कहीं गूंगी ना हो जाऊं। तीन साल के बाद मेैं बोलने लगी और अपने हमउम्र बच्चों की तरह ही ठीक - ठाक बोलने लगी। इससे पहले ही से मैं एक सवार के साथ घुड़सवारी करती थी . मेरी पहली सालगिरह के मौके पर अंकल सालारजंग ने मुझे तोहफ़े में एक छोटी घोड़ी ( seetlonpony ) दी थी। इस का नाम लक्ष्मी था . मैंने उसी पर बैठ कर सवारी सीखी। बाद में एक अरबी नस्ल का घोड़ा पप्पा ने दिलाया था। इस का नाम फ़ैसल था। पप्पा राजा धनराजगीर और अंकल सालार जग की गहिरी दोस्ती थी। दोनों साथ पढ़े थे।

मेरा ज़्यादा तर वक़्त अपनी अंग्रेज़ गवर्नेस के साथ ही गुज़रता था। घर का माहौल ऐसा था कि दूसरे बच्चे के साथ खेलने का मौक़ा बिलकुल नहीं मिलता था। दूसरे बच्चे ज़नाने में नहीं आ सकते थे। हम बगै़र इजाज़त सिवाए माँ के ना पप्पा से मिल सकते थे और ना दादी से। इजाज़त भी कुछ वक़्त के लिए ही मिलती थी। बड़ी रिवायती ज़िंदगी थी। वहीं पर हम ने डिसीप्लीन सीखा, जो ज़िंदगी भर हमारे काम आया। कब बोलना, कब नहीं बोलना, कैसा बोलना, कैसा नहीं बोलना, कब खड़े रहना और कब सलाम करना ... ये सब बातें घर में ही सिखाई जाती थीं। आजकल के ज़माने में गोया ये सब जैसे पुराने दौर की बातें हो कर रह गई हैं। आज जो बच्चा जितनी ज़्यादा बातें करें, जितना ज़्यादा हंगामा करे और नाचे वही होशयार बच्चा समझा जाता है।

आधा दिन खेलने को मिलता था। इसी में घुड़सवारी के इलावा पिंगपांग, बैडमिंटन, स्केपिंग, आंखमिचौली और कुछ दीवाने से खेल खेला करते थे। साल में एक या दो बार गुड़ियों की शादी सब का पसंदीदा खेल था। गुड़ियों की शादी बिलकुल सचमुच की शादी की तरह होती थी। चांदी के बर्तन होते, किमख़्वाब के बनारसी कपड़े, छोटे - छोटे गुडडे - गुड़ियों को पहनाए जाते। असली घोडो पर बारात निकलती, खाने की दावतें होती। मैंने होश सँभाला, जब ही एक सफेद हाथी घर में था। बताते हैं कि दादा के ज़ामाने से वो हमारे घर में था। ए रावत नाम था इस का। अब तो इस तरह के हाथी देखने को भी नहीं मिलते। सुबह का एक बड़ा हिस्सा पढ़ने में गुज़रता, सब किताबें अंग्रेज़ी में थी, लेकिन पप्पा का ये उसूल था कि हम कभी भी उनके साथ अंग्रेज़ी में बात नहीं कर सकते थे। उन से हिन्दुस्तानी में ही बात करना पड़ता। वो ख़ुद उर्दू ही में बात करते थे। अंग्रेज़ गवर्नैंस थी, लेकिन वक़्त तौर तरीके बिलकुल नहीं चलते थे। हेलो, हाय तो कभी हमने सुना ही नहीं। जैसा - जैसा में बड़ी होती गई, पप्पा के साथ कुछ मज़ीद वक़्त गुज़रने लगा। उनको शायरी पढ़ने का शौक था, लेकिन माडर्न शायरी उनको पसंद नहीं थी। वो जिगर (मुरादाबादी), दाग़ (देहलवी) और जलील (मानिकपुरी) को पढ़ते थे।

