खुश्बू जैसे लोग....बीजापुर से उस्मानाबाद तक
एक यात्रावृत्तांत......
बीजापुर (विजयपुरा)
दिसंबर
के अंतिम सप्ताह की एक सुबह
बात
2019-20 की है। आखिरकार बीजापुर हो ही आया था। दर असल लंबे अरसे से दिल और दिमाग़
के किसी कोने में अपने पूरे होने का इंतेज़ार कर रही ख़्वाहिश की आहट किसी दिन
इतनी अचानक और दबे पाँव चली आएगी, सोचा नहीं था। आदिलशाहों
का शहर बीजापुर देखने
की ख़्वाहिश पहली बार शायद उसी वक़्त जगी थी, जब लगभग 27 साल पहले
डिग्री में इतिहास पढ़ने के दौरान इसके बारे में सुना और पढ़ा था। गोलकोंडा की सैर
शीर्षक से एक पुस्तक में हैदराबाद के क़ुतुबशाहों और बीजापुर के
शासक आदिलशाहों की रिश्तेदारियों के साथ-साथ एक अजीब सी बात यह भी पढ़ रखी थी कि
दोनों सल्तनतों में बादशाहों के नामों में काफ़ी समानताएं हैं। दो दशक से अधिक समय
गुज़र जाने और पास वाले दोनों शहर गुलबर्गा और सोलापुर कई बार घूम आने के बावजूद बीजापुर जाने
का इत्तेफ़ाक नहीं हो पाया था और मेरे पहुँचने से पहले ही यह शहर बीजापुर से
विजयपुर या विजयपुरा बन गया। वक़्त गुज़रता गया, लेकिन इस ऐतिहासिक शहर को देखने
की इच्छा पर किसी तरह की धूल मिट्टी नहीं जम पायी। कई बार दोस्तों और और
बच्चो के साथ बीजापुर जाने
की योजना बनी, लेकिन
उस पर अमल नहीं किया जा सका। साल 2020 इस मामले में काफी शुभ बनकर आया।
वह
2019 दिसंबर के अंतिम सप्ताह की एक सुबह थी। नाश्ते के बाद ऑफिस के लिए निकल ही
रहा था कि सेलफोन की घंटी बजी। दूसरी ओर प्रो. अर्जुन चौहान साहब थे। सीधा-सा सवाल था, सोलापुर
ज़िले में
साहित्य और संस्कृति पर एक संगोष्ठी होने वाली है, आयेंगे? ना कहने के लिए कोई कारण
नहीं था। हाँ कर दी और फिर कुछ ही देर में एक अंजान नंबर से कॉल थी। दूसरी ओर सोलापुर
ज़िले के मंगलवेढ़ा में स्थित श्री संत दामाजी महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष
डॉ. नवनाथ जगताप थे। उन्होंने डॉ. चौहान साहब के आदेश का उल्लेख किया, फिर तय हुआ
कि 12 जनवरी को मांगलवेढ़ा में रहना है। गूगल मैप पर नज़र डाली तो देखा कि मंगलवेढ़ा
के आस-पास कुछ प्रमुख शहरों में सोलापुर और पंढरपुर के अलावा बीजापुर भी है। तय
हुआ कि इस बार बीजापुर ज़रूर जाना है। तय यह भी हुआ कि 11 जनवरी सोलापुर में और 13
जनवरी बीजापुर में बितानी है।
वेटिंग लिस्ट 11
यह अजब इत्तेफाक़ ही कहा जाएगा कि जब मंगलवेढ़ा जाने और आने की योजना बनी तो आते वक़्त का रिज़र्वेशन कन्फर्म था, लेकिन जाते वक़्त मुंबई एक्सप्रेस में पीक्यूडब्ल्यूएल वेटिंग लिस्ट 11 मिल गयी। दो दिन, चार दिन, पाँच दिन... पूरा सप्ताह गुज़र गया। इसमें किसी तरह की कोई कमी नहीं आयी। इसी बीच उस्मानाबाद के कलंब शहर से पुराने दोस्त डॉ. दत्ता साकोले का फोन आया। उन्हें भी मंगलवेढ़ा का इन्विटेशन मिला था। उन्होंने कहा कि एक दिन पहले या बाद में उनके कॉलेज में एक कार्यशाला रखी
