फिर वो कौन था जो इतनी देर बोलता रहा



फिर वो कौन था जो इतनी देर बोलता रहा
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कायनात में सबसे अहम जितनी चीज़ें हैं, उनमें से सांसों के बाद अगर कोई सब से ज़रूरी चीज़ है तो वह..लप़्ज़ है, लेकिन कभी-कभी एक और चीज़ उस पर भारी पड़ जाती है और वह है ख़ामोशी। किसी ने शायरी के बारे में कहा है कि यह दो लप़्ज़ों के बीच की ख़ाली जगह है। कहते हैं, कुछ कहने से ज्यादा त़ाकत ख़ामोश रहने में लगती है। शायरी ने भी ख़ामोशी के कई राज़ ख़ोले हैं। कहे हुए लप़्ज़ों को समझने के लिए न कहे हुए पर ज़्यादा ध्यान देने का फ़न भी दुनिया ने शायद शायरी से ही सीखी है। दो लोग बिना कुछ कहे, किस तरह सब कुछ कह जाते हैं, इसकी मिसाल देते हु गुलज़ार कहते हैं-
ख़ामोशी का हासिल भी एक लंबी-सी ख़ामोशी है
उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी
ज़िन्दगी में कुछ ऐसे लम्हे भी आते हैं, जहाँ कोई हमारी ख़ामोशी पढ़ लेता है और हम उसके इस तरह अपने को पढ़ने से चौंक जाते हैं। फिर हम भी उसकी ख़ामोशी को पढ़ने लगते हैं। उसके बाद लप़्ज़ों का कारोबार भी इसी ख़ामोशी के पेट से पैदा होता है। और लप़्ज़ आवाज़ के बाज़ार में गुम हो जाते हैं। यूँ तो कहा जाता है कि आवाज़ों के बाज़ार में ख़ामोशी को लोग नहीं पहचानते, जो पहचानता है, वहीं दिल के दर्द को भी जानता है। कभी तो यही ख़ामोशी महफिल के आदाब में भी शामिल हो जाती है। ग़ालिब सच ही कहते हैं-
बज़्म में उसके रू--रू क्यों न ख़ामोश बैठिए
उसकी तो ख़ामोशी में भी है यही मुद्दुआ कि यूँ
न बोलना, ख़ामोश रहना इतना आसान नहीं है। कुछ लोगों को तो बोलने की इतनी आदत पड़ जाती है कि वे बोलते चले जाते हैं, उस वक़्त तक जब तक कि लप़्ज़ अपने मानी न खो दें। वहीं बड़ी देर तक आस-पास बैठे कभी एक दूसरे को देखते हुए या कभी एक दूसरे से जानबूझ कर अंजान दूसरी सिम्त देखने वालों के बीच की ख़ामोशी भी कुछ बोलती है। दोनों बिन कहे ही बहुत कुछ सुनते और समझते चले जाते हैं।
ख़ामोश तुम भी थे और ख़ामोश मैं भी था
फिर वो कौन था जो इतनी देर बोलता रहा
ख़ामोशी और सन्नाटे की ज़ुबान अलग-अलग है। खामोशी जहाँ अमन और सुकून की पहचान है, वहीं सन्नाटा डर को दावत देता है। एक ख़ामोशी शिकायत भी होती है। शायरी दिये को ख़ामोश कर दिल जलाने की बात करती है। शायर कहता है।
दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
चले आयो जहाँ तक रोशनी मालूम होती है
मुहब्बत और उसके एक उसी के नतीज़े में मिलने वाले ग़म की शायरी ने जहाँ ख़ामोशी के अलग मानी दिये, वहीं तरक़्की पसंदों  ने ख़ामोशी को अलग मानी व मतलब अता किये हैं। वहाँ यह ज़ुल्म सहने का मुतबादिल बनी। साहिर ने उसे आह में बदल दिया-
ओ आसमान वाले कभी तो निगाह कर
कब तक ये ज़ुल्म सहते रहें ख़ामोशी के साथ
इसी दूसरे पहलू को देखते हुए हम कुछ और आगे बढ़ते हैं तो पाते हैं कि ये दुनिया खामोशी को समझने का माद्दा खोती जा रही है। इसलिए उसे लगता है कि यह बेसदाई दूर होनी चाहिए। चाहे वह उसके ह़क में हो या उसके ा़खिलाफ़।
राना सहरी का ख्याल है-
मैंने ये कब कहा कि मेरे ह़क में हो जवाब
लेकिन ख़ामोश क्यों है तू कोई फैसला तो दे
न जाने कितने सारे नाले शोर करते हुए नदी में जा गिरते हैं, जहां उनके बहने का शोर कुछ कम हो जाता है, लेकिन नदी जब समंदर में जा मिलती है तो वहाँ ख़ामोशी और बढ़ जाती है। सब अपनी-अपनी क़ुव्वत के मुताब़िक शांत रहते हैं।
संस्कृत के फलसफी भृतहरि ने कहा है कि समाज में रहते हुए मौन रहने की शक्ति कुछ ही दानिश्वरों में होती है और वह माशेरे में नगीने तस्व्वुर किये जाते हैं। उन्होंने कहा है कि शोर का जवाब शोर नहीं है, बल्कि उसका उसकी मुख़ालिफत ख़ामोश रह कर की सकती है ।
इक़बाल ने कहा है-
कह रहा है दरिया से समंदर का सुकूत
जिसका जितना ज़र्फ है उतना वह ख़ामोश है
एफ. एम. सलीम


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