 मैं अदब के साथ उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ जाती और वो ज़ोर से पढ़कर सुनाते। वो बराह-ए-रास्त सीधे- सादे इंसान थे, लेकिन हौले शोले नहीं थे। जानते थे कि किस चीज़ की कितनी एहमीयत है। घर में बताते हैं कि कि मियाने (घोड़गाड़ी) में स्कूल जाते थे। दो भोई आगे और दो भोई पीछे हो - हो कर आवाज़ लगाते थे। पप्पा के उर्दू अदब से लगाव पर सर मिर्ज़ा इस्माईल काफ़ी मुतास्सिर थे।

हम लोग हैदराबाद में बहुत कम रहते थे। ज़्यादा तर वक़्त बंबई (मुंबई) पूणे और दूसरे शहरों में ही गुज़रता। हर जगह हमारी कोठिया थी, लेकिन पप्पा अपनी शनाख़्त हैदराबाद से ही देते थे। कहीं भी उन्होंने अपने आप को बंबई या पूणे का नहीं बताया। कुछ दिन बंबई और कुछ दिन पूणे के स्कूलों में पढ़ने के बाद मुझे 1942 में मुंबई स्कूल में दाखिल कर दिया गया। हमारा कहीं जाना - आना नहीं होता था। कभी - कभी चचा प्रतापगीर के पास जाते थे। उनकी कोठी में आज ईएनटी अस्पताल है। बर्तानवी रेसिडेंसी से भी पप्पा के अच्छे ताल्लुकात थे।

आला हज़रत (निज़ाम) से पहली मुलसाकात  
मैं ग्यारह बरस की हूंगी। एक दिन पपपा ने कहा हमें आला हज़रत से मिलने जाना है। हम बच्चे ये सुनकर ही घबरा गए थे। मैंने दिल में यू सोचा कि पप्पा को ये क्या सूझी है। हम दुल्हन पाशा (निज़ाम की बेेेगम) को अक्सर अबिद शॉप (अाबिड्स ) से गुज़रते देखते थे। सीटियां बजने लगती थीं। सब लोग इधर - उधर गलियों में चले जाते थे। एक बार जब वो एक दुकान में दाखिल हुई तो मैं अपनी गवर्नेस के साथ इसी दुकान में थी। वहीं पर एक कोने में हम दुबक कर खड़े हो गए। मैंने दूर से उनको देखा था, ये बात मशहूर थी कि उनकी मोटर के सामने अगर कोई आ जाता तो उसको सज़ा के तौर पर उनकी मोटर के सात चक्कर काटने पड़ते और आला हज़रतजब भी वहां से गुज़रते, तब भी सीटियां बजने लगती। एक बार स्कूल से लौटते हुए हम आबिड्स से गुज़र रहे थे, तो आला हज़रत की गाड़ी वहां से गुज़र रही थी। वो अक्सर अपनी वालिदा की क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ने जाते थे। हम लड़कियां एक किनारे खड़ी थीं। दूर से सब की तरह सलाम किया।
जब पप्पा ने कहा कि आला हज़रत से मिलने जाना है, तो घर में एक दिन पहले से ही उस की तैयारियां होने लगीं। कौनसे कपड़े पहन लो ,किस तरह सलाम करें, कैसे खड़े हों, आँख में आँख ना मिलाएं, अपनी तरफ़ से कोई बात ना करें। इस तरह की कई बातें समझाई गई।
मुझे साड़ी पहनने की रिहर्सल कराई गई। वो जंगका ज़माना था। नई अच्छी साडिया आनी बंद हो गई थी। माँ की एक पुरानी अच्छी साड़ी मुझे पहनाई गई। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि एक क्रिसमिस दरख़्त की तरह मुझे तैयार किया गया।  उनका ब्लाउज़ मेरे नाप के बराबर टॉंका गया। उन्हीं के ज़ेवर मुझे पहनाए गए। घर की सीढ़ियां उतरते हुए मैं कई बार गिरते- गिरते बची। मेरे भाई शेरवानी और टोपी पहने हुए थे। नज़राना देने के लिए अशरफ़िया ली। साथ ही पप्पा ने चांदी का ख़ास पानदान बनाया था। जब हम किंग कोठी पहुंचे और हमें आला हज़रत के सामने जाने का मौक़ा मिला। तब जैसा कि हमें बताया गया था, हम ने झुक कर सलाम किया।  बड़े अदब के साथ नज़राना उनके हाथ में रखा। वो बड़े सादा शख़्स थे . लेकिन शख़्सियत रौबदार थी . मुझ से उन्हों ने अंग्रेज़ी में बातचीत की। मुझको देखते हुए उन्होंने पप्पा से कहा मैंने उस लड़की को अाबिड्स के पास देखा था।