जाएगी, मैंने हाँ कर दी और वहाँ 13 जनवरी को जाना तय हुआ। पूरी योजना ही पलट गयी।
अब 11 जनवरी को बीजापुर घूमना था, इसलिए रिज़र्वेशन कैन्सल कर दूसरा रिज़र्वेशन
करवाया। रिज़र्वेशन कैन्सल करने में कितने पैसे हाथ लगे किसी दिन और सही, लेकिन
दूसरे रिज़र्वेशन में भी एक दिलचस्प बात हुई। अब आते हुए उस्मानाबाद से
पूणे-हैदराबाद एक्सप्रेस में सीट मिल गयी और जाते हुए हैदराबाद बीजापुर में फिर
वही वेटिंग लिस्ट 11 ही थी। सप्ताह गुज़रने के बाद भी वह मुश्किल से रिज़र्वेशन के
दिन तक 6 पर पहुँच पायी। रेल प्रशासन में बैठे अधिकारियों की पुरानी दोस्ती कब काम
आती, याद किया और काम बन गया। रेल अधिकारी भाई राजेश को धन्यवाद।
बीजापुर
दसवीं शताब्दी के शहर की ओर रवानगी
हैदराबाद-बीजापुर पैसेंजर बिल्कुल समय पर शाम 7.45 बजे नामपल्ली(हैदराबाद) स्टेशन से निकल चुकी थी। विक़ाराबाद पहुँचने तक अकसर लोग अपनी सीटों पर पहूँचकर सोने की कोशिश कर रहे थे। कुछ देर की नींद और फिर रात करवटें बदलते हुए गुज़र गयी। सोलापुर पहुँचने तक पाया कि ट्रेन चली कम और रुकी ज्यादा है। ख़ैर सर्दी को पीछे छोड़ ट्रेन सोलापुर-गदक लाइन पर अपनी रफ्तार बढ़ा रही थी। रबी के मौसम के बावजूद कुछ कुछ ही खेत हरे थे और ज्यादातर बंजर मैदानों पर नज़र दूर तक जाती तो दिखाई देता कि कई जगहों पर लोगों ने उत्खनन कर खुला छोड़ दिया है। कुछ नहरें खोदी गयी हैं, लेकिन उनमें पानी का क़तरा भी नहीं है। बारह बजने को कुछ मिनट बाक़ी हैं और ट्रेन शहर के छोटे से स्टेशन में दाखिल हो गयी है। आखरी स्टेशन है, इसलिए सवार होने वाले और उतरने वालों की भारी भीड़ स्टेशन पर है।
बीजापुर |
स्टेशन से बाहर लोग मोटर साइकिलों पर अपनी जान पहचान वाले मुसाफिरों का इंतेज़ार कर रहे हैं। जिन्हें लेने कोई आना नहीं था, वो ऑटोरिक्षा की ओर लपक रहे हैं। बिल्कुल सामने जहाँ अहाते के दूसरी ओर मस्जिद नज़र आ रही है, नीचे एक बोर्ड लगा हुआ है। टाँगा स्टैंड, देखकर पंद्रह साल पहले की गुलबर्गा की यात्रा याद आयी।(तब तक इस शहर का नाम अभी कलबुर्गी नहीं हुआ था।) वो भी अजीब यात्रा थी, स्टेशन पर उतरे, तांगे वाले से पूछा कि दिन भर का क्या लेंगे, शायद उसे ऐसा सवाल करने वाले कम मिले होंगे। उसने दो सौ कहा और हमारी ओर से ढाई सौ रुपये और दोपहर का खाना साथ में खाने पर बात पक्की हो गयी। आज भी तांगे वाले दोस्त का वह चेहरा याद है, खुशी से चेहरे पर कुछ ऐसी मुद्रा बन गयी थी कि देखने वाला भी प्रसन्न हो जाए। कहीं मुसाफिर बन कर जाएँ और सवारी को उसके कहे दाम से बढ़कर बात तय हो तो मामला कुछ अलग ही होता है। वो भी जनवरी के दिन थे। रास्ते में एक ठेलाबंडी से हरी बूट उठा ली, दिन भर मूँह में चने के हरे दाने चबाने का काम चलता रहा।
