रक्तबीज के किरदारों में जान डालतीं पूनम गोलछा
रंगधारा के 125वें प्रोडक्शन में एक नया चेहरा नज़र आया- पूनम गोलेछा। दरअसल रंगधारा और सूत्रधार ने कई कलाकार दिये। यहाँ से निकल कर कई कलाकारों ने अपनी प्रतिभाओं को अलग-अलग मंच पर मनवाया। रंगधारा की इस नयी प्रस्तुति `रक्तबीज' के नारी पात्रों को निभाने के लिए पूनम ने रसिकों से सराहना पायी है। पूनम को हालाँकि स्कूल और कॉलेज के ज़माने से ही रंगमंच एवं अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का काफी शौक रहा। उन्होंने विभिन्न मंचों से संचालक एवं एंकर के रूप में अपनी प्रतिभा प्रकट की, लेकिन नाटक की दुनिया में वह लंबे अंतराल के बाद आयी हैं।
पिछले दिनों जब दूरदर्शन केंद्र, हैदराबाद पर एक कार्यक्रम के दौरान पूनम से मुलाकात हुई तो बातचीत के दौरान पाया कि उनमें रंगमंच के प्रति न केवल लगाव है, बल्कि कला के क्षेत्र में आगे बढ़ने की ललक भी मौजूद है। अपने प्रारंभिक दौर के बारे में वह बताती हैं कि शौक के तौर पर मस्ती करने के लिए ऑडिशन दिये, लेकिन जब लोगों ने सराहना की तो मज़ा आने लगा। महसूस हुआ कि यह एक अच्छा माध्यम है, खुश होने का और अपने आपको व्यस्त बनाये रखने का। इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है, न केवल व्यक्तित्व में बल्कि बॉडी लैंग्वेज में भी बदलाव महसूस किया जा सकता है।
विनय वर्मा और शिरीष घोषाल जैसे कलाकारों के साथ कई तरह के किरदार निभाते हुए
दर्शकों ने जब पूनम को देखा तो अनायास उनके मूंह से सराहना निकल ही गयी। रंगधारा के संस्थापक डॉ. भास्कर शेवालकर काफी दिन
से शंकर शेष का यह नाटक करना चाहते थे और विनय वर्मा के निर्देशन में यह जब सामने
आया तो काफी दमदार भी रहा। आत्महत्या जैसे मुद्दे को नाटककार एक अलग तरह से अपनी
सोच किस तरह रखता है और आदमी अपनी प्रवृत्ति में हत्या और आत्महत्या किस तरह झूलता
है, इसको व्यक्त करने में नाटक के किरदार अपना असर छोड़ जाते हैं। पूनम गोलेच्छा
ने इसमें एक साथ कई किरदार निभाएं हैं और पलक झपकते ही किरदार बदलने के बावजूद
उन्होंने हर किरदार को भरपूर जिया। खासकर निर्देशक ने एक कमाल यहाँ यह कर दिखाया
है कि जब एक ही कलाकार कई सारे चरित्र निभाता है तो उसे अलग से पहचान देने के लिए
एक ओवरकोट का इस्तेमाल किया गया है। उनकी यह तकनीक दर्शक में एक नया कौतुलह पैदा
करती है।
अपने पहले नाटक के बारे में पूनम बताती हैं कि 2001 में जब वह 17 साल की थीं तो कॉलेज में महेश दत्तानी का नाटक `वेयर देयर इज विल' में अभिनय करने का मौका मिला था। उसी समय उन्हें अपने भीतर छुपे कला-प्रेम का अंदाज़ा हुआ। अब वह विनय वर्मा और शिरीष घोषाल के साथ काम करते हुए नये अनुभव से गुज़र रही हैं। मुंबई में इसके मंचन के लिए शंकर शेष फाउण्डेशन ने रंगधारा को आमंत्रित किया है।
हिन्दी के रंगमंच पर वह पहली बार उड़ान के साथ नादिरा बब्बर के लिखे नाटक `जी जैसी आपकी मर्जी' में नज़र आयी थीं। उसके बाद उड़ान द्वारा प्रस्तुत `टू बी नाट टू बी' में भी काम किया। इसी बीच उन्होंने टोर्न कर्नट्स के नाटक `चक्रव्यूह' में भी एक किरदार अदा किया।
हैदराबाद में पली-बढ़ी पूनम एलएलबी तथा एमएससी की डिग्रियाँ रखती हैं और स्टेट बैंक इंडिया में विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं, लेकिन इन दिनों लंबी छुट्टी पर हैं। बताती हैं कि घर में माँ की भूमिका निभाने के लिए उन्होंने छुट्टी ली है, लेकिन इसी दौरान उन्होंने अपना कुछ समय रंगमंच पर बिताने का निर्णय लिया और इसमें उन्हें काफी उत्साह भी मिल रहा है। इससे पूर्व वे बैंक के विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन करने के लिए राजस्थान, दिल्ली, मुंबई, वैज़ाक का दौरा भी कर चुकी हैं।
चाहे वह सेंट फ्रांसेस स्कूल हो या लिटिल फ्लावर ज्यूनिर कॉलेज अथवा भवन्स कॉलेज पूनम के साथी जानते हैं कि उन्हें शुरू से ही थियेटर के प्रति लगाव रहा है और अब जबकि लोगों ने उन्हें `रक्तबीज' नाटक में विभिन्न पात्रों को निभाते हुए देखा तो और तारीफ भी पायी। अब उन्हें लगता है कि यह उनकी शुरूआत है। कला को जानने और उसमें रमने के लिए काफी साधना और समर्पण की ज़रूरत होती है। रिहर्सल के लिए बहुत समय चाहिए और फिर जब साधना सही दिशा में आगे बढ़ेगी तभी इस कला में निखार आएगा।
पुनम बताती हैं कि आम तौर पर लोग रोज़ी-रोटी के लिए अपना सारा जीवन बिता देते हैं और जब उस दौरान कभी-कभार जीवन के असली उद्देश्य का पता चलता है तो काफी देर हो चुकी होती है। यही कारण है कि वह अब अपने शौक को कुछ और बेहतर तौर पर जीना चाहती हैं। वह कहती हैं, `मैं थियेटर में अपने जीवन के अर्थ तलाश कर रही हूँ। अब इसे छोड़ने का कोई इरादा नहीं है। हर शो में कुछ नया सीखते हैं, अपने आपमें सुधार लाने का मौका मिलता है।'
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