इस से ज़ाहिर होता है कि उनकी याददाश्त बड़ी अच्छी थी। सड़क के किनारे लड़कियों के साथ भीड़ में खड़े देख कर भी उन्होंने मुझे याद रखा था। पप्पा ने उनसे पूछा कि मैंने उन को सलाम किया था या नहीं?
वो बस मुस्कुराए।
उन्हों ने मेरी तालीम के बारे में पूछा और मुंबई के स्कूल और हैदराबाद में फ़र्क़ पूछा।
पप्पा ने जब पानदान पेश किया तो उन्होंने उसे कबूल किया, लेकिन उनकी नज़र वालिद के हाथ में अंगूठी पर  जमी रही, जो एमराल्ड के रंग थी। वो हीरों की परख करते थे। वो पानदान आज भी जुब्ली म्यूज़ीयम में मौजूद है। बाद में कई बार आला हज़रता से मुलाकात हुई।  बाहर से अगर कोई भी शाही मेहमान हैदराबाद आते तो वालिद के साथ मैं भी इस्तेक़बाल के लिए मौजूद रहती थी। जब माउंट बेटन हैदराबाद आए थे, तो जुबली हाल में उनका इस्तेक़बाल रखा गया था।   हम लोग क़तार में खड़े थे। उस वक़्त तीन ही ख़वातीन मौजूद थी . बेगम ज़हीर यार जग, बेगम लुत्फुद्दौला और मैं। मैं तेराह चौदह बरस की थी। हमारे इलावा वहां राजा प्रतापगीर, राजा पननालाल पित़्ती, ज़हीर यार जंग, लुत्फुद्दौला, पप्पा के इलावा कुछ और लोग थे। माउंट बेटन ने तीनों ख़वातीन की ख़ूबसूरती की तारीफ़ की थी।

आला हज़रत के पास से किसी के पास ख़ाना आना बड़ी बात समझी जाती थी। ये इनायत हमारे घर पर कई बार हुई। ये उनके दस्तरख़्वान का खाना हुआ करता था। जो टिफिन में भरकर जिन पर उन की इनायत होती, भेजा जाता। माहौल ऐसा था कि कभी ये सोचने की नौबत ही नहीं आई कि कौन हिंदू है और कौन मुस्लिम। आज ये सब सुनती हूँ तो बड़ा अजीब लगता है। कई बार उन से दावतो में मलसाकाते हुई . वो कुछ ख़ास दावतो में ही शिरकत करते . ज़नाना में किसी मर्द को आने की इजाज़त नहीं होती , लेकिन आली हज़रत ज़नाने भी आ सकते थे।जब कभी वो ज़नाना में दाख़िल होते, ख़वातीन एक दस्ती हथेली पर रख कर उन्हें अशरफ़ियां नज़र करतीं।

यादगार बारात
मेरी शादी महाराजा किशन प्रसाद के बहन के पोते से तै हुई थी। उस वक़्त मेरी उम्र चौदह, पंद्रह बरस की थी। इस शादी के लिए निज़ाम से एक ख़ास फ़रमाना जारी किया गया था। बताते हैं कि सिकन्दराबाद से बारात निकली थी। कई जागीरा दार, ख़ुसूसन अंकल सालार जंग की फ़ौज भी बारात में शामिल हुई थी। कहा जाता है कि हैदराबाद में दो ही बाराते इतनी ठाठ से निकली थी। एक ज़हीर यार जंग की और एक मेरी। पप्पा ने साफ़ कह दिया था कि अठारा साल होने तक मेरी विदाई नहीं होगी और विदाई से पहले ही ये रिश्ता टूट गया। और फिर मेरी दूसरी शादी कई साल बाद 1971 में तेलुगू के मशहूर शायर शेषेन्दर शर्मा के साथ हुई।