बीजापुर में उस स्टैंड पर कोई तांगा नहीं था, अगर रहता तब भी उसका उपयोग नहीं
किया जा सकता था। एक नए मित्र हम्ज़ा महबूब का इंतेज़ार था। हम्जा महबूब मेरे एक
मित्र नईम भाई के दोस्त थे। नईम भाई ने आईटी में काम करते हैं और मुबारक डील्स के
नाम से एक स्टार्टअप भी शुरू किया था। खैर... बीजापुर रेलवे स्टेशन से हम्जा भाई
हमसफर हुए। कुछ ही मिनट में हम मोटर साइकिल पर सवार होकर छोटी-बड़ी सड़कों और गलियों
से होते हुए बस स्टैंड के बिल्कुल सामने होटल ललित महल पहुँच गये। जहाँ की छत से किलों
के पुराने महलों के दीदार बहुत क़रीब से किये जा सकते हैं।
बीजापुर
पुराने किले की दीवारों से घिरा शहर
बीजापुर शायद देश का अकेला ऐसा शहर है, जो पूरी तरह पुराने किले की दीवरों से
घिरा हुआ है। लंबे अरसे तक इसके महल सरकारी कार्यालयों और अधिकारियों के आवास के
रूप में इस्तेमाल किये जाते रहे हैं। अभी धीरे-धीरे पुराने महल ख़ाली हो रहे हैं।
आनंद महल खाली हो गया है। इतना ख़ूबसूरत महल है कि सही ढंग से देखभाल किये जाने पर
राज्य का बड़ा सांस्कृतिक केंद्र बन सकता है। देखते ही हैदराबाद के चौमहल्ला और
फलकनुमा पैलैसे का निर्माण शिल्प आँखों के सामने आ जाता है। इसे आदिलशाह ने 1589
में बनवाया था। हालाँकि अभी फव्वारों और बाग़ों-उद्यानों से सुसज्जित माहौल नहीं
है, लेकिन कभी इसके आसा-पास बाग़ बगीचों की मोहक दुनिया आबाद हुआ करती थी।
यादवों और चालुक्यों के बाद आदिलशाहों ने इस शहर को गले लगाया और इस शहर से
इतना प्यार किया कि इसे ऐतिहासिक धरोहरों का केंद्र बना दिया। अंग्रेज़ों द्वारा
कई जगहों से किले की दीवारें तोड़े जाने और मोट में सड़कें बनाने के बावजूद अभी
यहाँ बहुत कुछ बाक़ी है। जिला कलेक्टर और बड़े पुलिस अधिकारियों के आवास अब भी
आदिलशाही महलों में हैं। गोल गुंबद में आज भी हर दिन हज़ारों लोग आते हैं, लेकिन
स्थानीय प्रशासन की लापरवाही ही कही जाएगी कि इको के बहाने दिन भर हज़ारों लोगों
की आवाज़ें इसके गुंबद में गूंजती रहती हैं। इस बात की किसी को चिंता नहीं है कि
गोल गुंबद की इमारत को लगातार गूंजने वाली इन आवाज़ों से नुक़सान भी हो सकता है। पर्यटकों
को आवाज़ें निकालने के लिए उकसाने में स्थानीय गाइड्स की भूमिका भी कम नुकसानदायक
नहीं है।
यूरोप में ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के लिए नयी नीति बनायी गयी है कि एक
दिन में वहाँ पर्यटकों की निर्धारित संख्या ही जा सकती है और वहाँ घूमने के लिए
