पर दिलों में अब भी म़कसद घर वापसी का है -



सुबह के आते ही ख़त्म हो जाती है सुबह
तो कौन आएगा
और कौन आएगा
और कौन रंगेगा चादर के किनारों को
कौन मनाएगा उसकी उंगलियों के लम्स का जश्न
कौन मनाएगा सुबह की हैरानगी का जश्न
दीवार की सफ़ेदी पर चार कश्तियाँ
चार कश्तियाँ समंदर के तले में
रास्ता रोकते हैं आईने
मैंने चाही थी एक आवाज़, जो नहीं होती किसी और की जैसी
तो भी मैं गुज़रता जाता हूँ आईने भरे कमरे में
क्या मुझे अब अपनी आँखें बंद कर लेनी चाहिए ?
क्या मैं उस सब को नज़र अंदाज़ करूँ, जिसे मेरी आँखें जानबूझ कर नहीं देखतीं ?
इतनी दूर चलती गयी है ये सड़क
पर आईना अब भी रास्ता रोकता है
कभी-कभी मैं लड़खड़ाकर
ग़ायब हो जाता हूँ
छोटे दरीया वाले पानी में
ख़लीजे फ़ारस चमकता है मेरे सामने
ग़ोताखोरी के बाद मेरे हाथों में घांस
और एक सीपी
चक्कर काटती है मछली झटपटाती है
तितलियों, सेहियों, सितारों और
डूबे आदमियों की आँखों को
लंबी खामोशी मार डाल रही है मुझे
कहाँ से आ रही है यह आवाज़
आईनों से भरी दीवारों के बीच
थोडी देर से दोबारा शुरू करूँगा मैं
लड़खड़ना

सादी यूसुफ अरबी ज़ुबान के नामी गरामी शायर हैं। उनकी तख़‌लीक़ `शुक्रिया इमुरुल क़ैस' की आखरी सतर पढ़ते हुए हम उस आवाज़ के गहरे एहसास से गुज़रते हैं। दरअसल यह एक लंबी नज्म है, जो निकसिया शहर में लिखी गयी है और इसकी तख़‌लीक़ का ज़माना आज से त़करीबन 30 साल पहले का है।... जहाँ सभी तीर समंदर में बिखर गये है, घर में काई भर चुकी है, शायर ऐसे लफ़्ज़ों की तलाश में है, जिससे अमन पैदा हो सके। अमन ज़ैतून के बगीचे के लिए, अमन अंधेरे के लिए, उस एकलौती सीपी के लिए जिसने भीगी नींद में अपना ख़ून छिपा कर रखा है। सादी की ज़्यादातर नज़्में जंग के पसंमंजर में और यूरोप और अरब हुकुमरानों के ज़ुल्म और उस माहौल की देन हैं, जिसे उन्होंने क़रीब से देखा, महसूस किया है।
पोत्रोग्राद में इंक़लाबियों की ख़ंद़कों में लड़ते, तेल हड़ताल में मारे गये एक पड़ौसी को याद करते हुए वे पूछते हैं-
क्या तुम नहीं मारे गये थे तेल हड़ताल में ?
क्या वो तुम नहीं थे, पोपिरस की झाडियों में
गोलियाँ भरते अपनी मशीनगन में ?
क्या तुम ने नहीं लहराया था कम्यून का लाल झंडा ?
क्या तुम मुत्तहिद नहीं कर रहे थे
अवाम की फौज को सुमात्रा में ?
मेरा हाथ थाम लो, कभी भी गिर सकती हैं छ दीवारें
थाम लो मेरा हाथ
पडौसी! मैं य़कीन करता हूँ एक अजनबी सितारे पर
पडौसी!ज़िन्दगी की रात गूंजती है `तुम मेरा घर हो' से
हम घूम आये पता नहीं कहाँ -कहाँ
पर दिलों में अब भी म़कसद घर वापसी का है
राह मत भटकना पडौसी

सादी यूसुफ की नज़्में अपने पसमंजर की अक्कासी करती हैं। दूसरी जंगे अज़ीम पर उनकी एक और‌ नज़्म है `1943...।... हालांकि यह नज़्म उन्होंने बहुत बाद में लिखी है, लेकिन उस वक़्त के मंज़र उन्हें याद हैं। कीचड़ से सनी पैंट पहन अधनंगे बच्चे, फौजियों का इस्त़ेकबाल करने के लिए हसन अल बसरी के म़कबरे से लेकर दरियाए अशार तक क़तार में खडे हाथ में खजूर लिए, नारे लगाते। उन नारों में रोटी और भूख की चीखें साफ सुनाई देती हैं। स्पेन का अलहमरा पैलैस ताऱीक में अपनी खास अहमियत रखता है। इसी अल हमरा में मोमबत्तियाँ जलाता हुआ शायर लंबी सड़क पर, सोते घरों में, खौफ़ज़दा दुकानों में, खाली दफ़‌तर में कांपते सह़ाफियों के लिए, ज़ख्मी लोगों और उनके पास खड़े डॉक्टर के लिए एक-एक मोमबत्ती जलाने की ख़्वाहिश लिए शायर कहता है-
एक मोमबत्ती मुहाजिरीन से भरे होटल के लिए
एक मोमबत्ती गाने वाले के लिए
एक मोमबत्ती महफूज़ जगह से ब्राडकास्टिंग करने वाले के लिए
एक मोमबत्ती पानी की बोतल के लिए
एक मोमबत्ती हवा के लिए
एक मोमबत्ती वीराण अपार्टमेंट में दो मुहब्बत करने वालों के लिए
एक मोमबत्ती इब्तेदा के लिए
एक मोमबत्ती इन्तेहा के लिए
एक मोमबत्ती आखिरी फैसले के लिए
एक मोमबत्ती शऊर के लिए
एक मोमबत्ती मेरे हाथ में

तेज़ी से बढ़ते अर्बनाएजेशन की वज्ह से दम तोड़ते गाँव और उनकी तहज़ीब और उसी तेज़ी से और ग़रीब होते ग़रीबों का दुःख सादी की तख़लीक़ों में साफ झलकता है। उनकी एक तख़ल़ीक पढ़ते हैं-
जल्द
बंद हो जाएंगे सारे कमरे
और तह़खाने से शूरू होकर
अब छोडेंगे उन्हें
एक एक करके
जब तक हम नहीं पहुंच जाते बंद़ुकों तक
हम उन्हें भी छोड़ देंगे
कमरों की तरह
और निकल पडेंगे
नये कमरों की तलाश में
अपने खून के में
या अपने नक्शों में

क़ाबिले जिक्र है कि सादी यूसुफ की पैदाइश 1934 बसरा में हुई। उनकी तालीम व तरबियत ईऱाक में। तरक्की पसंद और कम्यूनिस्ट ख्यालात से मुतासिर होने की वजह‌ से उन्हें सद्दाम हुसैन के दौराने हुकूमत 1978 में ईऱाक छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। यहाँ से वे अलजीरिया, लेबनान और यमन में रहने के बाद सीरिया के सदर म़ुकाम दमश्क में मुस्त़किल तौर पर रहने लगे। अरबी ज़ुबान के जदीद शायरों में अहम म़ुकाम रखने वाले सादी यूसुफ के त़करीबन 20 मजमुए कलाम शाये हो चुके हैं। अंग्रेज़ी में उन्हें तआरुफ कराने का सहरा डॉ. एयर ह्यूरी को जाता है।
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एफ. एम. सलीम



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