मक़दूम से पहली मुलाकात
पप्पा ने मख़्दूम का नाम काफ़ी सुना था। वो उनसे मिलना चाहते थे।1952 में जब मख़्दूम जेल से छूट कर आए तो उन से मुलाकात की ज़िम्मेदारी क़मर तैयबजी पर थी। मख़्दूम शामशाबाद में एक मकान पर ठहरे हुए थे। जब हम वहाँ गए तो मकान में एक सांवला आदमी मैले-से कपड़ों में बैठा हुआ था, जिन का तआरुफ़ मख़्दूम के तौर पर कराया गया। मैं कुछ ही दिन पहले वियाना से वापिस आई थी और वहाँ कम्यूनिस्टों के साथ मेरे तजुर्बे अच्छे नहीं थे। मख़्दूम से पहली मलसाकात का तजुर्बा मेरे लिए अच्छा नहीं था। हममें सख़्त बातें भी हुई थी, लेकिन बाद में मख़्दूम का हमारे घर बहुत आना जाना रहा। शाम 6.30 बजे के क़रीब महफ़िलें जमती थी। एक दिन मैंने मख़्दूम से शायरी सिखाने की ख़ाहिश की। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अंग्रेज़ी में जो सोचती हूँ वही एक लाईन लिख दूँ, लेकिन मैंने सामने वाले दरख़्त को देखते हुए पता नहीं क्या - क्या लिख दिया। मख़्दूम वो लेकर चले गए। दूसरे दिन शाम के वक़्त जब मैंने बालकनी से झांक कर देखा तो मख़्दूम पप्पा को एक नज़्म ज़ोर - ज़ोर से सुना रहे थे। पप्पा बहुत कम मख़्दूम की नज़्में सुनते थे।  उस वक़्त शिव कुमार लाल भी वहाँ मौजूद थे। मैं कुछ देर बाद नीचे उत्तरी तो, पप्पा ने मुझसे पूछा क्या तुम भी शायरी करने लगी हो? मेरे पसीने छूटने लगे। ऐसा लगा कि अब वो चाबुक लेकर मारने लगेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुवा मैं ममख़्दूम पर ख़फ़ा हो गई। उनका ख़्याल था कि शायरी के लिए आशिकी का तजुर्बा ज़रूरी है। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मख़्दूम ने बताया कि उन्होंने मेरी अंग्रेज़ी नज़्म का तर्जुमा किया है और वही इतनी देर से सुना रहे हैं। वो बहुत संजीदा थे। उन्होंने बताया कि वो खुद इस तरह की नज़्म लिखना चाहते थे, लेकिन लिख नहीं सके। इस लिए मेरी नज़्म का तर्जुमा किया है। इस नज़्म को बाद में उन्होंने अपने मजमुए कलाम गुले तर में शामिल कर लिया था।


मैं जब मारीशस के दौरे पर थी। इस दौरान मैंने ये सोच कर एक टेपरिकार्ड़र ख़रीदा था कि इसमें में मख़्दूम की आवाज़ रिकार्ड कर सकूं। इस दौरान मेरे साथ एक अजीबो ग़रीब- वाक़िया हुआ। शाम का वक़्त था। मेरी आँख लग गई। आँख खुलते ही मैंने पाया कि मख़्दूम मेरे सामने खड़े हैं। एक लम्हे के लिए ही मैंने ख़्वाब की-सी हालत सोच कर उस वाकिये को ज़हन छिटक दिया। हैदराबाद पहुंचने पर एयरपोर्ट से घर आते हुए पप्पा के सेक्रेटरी ने बताया कि मख़्दूम नहीं रहे। मुझे बहुत अफ़सोस हुआ। मुझे आज भी महसूस होता है कि मख़्दूम यह जहाँ छोड़ने से पहले रुहानी तौर पर मुझको अल-विदा कहने मारीशस आए थे। वो टेप रिकार्डर मेरे पास आज भी मौजूद है। इस टेपरिकार्डर में मैंने किसी तरह की कोई रिकार्डिंग नहीं की।