कड़े नियम बनाए गये हैं, जिनमें चिल्लाने और आवाज़ें निकालने पर प्रतिबंध भी शामिल
है। भारत में अभी तक इस पर सरकारी तौर पर किसी तरह का अध्ययन भी नहीं हुआ है।
बीजापुर
गोल गुबंद की हालत पर एएसआई के एक वरिष्ठ अधिकारी से बात की। अधिकारी का कहना
था कि भारत में केवल औरंगाबाद के अंजता में ही एक गैलरी के भीतर बातचीत को
प्रतिबंधित किया गया है। यहाँ पाया गया है कि लोगों की साँसों की गर्मी से भी
पेंटिंग प्रभावित हो रही हैं। यदि ऐसा हो तो बीजापुर के गोलगुंबद सहित देश के सभी
ऐतिहासिक धरोहरों पर एक अध्ययन होना चाहिए और
मलिका मैदान, इब्राहीम रोज़ा, गगन महल, आसार महल, इब्राहीम रोज़ा, उप्पली
बुर्ज, बारह कमान, सात खबर, कोटा नरसिम्हा मंदिर, शिवगिरी मंदिर, जोड़ गुंबद,
अफज़ल खान स्मराक, बेगम तालाब, संगीत नारी महल जैसे अनगिनत स्मारक हैं, जिनके
संरक्षण पर न स्थानीय प्रशासन गंभीर है और न ही पुरातत्व विभाग को इसकी कोई चिंता
है। उम्मीद ही की जा सकती है कि स्थानीय प्रशासन और पुरात्तव विभाग मिलकर इसकी
पुरानी शान को लौटाने का काम करें।
हम्ज़ा भाई के साथ
हम्ज़ा भाई के साथ कुछ ही घंटों में बीजापुर की कई इमातरें देखने का इत्तेफाक़
हुआ। फारूक़ महल, मलिक जान बेगम मस्जिद, ब्लैक ताज महल के नाम से मशहूर इब्राहीम
रोज़ा में स्कूली बच्चों की क़तार के साथ-साथ सफेद कपड़ों में एक गाइड़ का जिक्र
यहाँ दिलचस्प होगा। बच्चों को मलिका की कब्र के पास छोड़कर वह मस्जिद की ओर चला
गया और फिर अज़ान देने लगा। वह बच्चों को बताना चाहता था कि मस्जिद में बिना माइक
के अज़ान की आवाज़ कैसे गूंजती है। यह गाइड राजशेखर है, जो रह रोज़ यहाँ उतनी बार
अज़ान के शब्द मस्जिद की गुंबद के नीचे जाकर बोलता है, जितनी बार वह पर्यटकों के
साथ वहाँ आता है।
इत्तेफाक़ यह भी रहा कि हैदराबाद से निकलते हुए रेल
के डिब्बे में जिन लोगों से जानपहचान हुई थी, वे यात्री भी कई ऐतिहासिक स्थलों की
सैर पर बार-बार एक खास मुस्कुराहट के साथ टकराते रहे।
मंगलवेढ़ा का सम्मेलन
मंगलवेढ़ा के संत श्री दामाजी महाविद्यालय में
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में
मंगलवेढ़ा बहुत बड़ा शहर न सही, लेकिन एक खुशहाल कस्बा है। यहाँ के संत श्री
दामाजी के नामका बड़ा प्रभाव दीखता है। उन्हीं के नाम से स्थापित महाविद्यालय में
साहित्य, समाज और संस्कृति विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन आयोजित किया
गया था, जिसमें साहित्यकार, शिक्षाविद एवं शोधार्थी मौजूद थे।
यह संगोष्ठी श्री संत दामाजी महाविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा पुण्यश्लोक
अहिल्यादेवी होलकर सोलापुर विश्वविद्यालय के सहयोग से आयोजित की गयी थी। प्रो.