पप्पा के प्रिंस मोज़जम जाह और प्रिंस आज़म जाह दोनों से अच्छे रवाबित थे। जब शहज़ादी नीलोफर और दर रे शेवार शादी के बाद पहली बार हैदराबाद आए थे तो पपपा ने बैगलोर में एक शानदार पार्टी दी थी और इस के बाद मोज़जम जाह हनीमून के लिए हमारे ऊटी के महल में ही रहते थे . अनवरी बेगम ( मोजजम जाह की दूसरी बीवी ) इस बात का ज़िक्र आज भी करती हैं . दोनों शेज़ादया जब नामपलली स्टेशन पर उतरें तो आली हज़रत ख़ुद इन्हें लेने आए थे . दोनों भी बहुत ख़ूबसूरत थीं . शिफॉन की साड़या पहने , सर पर पल्लू ओढ कर आई थीं . में उस वक़्त बहुत छोटी थी।

पर्दा नज़र और नीयत में था
आज जब बाज़ारों और जहां तहाँ स्याह बुर्कापोश के ख़वातीन को देखती हूँ तो मुझे अजीब लगता है, अगर मैं ये कहूं तो ग़लत ना होगा कि बुर्क हैदराबाद की नई तहज़ीब का हिस्सा है। यहां पर्दा ज़रूर था, लेकिन वो ज़हनों और नज़रों में हुआ करता था। हमारे घर में हर रोज़ शाम में नग़मे की महफ़िलें होती थी। रक़्कासएं भी आती थीं। उनकी अपनी इज़्ज़त थी। मुझे वो मंज़र आज भी याद है। चचा प्रतापगीरजी हो या दूसरे बच्चे, रक़्स होते वक़्त पप्पा के सामने बैठे हों तो नज़रें नीची होती। एक हिंदू घर होने के बावजूद घर के निचले हिस्से में दूसरे मर्द हों हम पप्पा की इजाज़त के बगै़र वहां नहीं जाते थे। शहर में चाहे हिंदू औरतें हो या मुसलमान उनकी सवारियों पर पर्दे लगे होते थे। बाज़ारों में जाते ही पर्दे लगाए जाते। लोगों के ज़हनों में पर्दे का एहसास था। आज पर्दा औरतों तक महदूद हो कर रह गया है। पहले मर्दों पर भी औरतों के लिए पर्दा लाज़िमी था।

Comments

  1. Dear Friends !

    This is a totally cooked up story of lies. She is a Razakaar Nymphomaniac.
    This is the heart of Ms. Indira Dhanrajgir's Life / Biography . She is Bhagmathi of Makhdoom Sahab's life and poetry. All his love gazals are addressed to her. I happened to get Makhdoom 's diary and other clinching documents secretly kept with her. All those papers were Makhoodm's manuscript of love gazals addressed to her. She traps / entices married men in the name of poetry and ruins their families. These reveal her love relation with Makhdoom sahab. I printed it as it is with title Chupa Makhdoom. She instigated Makhdoom's son Nursat( passed away in 2013 against me and foisted a police case. Her father married her off to Srikishen Seth nephew of Maharaja Kishen Pershad Ji. She bashed him up on day one itself and ran away and filed a divorce case which she dragged it till his death in 1968. She propagated in community that he was not fit for conjugal life . since 1969 she started enticing my father again in the guise of poetry and enacted the circus / street play of marriage in 1971 for the sake of getting her share of their ancestral property. She ruined Srikishen Seth's life and ruined my father's life and literature. Makhoom and one popular police officer are her best benificiaries. Srikishen Seth and my father are her worst victims. She is a nymphomaniac steeped in Razaakar Culture. Saatyaki S/o Seshendra Sharma
    -------------

    saatyaki
    saatyaki@gmail.com




    . Saatyaki S/o Seshendra Sharma
    http://seshendrasharma.weebly.com

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  2. Makhdoom Mohiuddin- Quli Qutub Shah
    ********
    Makhdoom Mohiuddin is Quli Qutub Shah of 20th century. Quli laid the foundation of ghazal. It is a historical fact that in the hands of Makhdoom gazal attained amazing heights and its crowing glory. Bhagmathi (Lady Love) inspired and enticed Quli into love ghazal. Similarly, there was lady love in Makhdoom’s life and literature also. Ms.Indira Dhanrajgir is life-force of Makhdoom’s love ghazals. All his love ghazals are addressed to her. Ms.Indira is Bhagmathi of Maqdoom’s life and 20th century urdu gazal. Indira Ji’s name appears conspicuously in several pages in his Magnum Opus ‘Bisat-e-Raqs”. Without an elaborate discussion on this vital aspect any account of Makhdoom’s life or poetry is shallow and meaningless. All the researchers and critics should work on this component of Makhdoom’s literature.
    saatyaki
    saatyaki@gmail.com


    Nusrath Mohiuddin S/o Maqdoom Mohiuddin passed away on 4.4.2013. RIP to his soul.
    What is tragic is to whom he was close to during his life time did not turn up to pay last tributes to him . Indira Dhanrajgir who was close to his father for decades did not bother to see his mortal remains. Nusrath was loyal and committed to her till the last moment. He used to be with her in all her meetings and family get togethers. Even when Maqdoom passed away she did not visit his house to pay last tribute. Maqdoom sahab passed away in Delhi and his body was brought to Hyderabad in August 1969. She was holidaying in Mauritius with her new love. Such people have no human values / sentiments.

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  3. PARDON ME FATHER
    I could not rescue him from the clutches of that nymphomaniac and vampire. There may be an exception or two but an average Indian woman desires from the depths of her soul that her husband should live long and she should pass away before him. She performs prayers and fasts on auspicious days for this purpose. She in spite of being 3years elder to him did away with my father in a planned and premeditated manner and I was a silent and helpless witness to it. He suffered 1st Heart attack in November 1997. Cardiologists performed angiogram and advised open heart surgery. Because there were blocks in vessels and one valve was damaged. But she successfully thwarted it and without my knowledge or informing any one got angioplasty done in Mediciti (Hyderabad: AP; India) her plan was to do away with him and live long, and establish herself as his wife through his books. He was succumbing to her blackmail. My overwhelming hunch is that she was threatening him with social insult and humiliation if he parts ways with her. Between 1997-2007, she played football with his body. He used to be hospitalized every now and then with swollen body and heart pain. Because of damaged valve pumping was impaired and water used to accumulate in the system. Every time I used to force her to hospitalize him. He used be in ICCU for a couple of days and recover marginally. After each visit to hospital he was getting debilitated gradually. He was put on wheel chair. He was virtually under house arrest. He was not allowed to speak to friends and family members. Visitors were kept away. He was taking Lasix (Tablet: is a diuretic that is used to treat fluid accumulation, caused by heart failure, cirrhosis, chronic kidney failure, and nephrotic syndrome.) to flush out water accumulated in his body. This creates a painful dilemma in me whether my interference in his health matters was just. As his son it was my moral duty to protect him. But I sometimes feel if I were not to interfere she would have put him to death long ago and thus he would have escaped from physical and mental torture quite early.
    Towards perhaps end of the month of March she withdrew medication. He got swollen suddenly and that condition continued till the last day i.e. 30th may 2007. Each time I visited I used to tell that witch to take him to hospital. But after a couple of visits I got convinced that she made up her mind this time to do away with him. I requested a bastard who was feigning to be a friend of mine, who incidentally happens to be a legal luminary of this region to send a doctor friend to that place and ascertain the exact condition of his health. But of no avail.
    I kept on telling him to come out of that place and lead a normal and healthy life. Her blackmail gained an upper hand and I lost in my efforts to restore health to him and bring him back to civilized society. O God pardon me for not being able to outmaneuver her machinations. Pardon me father.

    . Saatyaki S/o Seshendra Sharma

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