अर्जुन चौहान और प्रो. शिंदे को सुनने का मौका मिला। उन्होंने सारी ज़िंदगी में जो
कुछ समेटा है, उसके निचोड़ से नयी पीढ़ी को मार्गदर्शित कर रहे हैं।
मंगलवेढ़ा के संत श्री दामाजी महाविद्यालय में प्रो. अर्जुन चौहान और प्रो. शिंदे के साथ |
उस्मानाबाद ज़िंदगी में पहली बार पहुँच रहा था। इस
नाम के साथ बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं। पहली से चौथी कक्षा तक शिक्षकों ने इसे
पते के रूप में रटाया था। गाँव के नाम के साथ ज़िले के तौर पर इसी शहर का नाम याद
करना पड़ा था, लेकिन चौथी कक्षा में चार साल तक रटा हुआ वह पता ही बदल गया।
उस्मानाबाद की जगह नये जिले लातूर का नाम याद करने में कई दिन लग गये थे। सोलापुर
से रात 9 बजे की बस ऐतिहासिक शहर तुलजापुर
से होते हुए उस्मानाबाद पहुंची। बस से उतरते ही रहीम भाई स्वागत के लिए
तैयार थे।
कलंब के ज्ञानदेव मोहेकर कॉलेज में |
लातूर रेलवे स्टेशन पर कुछ पल
पूणे एक्सप्रेस लातूर रेलवे स्टेशन पर कुछ देर रुकती
है, बल्कि इतनी देर रुकती है कि आप अपने किसी पुराने दोस्त से दिल भर कर बातें कर
सकते हैं। पुराने दोस्त शफी अपने बेटे और रात के खाने के साथ स्टेशन पर पहुँचे थे।
बहुत देर तक बातें होती रहीं।
ख़ुश्बू जैसे लोग
हम दुनिया के कारोबार के बारे में चाहे जो शिकायत
रखें, लेकिन अच्छाई और सच्चाई की सत्ता हमेशा स्थापित रही है। वो लोग जो अच्छाई की
पुजारी रहे हैं, हमदर्दी और भाईचारे के भावनाओं से ओतप्रोत रहे हैं, मेहमान की
मेज़बानी से जिन्हें खुशी होती है, ऐसे लोग हमेशा स्मृतियों में एक अमिट खुश्बू की
तरह बसे रहते हैं। शायद ऐसे ही लोगों के बारे में कहा जाता है, खुश्बू जैसे लोग।
एक और चेहरा शायद ज़िंदगी भर याद रह जाए। वे हैं मंगलवेढ़ा
श्री संत दामाजी महाविद्यालय
के प्राचार्य डॉ. एन. बी. पवार।
डॉ. नवनीत जगताप साहब ने पहली बार उनसे फोन पर बात करायी थी और फिर एक दो बार फोन
पर बातचीत के बाद सीधे कॉलेज परिसर में ही उनसे पहली मुलाक़ात हुई। अपने मेहमानों
से एक खास तरह का लगाव। उनके खाने-पीने से लेकर मंज़िल तक पहुँचने तक उनकी
ख़बरगीरी, यह एक ऐसे इन्सान की खूबियाँ हैं, जिसमें अच्छे इन्सानी गुणों की विरासत
मौजूद होती है। डॉ. जगताप भी इन्हीं गुणों से भरे हुए मिले। इस मंच पर डॉ. अर्जुन
चौहान साहब से मुलाक़ातों का सिलसिला स्मृतियों की पुस्तक में कुछ और पन्ने जोड़ने
वाला रहा। सोलापुर विश्वविद्यालय के डॉ. देशमुख के साथ मंगलवेढ़ा से सोलापुर तक की
यत्रा दलित साहित्य के उतार चढ़ावों की जानकारी से भरपूर रही। डॉ. सुरैया शेख से
मुलाक़ात भी इस यात्रा की एक महत्वपूर्ण उपलब्धी थी। वह सोलापुर में हिंदी
विद्यार्थियों में काफी लोकप्रिय हैं। डॉ. एलुरे से भी यहीं मुलाक़ात हुई।
बीजापुर में |
एफ एम सलीम
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